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अपना सामाजिक चरित्र बदलते गाँव

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 पुष्पा गुप्ता 

     1957 तक हमारे गाँव-जवार में सार्वजनिक मिलन स्थल सिर्फ संदेश और चिल्होस में साप्ताहिक बाजार थे. संदेश में मंगलवार और शनिवार तथा चिल्होस में रविवार और वृहस्पतिवार को हाट लगते थे, जहाँ लोग अनाज, सब्जियां या कभी-कभी मीट या मछली खरीदते थे. तब बाजार से सब्जी खरीदने वालों की संख्या भी बहुत ही कम थी.

        अमूमन लोग अपने घरों में उपजने वाली सब्जियों से ही काम चलाते थे. अधिकतर लोगों के लिए सब्जी का कोई महत्व नहीं था. बाजार में डोरीहार लोग आते थे, जो बच्चों के लिए काले और रंगीन डोरों से कलाई, पैर और गर्दन में पहनने वाले सामान बनाते थे. सयाने लोग भी गर्दन में डोरे की बध्धी पहनते थे.

तेली और बनिए लोग घोड़े या बैल पर लादकर अनाज बाजार में लाते थे, जहाँ से जरूरतमंद लोग खरीदते थे. बाजार में तब फल तो सपना ही था. फल का कोई नाम भी नहीं जानता था. चाय, पान और सिगरेट भी अभी बहुत दूर की चीज थी. ज्यादातर लोग बीड़ी पीते थे या खैनी खाते थे.

      पूरे इलाके में सिर्फ संदेश में ही अकेली ऐसी एक दुकान थी, जहाँ चाय और पान मिलता था. वह दुकान थी नंदलाल साह की. बाकी दैनिक जरूरत के सारे सामान या तो गाँव में ही मिल जाते थे, या फिर संदेश से लोग खरीदते थे. जीवन गाँव की सीमा तक ही सीमित था.

       कभी किसी विशेष काम से अगर किसी को आरा जाना पड़ता था तो यह गाँव में एक खबर बन जाती थी कि फलां आदमी कल आरा जाने वाले हैं. जीवन की एकरसता या तो किसी रिश्तेदार के आने या स्वयं किसी रिश्तेदार के यहाँ जाने पर ही टूटती थी. अधिकतर लोग तो अपने पूरे जीवन में कभी भी गाँव से बाहर कहीं गए ही नहीं. 

  गाँव के लोगों के जीवन की एकरसता और नीरसता टूटती था तब, जब संदेश में तजिये का जुलूस निकलता, या मकर संक्रांति को मेला लगता था. इसी तरह संदेश के बगल में ही तीरकौल के ब्रह्म स्थान के पास बसंतपंचमी को मेला लगता था. सभी ग्रामीणों के साथ ही छोटे बच्चे भी मोहर्रम के तजिये में गदका और लाठी-भाले का खेल देखने के लिए उत्सुकता के साथ उसका इंतजार करते थे.

      लाठी, तलवार, भाला, गदका और मुदगर का करतब मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू लोग करते थे. संदेश के बेनी माधव चौबे, रामचंद्र चौबे, हमारे गाँव के शिवनंदन दुसाध, दामोदर सिंह, राधा गोविन्द सिंह, खुटियारी के राम जीवन यादव और उनके भाई बंशी यादव और हनीफ मियां तथा दूसरे गाँव के भी कई लोग इसमें हिस्सा लेते थे अपना करतब दिखलाते थे. संदेश के मुसलमानों में भी चार-पांच ऐसे थे जो अपने करतब से लोगों को चमत्कृत करते थे.

       इनमें बच्चे भी बड़े जोश के साथ शरीक होते थे. डंके की चोट और ताल पर जब जवान जोश में भरकर अपने पैंतरे का करिश्मा दिखलाते तो अजीब शमां बंध जाता. हमें तो पता भी नहीं चलता था कि यह त्योहार मुसलमानों का है, क्योंकि इसमें मुसलमानों से ज्यादा हिन्दुओं की भागीदारी होती थी. गदका के पैंतरा जैसा शिवनंदन दुसाध दिखलाते, वैसा और कोई भी नहीं कर पाता. लाठी और गदका के मामले में पूरे जवार में उनका कोई शानी नहीं था. राधा गोविन्द सिंह की तलवारबाजी तो बेनी माधव चौबे का तलवार और मुदगर भांजना भी आश्चर्यजनक होता था. 

    लेकिन, लोगों को  सबसे ज्यादा इंतजार होता था संदेश में मकर संक्रांति को लगने वाले मेले का, जिसमें सोन नदी में स्नान करने के लिए दूर-दूर के गांवों से लोग आते थे. सोन के पूरब में अवस्थित पटना जिले के गांवों से में मर्द, औरतें और बच्चे आते थे. सौ मीटर में सड़क के दोनों किनारे सजे दुकानों में हर किसी के लिए कुछ न कुछ जरूर बिकता था.

        मिठाई की सबसे अधिक दुकानें होती थीं. इसके बाद औरतों के श्रृंगार से संबंधित चीजें होती थीं. मिट्टी और लकड़ी के खिलौने भी खुब बिकते थे. सोन किनारे लोग स्नान करके चूड़ा-दही भी खाते थे. किसानों की जरूरत की वस्तुएँ भी खुब बिकती थीं. कुदाल, खुरपी, हंसुआ, काठ के बर्तन, खिलौने, तथा जरूरत के दूसरे सामान भी खूब बिकते थे.

       कभी-कभी मेले में लड़कियों के साथ छेड़छाड़ के भी मामले देखने में आते थे. पर, मेले के आयोजक और संदेश गाँव के गण्यमान लोग इतने सावधान रहते थे कि ऐसी घटनाएं शायद ही कभी अपवादस्वरूप हो जाती थीं. मेले के बगल में ही शिवमंदिर भी था, जिसमें शिव पर जल चढ़ाने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती. मेला सिर्फ सुबह से शाम तक के लिए ही लगता. काठ के घुमने वाले घोड़े भी मेला में आते, जिस पर चढ़ने के लिए सबसे अधिक भीड़ बच्चों की ही होती थी.

     मेले में दुकानों से चोरी की भी कुछ घटनाएं हो जाती थीं. फिर भी, कुल मिलाकर मेला हमारे ग्रामीण जीवन का एक दुर्लभ उत्सव होता था, जिसका हम सालभर बड़ी ही बेसब्री से इंतजार करते थे. एक छोटा-मोटा मेला चैत की रामनवमी को भी लगता था. लेकिन वह अपेक्षाकृत बहुत ही छोटे स्तर पर लगता था. इसे हमलोग सतुआनी का मेला कहते थे.

      मेले में नये अनाज का सत्तू लोग बड़े चाव से खाते थे. पर, उस दिन सबसे आकर्षण का आयोजन होता था रामाधार चौबे जी के दालान और सड़क पर चैता का अखाड़ा, जिसमें कई गावों के चैता गाने वाले दल जुटते थे. उस समय चौबे जी की चलती थी. सारे गायक दल के लिए नाश्ता, मिठाई, खैनी और गांजे की व्यवस्था  रामाधार चौबे जी के ही जिम्मे होता था. 

    पर, इलाके का सबसे बड़ा और भव्य आयोजन होता था बसंतपंचमी के दिन तीरकौल में ब्रह्म स्थान के पास लगने वाले मेले का ही. इस मेले में बहुत दूर-दूर से लोग आते थे, और अपने रिश्तेदारों के यहाँ ठहरते थे. सुबह से शुरू होकर शाम तक मेले की गहमागहमी रहती थी. सबसे ज्यादा लोग ब्रह्म बाबा को कचवनिया चढ़ाने के लिए ही लोग जुटते थे.

     शाम तक कच्चे चावल से बनने वाला कचवनिया का बड़ा सा ढेर लग जाता था, जिसे बैलगाड़ी से ढोकर तीरकौल गाँव के ब्राह्मण अपने-अपने घर ले जाते थे. मिठाईयों की दर्जनों दुकानें होती थीं, जहाँ सुबह से ही लोग खाने पर टूट पड़ते. सबसे अधिक जलेबी की, और उसमें भी तेलहा जलेबी, बिक्री होती थी.

इसके अलावा लड्डू, पेड़ा, बर्फी, छेना, टिकरी, तिल कूट की भी दुकानें अच्छी संख्या में होती थीं. हवा मिठाई, मलाई बर्फ तथा खुरचन की भी बिक्री होती थी. मेले में जुए का भी एक-दो गिरोह होते थे, जिसमें अधिकतर देहात के लड़के फंस जाते थे. दिन भर खेल और तमाशे की गहमागहमी रहती थी. पर, मेले में सबसे दर्शनीय वह दृश्य होते थे, जब अंकवारी भरकर बहनें और माँ-बेटी का सामूहिक रूदन होता था. सचमुच बड़ा ही कारूणिक दृश्य होता था.

       ऐसे रोने वाली औरतों की भरमार होती थी मेले में. सबसे दुखद बात इस मेले की यह थी कि लड़कियों के साथ छेड़छाड़ आम बात थी. खुद तीरकौल गाँव के लोग ही इसमें शामिल होते थे. हमारे गाँव से लोहारों का सबसे बड़ा गिरोह होता था जो मेले में लोहे और लकड़ी के सामान बेचते थे. बच्चों के छोटे-छोटे खिलौनों से लेकर काठ का कठवत, कटोरा और कटोरी, हल, पालो, फाल, कुदाल, खुरपी, हंसुआ, छोलनी, कड़ाही एवं और भी कितने ही सामान बिकते थे.

        लेकिन, सबसे अधिक परेशानी होती थी धूल से जो दोपहर तक पूरे मेले में छा जाती थी. मिठाईयों पर तो अमूमन ही धूल की परत जम जाती थी. बांसूरी वाले, गंडा बेचने वाले तथा गीत के किताब बेचने वाले भी अक्सर ही मेले में आते थे. मड़ई कवि तो हर साल मकर संक्रांति और बसंतपंचमी के मेले में संदेश और तीरकौल जरूर ही आते थे. मुझे भी मेला घूमने के लिए घर से कभी आठ आने या कभी छ: आने मिल जाते थे. एक ही बार ऐसा हुआ था कि मुझे मकर संक्रांति मेले के लिए बारह आने मिले थे.

         उस दिन सचमुच ही मैं अपने को राजा समझ रहा था. आज सोचता हूँ कि अगर उस समय ऐसे मेले भी नही होते तो देहात के लोगों की जिंदगी कैसी होती. सचमुच ही उनकी जिंदगी नीरस एकरस और उदासी भरी होती थी.  जिंदगी की छोटी-छोटी खुशियाँ भी उन्हें नसीब नहीं थीं. एक छोटी-सी जगह में कैद वे ऐसी जिंदगी जी रहे थे, जिसमें कोई उल्लास नहीं था, कोई उत्साह नहीं था, कोई रोमांच नहीं था, और न ही कोई भविष्य का सपना था.  

        बस एक छोटी-सी जिंदगी थी, जिसे वे एक छोटे-से दायरे में जिए जा रहे थे. 

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