शशिकांत गुप्ते
थम गई हैं,वादों,दावों और घोषणाओं की कर्कश आवाज, और बेशकीमती इश्तिहार,सब थम गए हैं।
यह एक अनवरत चलने वाली परंपरा है। नतीजों का इंतज़ार है।
इंतज़ार तो पंद्रहलाख़ का भी है?
इंतज़ार उस चौराहे का भी है,जहां,नोटबंदी के बाद …. छोड़ो? ऐसे अनेक वादे हैं जो पूर्ण होने का इंतज़ार है?
किसानों की आय दुगुनी होने का इंतज़ार है? दो करोड़ रोजगार का इंतज़ार है? रोजगार के लिए रोड पर अपनी आवाज बुलंद करते हुए,देश का युवा, अधेड़ उम्र की ओर बढ़ रहा है।
सरहद पर देश की रक्षा के लिए मात्र चार वर्षो तक अपनी सेवा देने के पश्चात इस कहावत को चरितार्थ करने के लिए मजबूर है कि, जान बची लाखों पाए, लौट के बुध्दु घर को आए
चार वर्ष के बाद बगैर पैंशन,और अन्य किसी लाभ के बाद सेवा निवृत्त। पुनः “बे” रोजगार?
सेवा के दौरान कोई शहीद हो जाता है,तो उसे कोई भी तवज्जो नहीं दी जाती है?
कौन करेगा वादे पूरे? कोई मूर्खों का सरदार है? कोई झूठों का सरदार है? यदि सरदारों के अनुयायियों की संख्या को ज्ञात की जाए तो बहुत आश्चर्य होगा।
एक विश्व के सबसे बड़े राजनैतिक दल का दंभ भरने वालें दल की संख्या और दूसरी एक सौ अड़तीस वर्षों पुरानी पार्टी के सदस्यों की संख्या को ज्ञात करने पर देश में मूर्खों और झूठों की संख्या पता चल सकती है?
दोनों ओर सरदार है,असरदार कोई नहीं हैं।
अवसर की तलाश वालें,वादी बहुत हैं। ये अवसरवादी जिधर बम उधर हम इस कहावत को चरितार्थ करते हैं।
इस संदर्भ में शायर असरार-उल-हक़ मजाज़ का निम्न शेर सटीक है।
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएँ नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
ये लोग बड़े शातिर खिलाड़ी हैं, अपने स्वयं के द्वारा पहने हुए नक़ाब कोई दूसरा उतारे इस तकाज़े (इच्छा) का इंतजार करते हैं।
इन पर यकीन करने वालें,मुंह ताकते ही रह जातें हैं।
आम जन बेचारा सिर्फ इंतजार ही करता है,वो सुबह कभी तो आयेगी
इस मुद्दे पर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ द्वारा रचित निम्न शेर वास्तविकता बयां करता है।
कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएँगे सुनते थे सहर होगी
सहर होगी निश्चित होगी हो के रहेगी।
इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा
जब दुःख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर छलकेगा
वो सुब्ह कभी तो आएगी
शशिकांत गुप्ते इंदौर