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क्या 22 जनवरी का रामोत्सव भारत में हिंदूराष्ट्र की स्थापना का उत्सव था?

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कंवल भारती

अयोध्या में बीते 22 जनवरी, 2024 को प्राण-प्रतिष्ठा संपन्न हो गई। शंकराचार्यों का विरोध काम नहीं आया। उनका विरोध कोई मायने भी नहीं रखता था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट से राम-मंदिर के पक्ष में फैसला आने से लेकर मंदिर के लिए भूमि-पूजन और राम-मंदिर ट्रस्ट बनाने तक में जिस प्रधानमंत्री की सक्रिय भूमिका रही है, वह मूर्ति-स्थापना के लिए अपने अधिकार को कैसे छोड़ सकते थे? लेकिन यह सवाल जरूर गौरतलब रहेगा कि प्राण-प्रतिष्ठा का अनुष्ठान गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) से चार दिन पहले क्यों किया गया? इसमें आरएसएस और भाजपा का कौन-सा उद्देश्य निहित था? इस सवाल का जवाब शायद कभी नहीं मिलेगा, जैसे इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला कि बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने के लिए 6 दिसंबर (1992) का दिन क्यों चुना गया था? लेकिन दोनों तिथियां सुविचारित ढंग से तय की गई थीं। इसे समझना मुश्किल नहीं है। 

यह सभी जानते हैं कि छह दिसंबर का दिन देश-भर में संविधान-निर्माता डॉ. आंबेडकर की पुण्यतिथि अर्थात परिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाया जाता है। और 26 जनवरी को संविधान लागू हुआ था। छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद गिराकर संविधान के प्रति अनास्था व्यक्त की गई थी, और गणतंत्र दिवस से चार दिन पूर्व प्राण-प्रतिष्ठा करके राम को कानून बताकर, भारत के संविधान पर प्रश्न-चिह्न लगाया गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक आह्वान पर पूरे देश में हिंदुओं ने दिवाली मनाई। रात-भर पटाखे फोड़े गए। रंगीन आतिशबाजी की गई। बाज़ार, इमारतें, चौराहे, गलियां, सड़कें, घर-आंगन सब जगमगा गए। दलित-पिछड़ी जातियों की बस्तियों में विशेष पूजा-पंडाल लगाए गए। मंदिरों में भजन-कीर्तन कराए गए, जेलों में भी प्रशासन ने पूजा-अर्चना कराई। रामभक्तों ने राम-यात्रा निकाली। उत्तर प्रदेश के हिंदू अधिकारियों ने, विशेष रूप से डीएम-एसपी आदि ने मंदिरों में पूजा की। भंडारे किये गए, शाम को प्रसाद बांटा गया। और एक दिन पहले ही लगभग सभी हिंदू घरों की छतों पर राम के चित्र वाले भगवा झंडे लहराने लगे थे।

यह न तो आकस्मिक था, और न स्वत:स्फूर्त। यह रामभक्ति भी नहीं थी। अगर वास्तव में यह कुछ थी तो सत्ता द्वारा प्रायोजित मोदी-भक्ति थी। शासन द्वारा दीपोत्सव मनाने के आदेश दिए गए थे, जिसका इंतजाम करने के लिए पूरा जिला प्रशासन और भाजपा-आरएसएस का सारा तंत्र काम पर लगा दिया गया था। इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने विशेष बजट आवंटित किया था।

असल में यह प्रायोजित दीपोत्सव यह परखने की चुनाव-पूर्व परीक्षा थी कि मोदी-भक्ति का ग्राफ नीचे तो नहीं जा रहा है? और सचमुच अयोध्या में अपार जन-सैलाब और हिंदी क्षेत्र में मनाए गए भारी दीपोत्सव को देखकर मोदी और आरएसएस गदगद हो गए। उन्हें रामोत्सव के भारी जन-उत्साह में हिंदुत्व की राजनीति सफल होती दिख रही थी। इसलिए आरएसएस-प्रमुख मोहन भगवत का यह कहना आकस्मिक नहीं है कि “रामलला के साथ भारत का ‘स्व’ लौटकर आया है। मंदिर से एक नए भारत का उदय हुआ है। और रामराज्य आ रहा है।” इसलिए यह अद्भुत तो है ही कि 1925 में हिंदूराष्ट्र के निर्माण के लिए गठित आरएसएस आज 2024 में अपनी सौ सालों की मेहनत को साकार होता देख रहा है। हालांकि इसमें संदेह नहीं कि भारत को हिंदूराष्ट्र बनाने में संविधान एक बाधा है, पर हिंदू जनमानस में रामराज्य की धारणा बैठाकर उस बाधा को दूर करने की दिशा में वे अपना एक कदम तो बढ़ा ही चुके हैं। इसलिए यह भी आकस्मिक नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में दिए गए अपने भाषण में “राम को भारत का कानून” कहा है। इसका क्या मतलब है? प्रधानमंत्री का भाषण 23 जनवरी के सभी अख़बारों में प्रमुखता से छपा है, और इंडियन एक्सप्रेस ने तो उसे एक विशेष लेख के रूप में ही प्रकाशित किया। इस भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा है, “यह देव-मंदिर मात्र नहीं है। यह भारत के दृष्टिकोण, भारत के दर्शन और भारत की नीति का मंदिर है। हमें अपनी चेतना का विस्तार देव से राम तक, और राम से राष्ट्र तक करना है।” उन्होंने कहा कि “राम मंदिर से देश का विमर्श बदलेगा, जिसके केंद्र में रामराज्य के बुनियादी मूल्य होंगे।” उन्होंने यह भी कहा कि “राम भारत की आस्था हैं, राम भारत की बुनियाद हैं, राम ही भारत का चिंतन हैं, और राम ही भारत का कानून हैं।” उन्होंने कहा कि “इसी पवित्र स्थान से अगले एक हजार वर्षों के भारत की बुनियाद डालनी होगी।” क्या प्रधानमंत्री के इन शब्दों में भारत को हिंदू कानून वाला हिंदूराष्ट्र बनाने का खुला आह्वान नहीं है?

अयोध्या में स्थापित राम की प्रतिमा व भारतीय संविधान का मुखपृष्ठ

तब क्या यह माना जाए कि 22 जनवरी का रामोत्सव भारत में हिंदूराष्ट्र की स्थापना का उत्सव था? क्या इस दिन को लोकतंत्र के इतिहास में हिंदूराष्ट्र की प्राण-प्रतिष्ठा का दिन माना जाए? दूसरे शब्दों में क्या यह माना जाए कि 22 जनवरी से लोकतंत्र की विदाई के दिन शुरू हो गए? जिस तरह अयोध्या में दर्शन करने वाले यात्रियों से कुछ टीवी एंकरों द्वारा यह पूछा गया कि “क्या आपको लग रहा है कि त्रेता युग आ गया?” और वे उत्साह में बोल रहे थे– “हां, आ गया” तो यह दिखाने का क्या मतलब है? क्या इस तरह त्रेता युग की जय-जयकार करवाना किसी ख़ास राजनीतिक मुहिम का हिस्सा है? क्या त्रेता युग को वापस लाया जा सकता है? क्या आरएसएस-भाजपा समय की सूई को हजारों साल पीछे खींचकर ले जा सकते हैं?

हालांकि यह संभव नहीं है, लेकिन पिछले दस सालों से जिस तरह भारत के लोकतंत्र को एक निरंकुश राज्य में बदला जा रहा है, उससे सह-अस्तित्व के लिए ही नहीं, बल्कि भारत राष्ट्र के लिए भी खतरा पैदा होने लगा है। भाजपा ने हिंदुत्व को राज-धर्म बनाकर जिस बहुसंख्यक राष्ट्रवाद को लोकतंत्र में उभारा है, उसने सांस्कृतिक बहुलता को तो नष्ट किया ही है, अल्पसंख्यकों के लिए नफरत और दहशत भरा माहौल भी पैदा किया है। यह नफरत वातावरण में इसलिए है, क्योंकि यह भाजपा और संघ-परिवार के नेताओं के मन में है, जो उनकी सरकारों में भी दिखती है। एक उदाहरण अभी हाल का है। 22 जनवरी को अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा हुई, और 23 जनवरी को मुंबई के हैदर चौक में 15 मुसलमानों के घरों पर बुलडोज़र चलवा दिया गया। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बड़े गर्व के साथ बताया कि “21 जनवरी की रात में बाइकों पर हिंदुओं का एक दल ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाता हुआ गुजर रहा था, तो इन मुसलमानों ने उनको रोका और हिंसा की। अत: हमने उन मुसलमानों के घरों को जमींदोज करवा दिया।” अगर ऐसा ही रामराज्य लाया जाएगा, तो भारत के संविधान का क्या होगा? भाजपा-शासित राज्यों में यह बुलडोज़र मुसलमानों के घरों पर नहीं, संविधान के ऊपर चल रहा है।

कहा जा रहा है कि आरएसएस और भाजपा के समर्थकों की संख्या 30-40 प्रतिशत से अधिक नहीं है। शेष 60-70 प्रतिशत लोग लोकतंत्र और संविधान को मानने वाले हैं, जो धर्मनिरपेक्षता और सह-अस्तित्व में विश्वास करते हैं। माना कि यह सच है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह 30-40 प्रतिशत की जनसंख्या अंधभक्तों की संख्या है, जो अपने नेतृत्वकर्ता के एक इशारे पर कुछ भी कर सकती है। जो संख्या-बल एक अपील पर दीपोत्सव मना सकता है, वह दूसरी अपील पर नरसंहार को भी अंजाम दे सकता है। और आधुनिक भारत के इतिहास में एक नहीं, अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जब अंधभक्तों की भीड़ ने नेतृत्व के इशारे पर नरसंहार किए हैं। मोदी ने संसद में यह अनायास ही नहीं कहा था कि “एक मोदी सब पर भारी।” पिछले दस सालों में एक डरा हुआ बौद्धिक वर्ग और एक विवेकहीन समाज यूं ही नहीं पैदा हो गया?

क्या रामराज्य भारत के लोकतंत्र का विकल्प बन सकता है? क्या रामराज्य के मूल्य सह-अस्तित्व और बहुलतावाद की संस्कृति को स्वीकार कर सकते हैं, जिनके आधार पर प्रधानमंत्री मोदी एक नए भारत का निर्माण करना चाहते हैं? हालांकि, रामराज्य भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में कभी था ही नहीं। यह एक मिथकीय रामराज्य है। फिर भी, इस मिथकीय न्याय-व्यवस्था के केवल दो दृष्टांत हमें वाल्मीकीय रामायण में मिलते हैं। ये दो मुकदमे हैं, जिनमें पहला मुकदमा एक कुत्ते का है। कुत्ता यह फरियाद लेकर राम के दरबार में जाता है कि उसे एक ब्राह्मण ने डंडा मारा है। राम कुत्ते से पूछते हैं कि तुम्हें डंडा मारने वाले ब्राह्मण को क्या दंड दिया जाए?

कुत्ता कहता है कि वह पूर्वजन्म में एक मठ का पुजारी था, जो दुष्ट था। इसी के कर्मफल में वह कुत्ते की योनि में पैदा हुआ। इसलिए उसने ब्राह्मण के लिए यह दंड मांगा कि उसे भी मठ का पुजारी बना दिया जाए। राम ने यही न्याय किया। दूसरे मुकदमे में एक ब्राह्मण अपने मृतक पुत्र को लेकर आता है और कहता है कि मुझे न्याय चाहिए कि इसकी असमय मौत का अनर्थ क्यों हुआ? राम जांच करवाते हैं, तो पता चलता है कि ब्राह्मण-पुत्र की असमय मौत का कारण एक शूद्र है, जो एक नदी के किनारे तपस्या कर रहा है। राम तुरंत जाकर उस शूद्र का वध कर देते हैं और ब्राह्मण-पुत्र जीवित हो जाता है। अगर हम सीता के निष्कासन के निर्णय को भी रामराज्य की न्याय-व्यवस्था का एक सिद्धांत मान लें, तो कुल मिलाकर यही तीन रूप रामराज्य की न्याय-व्यवस्था के हैं, जिनका एक पंक्ति में सारांश है– स्त्री और शूद्र को नियंत्रण में रखना। क्या ऐसे मानव-मूल्य एक आधुनिक राज्य के न्यायिक सिद्धांत हो सकते हैं?

क्या इन मूल्यों पर नए भारत की बुनियाद रखी जा सकती है? क्या ऐसा रामराज्य भारत के लोकतंत्र का विकल्प हो सकता है? चलिए, हम शूद्र-वध और सीता के निष्कासन को छोड़ देते हैं, जो मिथकीय राम का चरित्र है, और मोदी के नए राम की बात करते हैं, जिन्हें वह भारत का कानून कहते हैं। क्या राम का कानून हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और अल्पसंख्यक-विरोध की राजनीति को छोड़ देगा? क्या यह धर्मनिरपेक्षता और सह-अस्तित्व के सिद्धांत को स्वीकार कर लेगा? कोई भी भाजपाई इसका उत्तर ‘हां’ में नहीं दे सकता। फिर उनके राम का कानून उस संविधान से बेहतर कैसे हो सकता है, जो 26 जनवरी, 1950 को भारत राष्ट्र ने अपनाया था? जिस भाजपा और संघ-परिवार के नेता सार्वजनिक मंचों से संविधान को बदलने की बात करते हों, खुलेआम मुसलमानों के कत्लेआम के नारे लगाते हों, चर्चों पर हमले करते हों और पादरी को जिंदा जला देते हों, उनसे क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि वे सह-अस्तित्व को स्वीकार करेंगे?

यदि उनमें सह-अस्तित्व की भावना होती, तो क्या वे अयोध्या का विवाद निपट जाने के बाद, काशी और मथुरा की मस्जिदों के नए विवाद पैदा करते? ठीक बाबरी मस्जिद की तर्ज पर, जिस तरह काशी-मथुरा का राजनीतिक ड्रामा खेला जा रहा है, जिसमें उन्हें सफलता मिलनी ही है, क्योंकि सत्ता उनके हाथ में है, तो क्या वे आने वाले समय में बाबरी-मस्जिद की तर्ज पर काशी और मथुरा की मस्जिदों पर कहर नहीं ढाएंगे? जिस तरह उन्होंने लोकसभा चुनावों में हिंदू-ध्रुवीकरण के लिए रामोत्सव प्रायोजित किया, तब क्या 2029 के चुनावों के लिए वे काशी में शिवोत्सव या मथुरा में कृष्णोत्सव का प्रायोजन नहीं करेंगे? और फिर राम की तरह ही क्या वे शिव या कृष्ण को भी भारत का कानून नहीं कहेंगे? तब क्या मिथकों और देवताओं के राज्य से ही देश चलेगा? लेकिन चाहे रामराज्य हो, या अन्य देव-राज्य, पर वह वास्तव में हिंदू-राज्य के सिवा कुछ नहीं है।

इसलिए, जिस तरह आरएसएस और भाजपा एक डरे हुए बौद्धिक वर्ग, एक विवेकहीन समाज और बिकी हुई मीडिया के बल पर, सत्ता के आतंक द्वारा, हिंदू-राज्य लाने में कामयाब हो रहे हैं, उसकी चेतावनी डॉ. आंबेडकर ने आज़ादी मिलने से पहले ही दे दी थी। उन्होंने कहा था कि “अगर वास्तव में हिंदू राज की स्थापना हो गई, तो यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा, क्योंकि हिंदुत्व लोकतंत्र के लिए खतरा है, यह स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का दुश्मन है।” भाजपा नेता भले ही कहें कि वे सबका साथ और सबका विकास चाहते हैं, पर सच यह है कि सबका विकास हिंदुत्व के एजेंडे में ही नहीं है। डॉ. आंबेडकर ने लिखा है– “हिंदुत्व का दर्शन न्याय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, क्योंकि उसकी रूचि संपूर्ण समाज में नहीं है, बल्कि उसकी रूचि एक वर्ग विशेष के हित में है; और यह उसी वर्ग की रक्षा करता है। और यह विशेष वर्ग ब्राह्मण है।”

लेकिन डॉ. आंबेडकर की यह चेतावनी अकारथ गई, जो उन्होंने 24 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दी थी। उन्होंने कहा था कि 26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करेंगे। एक ओर हम राजनीतिक जीवन में समानता प्राप्त करेंगे, लेकिन दूसरी ओर सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता रहेगी। इस विरोधाभास को जितनी जल्दी हो सके, हमें दूर करना होगा, वरना सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता से पीड़ित लोग इस लोकतंत्र के ढांचे को नष्ट कर देंगे। लेकिन, यह विरोधाभास सत्तर साल बाद भी यथावत है, और पीड़ित लोग जरा भी सचेत नहीं हैं।

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