बीते दिनों जब मध्य प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में औचक बारिश और ओलावृष्टि हुई तो सोशल मीडिया पर ऐसे ही मैसेज चल पड़े। कुछ ने इस मैसेज पर ठहाका मार दिया, कुछ किसानों की दशा पर अफसोस जता कर रह गए। किसी ने गर्मी से राहत महसूस की तो किसी को लगा कि बर्फ से भी सड़क देखने के लिए कश्मीर, शिमला जाने की जरूरत नहीं है। प्रकृति ने हमें यही यह दृश्य उपलब्ध करवा दिया है। बहुत कम लोगों ने ठहर कर एक पल सोचा होगा कि प्रकृति का यह बदला व्यवहार उनका कंठ सूखा देगा।
बहुत कम लोग इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अधिकांश यह मानते हैं कि जितना पानी बरसेगा उतना धरती के नीचे और ऊपर जमा हो जाएगा। इस तरह हमारे लिए आवश्यक पानी की आपूर्ति सतत होती रहेगी। इसी सोच के तहत लोग मानते हैं कि ग्लेशियर का पिघलना भी तो अच्छा है, ग्लेशियर से पिघला पानी हमारे जलस्रोतों में जल स्तर बढ़ाएगा ही। कितनी मासूम है यह सोच? या कह लीजिए कितनी आपराधिक है यह सोच कि हम अपने अज्ञान, लापरवाही, स्वार्थ और लालच में समूची धरती को नष्ट कर रहे हैं। उसके पानी के खत्म कर रहे हैं और यह भूले जा रहे हैं कि पानी नहीं होगा तो कुछ नहीं रहेगा।
पानी की बात इसलिए क्योंकि आज विश्व जल दिवस है। आज के दिन भी अगर हम पानी की बात नहीं करेंगे तो कब करेंगे? आज से यदि हम पानी के प्रति सजग नहीं होगे तो कब होंगे? अगर आपने यह पढ़ा है कि धरती पर 70 फीसदी पानी है और जल संकट भोगने के बाद भी यह सोचते हैं कि यह जो 70 फीसदी पानी है यह आपकी प्यास बुझा देगा या आपकी जान बचा लेगा तो आप सबसे ज्यादा भ्रम में है। रहीम तो बरसों पहले कह गए थे, ‘बिन पानी सब सून’ मगर हमने बस इस दोहे को रटा भर है, इससे सीखा नहीं है। परिणाम यह हुआ कि अब बार-बार वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि धरती पानी खत्म हो रहा है। जितना पानी खत्म हो रहा है, हमारे गले के आसपास मृत्यु का घेरा उतना ही कस रहा है।
पानी का संकट कितना गहरा है, इसे दो बातों से समझते हैं। एक हमारे अनुभव और दूसरे वैज्ञानिक शोध और चेतावनियां। पहले अपने अनुभव की बात। हममें से कई लोग यह जानते हैं कि कुछ बरस पहले नलकूप की संख्या बहुत कम हुआ करती थी। तब 50-60 फीट की गहराई पर भूजल मिल जाया करता था। अब लगभग हर घर में अपना निजी बोरवेल है और पानी 300 से 600 फीट नीचे तक पहुंच गया है। तब आमतौर बरसाती नदियां ही गर्मियों में सूखा करती थी। अब सदानीरा कही जाने वाली नदियां भी आधे साल तक सूखी रहती हैं। तब नदी की रेत को जरा सा हटाने पर पानी की झिरी फूट पड़ती थी। अब तो नदियों को रेत से भी खाली कर दिया गया है। अधिकांश नदियों को हमारे कारखानों, उद्योगों और सीवेज का पानी ने जहरीला बना दिया है। तब हमारे आसपास पेड़ हुआ करते थे। अब हमने पेड़ काट दिए और सीमेंट कांक्रीट का जंगल खड़ा का दिया है। धरती को सीमेंट-कांक्रीट से इतना ढ़ंक दिया कि सतह का पानी रीस कर भूगर्भ में पहुंच भी नहीं पाता है।
अलग-अलग तरह की मिट्टी की जलग्रहण क्षमता अलग-अलग होती है। हमारे शहरों का नियोजन तथा घरों की डिजाइन उस मिट्टी के अनुरूप होनी चाहिए लेकिन हमने नकल कर करके एक जैसे निर्माण कर लिए हैं। भोपाल के वाटर रिचार्जिंग पैटर्न पर पीएचडी करने वाली टाउन प्लानर डॉ. शीतल शर्मा भोपाल का ही उदाहरण देते हुए बताती हैं कि हरियाली और खुलापन लिए आर्किटेक्ट भोपाल की पहचान हुआ करते थे। फिर हमने आंगन और खुली जमीन को खत्म कर सीमेंट-कांक्रीट की इमारतें बनानी शुरू की। खुला हिस्सा छोड़ना लगभग खत्म हो गया है। हर जगह सीमेंट-कांक्रीट या फर्शी-टाइल्स बिछा दी गई है। कुछ समय पहले बरसात का 70 फीसदी तक पानी जमीन में जाता था। अब बारिश का 10-15 फीसदी भी भूगर्भ में नहीं जा पता है। अधिकांश पानी सतह पर रह जाता है और इस पानी से नदी, नाले उफन जाते हैं। थोड़ी सी बरसात से सड़कों पर पानी भर जाता है और हम समझते हैं कि बहुत बारिश हो गई, जबकि धरती तो प्यासी ही रह जाती है। यदि नालों के आसपास पेड़ लगाए जाएं और नालों को नीचे से पक्का नहीं किया जाए तो बारिश का 70 फीसदी से अधिक पानी जमीन में जा सकता है। हमने नालों के आसपास पेड़ तो काटे ही नालो को भी पक्का कर दिया है। यहां तक कि पेड़ के तने के आसपास भी पक्का कर दिया है ताकि उसकी जड़ों तक भी पानी नहीं पहुंच पाए।
नल जल योजनाएं भी पर्याप्त पानी देने में सफल नहीं हो रही है। जबकि एक इंसान को अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए प्रतिदिन कम से कम 20 लीटर पानी तो चाहिए ही। कुछ लोग हर दिन 200 लीटर से भी ज्यादा पानी अपनी लापरवाही से बर्बाद कर रहे हैं। कुछ दशक पहले तक यदि कोई कहता था कि पानी खरीद कर पीना पड़ेगा तो उसे हैरत से देखा जाता था। तब प्याऊ खोलना धर्म का काम समझा जाता था। अब देश में बोतलबंद पानी का कारोबार ही 21 हजार करोड़ से ज्यादा का है। टेंकर, नल जल और अन्य साधनों से पानी पाने का खर्च तो अलग है।
अब बात वैज्ञानिकों द्वारा दी जा रही चेतावनियों की। वैज्ञानिक समय समय पर बता रहे हैं कि पर्यावरण असंतुलन नहीं रोका गया और पानी का सही प्रबंधन नहीं किया तो दुनिया की बड़ी आबादी को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलेगा। इसी चिंता के तहत 50 साल के इतिहास में पहली बार इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है। इस सम्मेलन में 6500 से ज्यादा विशेषज्ञ और अलग-अलग देशों के राष्ट्राध्यक्ष और मंत्री मिल कर पानी को बचाने की बात करेंगे। यह सम्मेलन आयोजित करना बेहद आवश्यक हो गया है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की ही ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के दो अरब लोगों यानी 26 फीसदी आबादी को साफ और सुरक्षित पेयजल नहीं मिल रहा है। रिपोर्ट बताती है कि ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या और बढ़ने वाली है। जहां पानी का संकट है, उन इलाकों में पानी की ज्यादा कमी होगी।
ग्लेशियर से जुड़े एक अध्ययन में बताया गया है कि बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर अभूतपूर्व तरीके से पिघल रहे हैं और इस सदी के अंत तक दुनिया के दो-तिहाई ग्लेशियर गायब हो सकते हैं। ग्लेशियर पिघलेंगे तो बेमौसम पानी मिलेगा और समुद्र का जलस्तर बढ़ने से कई क्षेत्र डूब जाएंगे जबकि गर्मियों में भीषण जल संकट खड़ा हो जाएगा। ग्लेशियर के पिघलने की तो जो यह कुतर्क देते हैं कि ग्लेशियर पिघलेंगे तो पानी तो हमारी नदियों में ही आएगा, उन्हें जरा हिमालय के तराई वाले क्षेत्र तथा लेह लद्दाख जा कर देखना चाहिए। बुंदेलखंड में यदि जलसंकट के कारण पलायन होता है तो लेह जैसे क्षेत्र में भी पानी के संकट के कारण पलायन होता है। यहां ग्लेशियर के पिघलने के कारण ठंडे मौसम में हर तरफ पानी होता है तो गर्मियों में जब पानी की आवश्यकता होती है तब ग्लेशियर वाला पानी भी सूख जाता है। यह ठीक वैसा है कि अभी वसंत और चैत्र माह में बारिश और ओले गिर रहे हैं और मानसून में बारिश हो ही नहीं या कुछ घंटों की भारी बारिश के बाद हफ्तों आसमान से बूंद भी न टपके। एक साथ गिरे पानी को संभालने के हमारे पास संसाधन नहीं है और पानी के रीस कर धरती में समाने के सारे रास्ते हमने लगभग बंद कर दिए हैं।
सिर्फ इसलिए पानी की चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि धरती के भीतर और ऊपर का पानी सूख रहा है बल्कि अपने स्वार्थ से संचालित हम इंसानों को अपने और आने वाली पीढ़ी के बेहतर स्वास्थ्य के लिए भी पानी की फिक्र करनी होगी। क्योंकि आंकड़ें बताते हैं कि भारत में हर रोज पांच साल से कम उम्र के 500 बच्चों की मौत डायरिया के कारण होती है। पीने को साफ पानी नहीं मिलना डायरिया का प्रमुख कारण है। 21 फीसदी संक्रामक रोग गंदे पानी के कारण होते हैं। आबादी और पेयजल स्रोत का आकलन करें तो हमारे देश में दुनिया की कुल आबादी के 18 फीसदी लोग रहते हैं लेकिन पूरी दुनिया के कुल जल स्रोतों में से मात्र 4 फीसदी स्रोत ही हमारे देश में हैं। हमें यह समझ लेना चाहिए कि साफ पेयजल बता कर बेचा जा रहा पानी भी शुद्ध हो इसकी गारंटी नहीं है। अपने घर में जिस वॉटर प्यूरीफायर का आप उपयोग कर रहे हैं वह पानी के कई महत्पूर्ण खनिज को भी खत्म कर देता है जिसके परिणामस्वरूप बी 12 जैसे सुक्ष्म पोषक तत्वों की कमी हम सभी भोग रहे हैं।
हमारी कृषि मुख्यत: बारिश के पानी पर ही निर्भर है। तथ्य बताते हैं कि दुनिया जितनी गर्म हो रही है, जितना कोयला, तेल, गैस, बिजली म जला रहे हैं, जितना प्रदूषण हम फैला रहे हैं, जितना वन क्षेत्र हम नष्ट कर रहे हैं, उतना ही बारिश का पैटर्न भी बदलेगा। बारिश का तरीका बदलेगा तो हमारी कृषि कैसे सुरक्षित रह पाएगी? उपज से हमारा भोजन भी तैयार होता है और खेती कार्य लाखों लोगों की आमदनी और आजीविका का सबसे प्रमुख साधन है।
जल संरक्षण, जल प्रबंधन और जल शोधन पर कार्य नहीं करना आत्मघाती समाज और तंत्र तैयार करना है। पानी की फिक्र करना सरकार, विश्व समुदाय या निकायों की जिम्मेदारी ही नहीं है, यह समाज, परिवार और व्यक्तिगत हमारा भी दायित्व है। बेहतर होगा कि इस जल दिवस पर हम स्वयं अपने आसपास गहराते जल संकट को महसूस कर केवल अपने स्तर पर पानी का संरक्षण शुरू कर दें। यह व्यक्तिगत पहल सरकारी स्तर पर नीतिगत पहल करने के लिए तंत्र को मजबूर कर देगी। वरना जैसा जन होंगे वैसा तंत्र होगा। जो चल रहा है वही चलता रहा तो वह स्थिति ज्यादा दूर नहीं है जैसा सैमुअल टेलर कोलरिज ने अपनी कविता में कहा है,