अग्नि आलोक

हम घुटनों पर हैं आइए हम उठे -भगतसिंह 

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सुसंस्कृति परिहार 

शहीद-ए-आजम भगत सिंह  ने लाहौर जेल मे अपनी डायरी में लिखा है कि ‘महान लोग इसलिए महान हैं क्योंकि हम घुटनों पर हैं. आईए, हम उठें! वाकई तब देश घुटनों पर रहा होगा आज तो देश चरणों में लोटा नज़र आता है। भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी पर जितने  अधिक लोगों का विश्वास है उतना शायद किसी शहीद के प्रति नहीं खासकर युवाओं का और पंजाब के लोगों का। इसीलिए जब समाज सेवा और क्रांति की बात आती है तो सबसे बुलंद आवाज़ ये ही उठाते हैं उनके जैसा ज़़ज़्बा अन्यत्र देखने कम ही मिलता है। बहरहाल भगतसिंह का लहू आज भी जिस तरह उबलता है यही काफ़ी है जिससे भविष्य के प्रति आशान्वित हुआ जा सकता है। किसान आंदोलन में दिल्ली चलो को विफल करने वालों पर आज भी पंजाब और समीपवर्ती राज्य हरियाणा के पुत्तर भारी पड़ते हैं पिछला किसान आंदोलन हो या वर्तमान में चल रहा किसान आंदोलन इसकी मिसाल है।शहादत से वे डरते नहीं।

भगतसिंह ने जिस तरह निडरता पूर्वक अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ बगावत का श्रीगणेश किया वह मायनेखेज़ है। जिसने उस दौर में सोए लोगों के अंदर एक आग पैदा की । कमोवेश आज एक पूर्ण लोकतांत्रिक गणराज्य में भी अपनी ढपली अपना राग गूंज रहा है सरकार के संरक्षण में चंद लुटेरे आज देश की अवाम को लूटने में लगे हैं अमीरी और गरीबी के  बीच खाई निरंतर बढ़ रही है। वहीं धर्म की कट्टरता का ज़हर लोगों में भरकर ध्रुवीकरण के ज़रिए सत्ता हथियाने का सिलसिला जारी है।लोग मंदिर निर्माण के नाम पर अभिभूत होकर दूसरे धर्मावलंबियों के साथ बदतर व्यवहार करने में जुटे हुए हैं। इंसानियत सिरे से गायब होती जा रही है। भारतीय संविधान की खुले आम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं गरीबों को राशन की लत लगाकर उन्हें काम से दूर किया जा रहा है अब तक संवैधानिक दायरे में दलित,पिछड़ी महिलाओं ने तरक्की के जो मानदंड तय किए थे उन्हें रोजगार देने की जगह मासिक हज़ारों रुपए देकर उनके उन्नत भविष्य को तापा जा रहा है।शिक्षा ,स्वास्थ्य जैसे ज़रूरी विभाग बड़ी संख्या कारपोरेट के हवाले  करने से मध्यमवर्गीय और निचले दर्जे के लोगों के सामने शिक्षा और स्वास्थ्य दूर की कौड़ी बनते जा रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रमों और सहकारी संस्थाओं की स्थिति बदतर है। पूंजीवादी ताकतें धीरे-धीरे लोगों की ज़मीन, जायदाद अपने कब्जे में लेती जा रही हैं उनके स्वाभाविक अधिकार और मौलिक अधिकार ख़त्म हो रहे हैं।पानी पर धीरे-धीरे पकड़ मज़बूत हो रही है।ऐसे बदतर हालात तो आज़ादी के पूर्व भी नहीं थे।

इसलिए आज भगतसिंह की याद आना स्वाभाविक है उन्होंने सिर्फ आज़ाद भारत के लिए संघर्ष नहीं किया बल्कि वे कैसा भारत बनाना चाहते थे उसे आज समझने की ज़रूरत है जो उनके विचारों को जाने बिना असंभव है। आज के युवाओं में जोश है, उत्साह है वे भगतसिंह को अपना आदर्श भी मान रहे हैं किंतु उन्हें यह भी जानना होगा कि भगत सिंह सिर्फ आंदोलनधर्मी नहीं थे वे सिर्फ शहीद ही नहीं, बहुत बड़े  दार्शनिक थे। वे लिखते हैं-हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण शांति एवं स्वतंत्रता का उपभोग करेगा हम मानव रक्त बहाने के लिए अपनी जान देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने के लिए क्रांति में कुछ व्यक्तियों का बलिदान अनिवार्य है “इंकलाब जिंदाबाद” ये शब्द उस पर्चे के हैं जो असेंबली में बम फेंकते समय भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त ने फेके थे। यह घटना 8 अप्रैल 1929 को हुई थी। उस बम का धमाका और ये विस्फोटक शब्द आज भी उन दिमागों में धमाका पैदा करते हैं जो भगत सिंह के सपनों के भारत को साकार होते देखना चाहते हैं।

समाज में श्रमिकों एवं पूंजीपतियों के बीच की असमानताओं के बारे में भगत सिंह ने बताते हुए 6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज की अदालत में बयान देते हुए कहा था- यह भयंकर विषमतायें और विकास के अवसरों की कृत्रिम समानताएं समाज को अराजकता की ओर ले जा रही हैं। यह परिस्थिति सदा के लिए नहीं बनी रह सकती… इसलिए  क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है जो लोग इस आवश्यकता को महसूस करते हैं उनका यह कर्तव्य है कि वह समाज को समाजवादी आधार पर पुनर्गठित करें। जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण जारी रहेगा तब तक एक राष्ट्र का भी दूसरे द्वारा शोषण  होगा जिसे साम्राज्यवाद कहा जाता है। जब तक उससे उत्पन्न होने वाली पीड़ा और अपनों से मानव जाति को नहीं बचाया जा सकता एवं युद्ध को मिटाने तथा शांति के युग का सूत्रपात नहीं होता तब तक इस बारे में की जाने वाली चर्चाएं पूरा पाखंड है |

आज उनकी जरुरत इसलिए भी है चूंकि चारों ओर मज़हबी मसलों के कारण लोकहित एवं राष्ट्रहित की बातें बहुत पीछे छूट गई है। तर्क, बुद्धि और विवेक पर पर्दा डालने की कोशिशें हो रही हैं। उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि मजहबी वहम और तास्सुब हमारी उन्नति के रास्ते में बड़ी उलझन है उन्हें उखाड़ फेंकना चाहिए क्योंकि सांप्रदायिकता ने हमारी रुचि को तंग दायरे में कैद कर लिया है। इस तंग दायरे से निकलने के लिए उन्होंने बार-बार सलाह दी जब तक दिमागी गुलामी से मुक्त नहीं हो जाओगे तब तक नए समाज के सृजन का सपना बहुत दूर होगा।

धर्म की कट्टरता और उसकी तंग दिली पर वे कहते हैं कि सभी लोग एक से हों, उनमें  पूंजीपतियों के ऊंच-नीच की, छूत-अछूत का कोई विभाजन ना रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। 20 वीं सदी में पंडित, मौलवी भंगी के लड़के से हार पहनने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं, अछूतों को जनेऊ देने से इंकारी है। गुरुद्वारे जाकर जो सिख राज करेगा खालसा गाये और बाहर आकर पंचायती राज की बात करें इसका क्या मतलब है? इस्लाम धर्म कहता है इस्लाम में विश्वास न करने वाले काफिर को तलवार के घाट उतार देना चाहिए और इधर एकता की दुहाई दी जाए तो परिणाम क्या होगा ? हम जानते हैं कि अभी कई आयतें और मंत्र बड़ी उच्च भावना से पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जाती है पर सवाल यह है कि इन सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों न पा लिया जाए ?

धर्म का समाज सामने खड़ा है और हमें लोकहित में समाजवादी प्रजातंत्र कायम करना है ऐसी हालत में हमें धर्म विरुद्ध ही सोचना पड़ेगा यह बतलाना ही पड़ता है कि हम नास्तिक क्यों हैं ? हम नास्तिक इसलिए हैं कि हम तर्क और बुद्धि का सहारा लेते हैं। विवेक और विज्ञान के जरिए अज्ञान के अंधकार को खत्म करना चाहते हैं यह अंधकार जब समाप्त होगा तभी समाज में जागृति आएगी और नये समाज के निर्माण का रास्ता बनेगा।

इस सामाजिक जागृति के लिए साहित्यिक जागृति का होना अनिवार्य है उन्हें रूसो, मैजिनी, गैरीबाल्डी, वाल्टेयर और टालस्टाय के साहित्य की खबर थी। वो कोरे राजनीतिज्ञ नहीं थे उन्हें विश्व इतिहास और साहित्य का पर्याप्त ज्ञान था दोनों के रिश्ते से भी वाकिफ थे, तभी तो कहते थे कि सबसे पहले साहित्यिक जागृति पैदा करनी होगी, केवल गिनती के कुछ व्यक्तियों में नहीं, सर्वसाधारण में जनसाधारण में, सामाजिक जागृति पैदा करने के लिए उनकी भाषा में साहित्य जरूरी है। साहित्यिक जागृति, जनशिक्षा और जनभाषा इन तीनों के आपसी रिश्ते और उनके महत्व को समझा जा सकता है। ऐसी कोशिशों की मांग हर जागरण एवं नवजागरण पर होती रही है।

भगत सिंह की  याद करने का मतलब है, साहित्यिक जागृति की ज्योत को न बुझने देना भी है। हमारे साहित्यकारों को इस बात की गांठ बांध लेना चाहिए कि समझौतों, पुरस्कारों और मीडिया की चकाचौंध से भरी इस दुनिया में जागृति के इसी मार्ग पर चलना है और साहित्य की मशाल को जलाए रखना है। मशाल का जलाए रखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इससे निरंतर नवीन सृजन का मार्ग प्रशस्त होता है। एक ऐसा सृजन जो सर्वथा नवीन हो, मौलिक हो और गुणात्मक रूप से भी श्रेष्ठ हो। ऐसी रचनाओं के जरिए हम सतत गतिशील संस्कृति में नई सार्थक चीजें जोड़ पाते हैं। तभी संस्कृति भी हमें मदद पहुंचाती है। हमारे संघर्ष और आंदोलन को परवान चढ़ाती है। जो विद्वान कहते हैं कि साहित्य और संस्कृति चिल्लाने से कुछ नहीं होगा उन्हें गहराई तक जाकर पता लगाना चाहिए कि बिना साहित्यिक जागृति और सांस्कृतिक आंदोलन के क्या कोई क्रांति संभव हुई है? भगत सिंह को इन सब चीजों की खबर थी उन्होंने साफ तौर पर लिखा है-संस्कृति के निर्माण के लिए उच्च कोटि के साहित्य की आवश्यकता है और ऐसा साहित्य एक साझी और उन्नत बोली के बिना रचा नहीं जा  सकता।

कुल मिलाकर भगतसिंह के विचार देश के सोए हुए लोगों को जगाने के लिए पर्याप्त हैं बशर्ते उन्हें मात्र शहीद ना  मानते हुए उनके सम्यक दर्शन को समझने की ज़रूरत है जो एक पुख्ता और मज़बूत भारत के निर्माण में सहायक हैं उनकी शहादत को याद कर लेने से काम बनने वाला नहीं उन्होंने क्यों शहादत का पथ चुना इसे जाने बिना हम भगतसिंह को नहीं समझ पाएंगे। आइए घुटनों पर बैठे लोग जब अंग्रेजों को मात दे सके तो चरणों में लीन लोग भी भगत सिंह से प्रेरणा लेकर बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर सकते हैं।आज नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत का पैगाम बांटने, अन्यान्य के विरुद्ध न्याय का और लुटेरों के ख़िलाफ़ बिना डरे,बर्बर सरकार के ख़िलाफ़ एक युवा राहुल गांधी खड़ा हो सकता है तो हम सब क्यों नहीं।देश सिर्फ उसका नहीं है हम सबका है। आइए सब मिलकर देश को जगाने का काम करें।तभी भगतसिंह की शहादत को सलाम करने के हम पात्र बन सकते हैं।

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