अग्नि आलोक

*इजरायल और फिलीस्तीन के मौजूदा विवाद को समझने की कोशिश करनी होगी दोषी कौन है? आतंकवादी कौन है? और इसके पीछे कौन है?*

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*अजय असुर*

इजरायल और फिलीस्तीन के मौजूदा विवाद को कुछ लोग धर्मयुद्ध का रूप दे रहे हैं। इस दृष्टिकोण से इसे समझने के लिए धर्मों के इतिहास पर एक सरसरी नजर दौड़ाना होगा और असल वजह को समझने की कोशिश करनी होगी दोषी कौन है? आतंकवादी कौन है? और इसके पीछे कौन है? इस युद्ध में मेहनतकश जनता की मौत का जिम्मेदार कौन? 

*यहूदी धर्म*

यहूदी, इस्लाम और ईसाई तीनों ही धर्म अपनी शुरुआत की कहानी को बाइबल के अब्राहम से जोड़ते हैं। यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म अब्राहिमिक धर्म समूह से हैं। इन सभी धर्मों की जड़े इब्राहम/अब्राहम से जुड़ी हैं जिसे ये सभी इब्राहम/अब्राहम को अपना पैगम्बर भी मानते हैं। तीनों की धार्मिक ग्रंथ, चाहे यहूदियों का हिब्रू बाइबल हो, ईसाइयों की बाइबल हो या फिर मुस्लिमों की कुरआन में स्पष्ट तौर पर उल्लेख है कि वे इब्राहम/अब्राहम के ईश्वर को मानते हैं।

यहूदियों की धार्मिक पुस्तक को ओल्ड टेस्टामेण्ट कहते हैं, जिसे बाइबिल का प्रथम भाग या पूर्वार्ध भी कहते हैं। पैगंबर अब्राहम/अबराहम/इब्राहिम को इस धर्म का प्रवर्तक कहा जाता है। जो ईसा से 2000 वर्ष पूर्व हुये थे। पैगंबर अलै अब्राहम के पोते का नाम हजरत अलै याकूब था। हजरत अलै याकूब के एक पुत्र का नाम जूदा था जिन्हें यहूदा के नाम से भी जाना जाता था। इसी हजरत के पोते का बेटा यहूदा के नाम पर इनके अनुयायी यहूदी कहलाये। 

यहूदी धर्म के पैगंबर हजरत अलै अब्राहम के पोते हजरत अलै याकूब का दूसरा नाम इजरायल था। याकूब यानी इजरायल ने यहूदियों की 12 जातियों को मिलाकर एक किया। इबरानी भाषा में इजरायल का अर्थ है- ऐसा राष्ट्र जो ईश्वर का प्यारा हो। आगे चलकर जब यहूदियों के देश का गठन होता है तो यहूदियों ने अपने इस नये देश को इजरायल की संज्ञा देकर इजरायल ही कहा।

*अब सवाल उठता है कि यहूदियों ने सम्पूर्ण विश्व में फिलीस्तीन में ही क्यों इजरायल बनाया?*

 तो निश्चित ही इसके पीछे भी धर्म को ही कारण बताया जाता है। दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक जेरूशलम ईसाई, मुसलमानों और यहूदियों के लिए बेहद अहम हैं। इन तीनों धर्मों के लोग इस शहर को पवित्र शहर मानते हैं।

ईसाईयों के क्वॉटर में चर्च ऑफ द होली स्पेलकर है, जो कि ईसाईयों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ये जगह यीशू की कहानी, मृत्यु, सलीब पर चढ़ाने और पुनर्जीवन की कहानी का केंद्र है। अधिकांश ईसाई परंपराओं के अनुसार, गोलगोथा, या कलवारी की पहाड़ी पर यीशु को सूली पर चढ़ाया गया था, उनका मकबरा स्पेलकर के अंदर स्थित है और यह उनके पुनरुत्थान का स्थल भी था। इसलिये जेरूशलम उनका पवित्र स्थान है।

मुसलमान के लिए मक्का-मदीना के बाद ये सबसे पवित्र स्थान अल-हराम अल शरीफ है और अल-अक्‍सा मस्जिद है जिसे यूनेस्‍को ने विश्व धरोहर घोषित कर रखा है। कुछ ही कदम की दूरी पर, डोम ऑफ द रॉक की आधारशिला है, मुस्लिम मानते हैं कि यहीं से वो जन्नत की की ओर गए थे। मुसलमानों का मानना है कि पैगंबर मुहम्मद ने यात्रा के दौरान मक्का से यहां तक का सफ़र तय किया और सभी प्रॉफेट की आत्माओं के साथ प्रार्थना की।

यहूदियों का मानना है कि उनका धर्म यहीं से शुरू हुआ था। यहीं उनके टेंपल माउंट है, कोटेल या वेस्टर्न वॉल है, ये दीवार पवित्र मंदिर का अवशेष है। उस मंदिर के अंदर यहूदियों का सबसे पवित्र स्थान था। यहूदियों का मानना है कि यही वो जगह है जहां आधारशिला रख पूरी दुनिया का निर्माण किया गया था और यंही पर अब्राहम ने अपने बेटे आईज़ैक की क़ुर्बानी दी थी। यहूदी मानते हैं कि कि ‘डोम ऑफ द रॉक’ ‘होली ऑफ होलीज़’ की जगह है और डोम ऑफ द रॉक को यहूदी धर्म में सबसे पवित्र धर्म स्थल कहा गया है। इसी वजह से यहूदियों ने फिलीस्तीन को चुना। 

जेरूशलम को फिलिस्तीन और इजरायल दोनों ही इसे अपनी राजधानी बताते हैं। 19 नवंबर 1947 में जब अमेरिका और ब्रिटेन की चालबाजी से फिलिस्तीन को विभाजित कर इजरायल का गठन किया गया, तब जेरूशलम पर दोनों का बराबर का अधिकार तय किया गया था पर धीरे-धीरे अमेरिका के शह पर इजरायल ने जेरूशलम पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया। जेरूशलम ही नहीं धीरे-धीरे इजरायल पूरे फिलीस्तीन को अपने कब्जे में कर उसे इजरायल बनाता जा रहा है। जब भी इजरायल, फिलीस्तीन पर युद्ध छेड़ता है तो फिलीस्तीन की आम जनता को ही टारगेट करता है और उन मेहनतकश जनता से फौरी तौर पर फिलीस्तीन छोड़कर जाने की बात कहता है। एक बार जनता अपना घर/खेत छोड़कर जाने पर इजरायल कब्जा कर लेता है।

खण्ड 2 :*क्या सचमुच यह धर्मयुद्ध है-*

फिलीस्तीन और इजरायल के बीच युद्ध हो रहा है, वह धर्मयुद्ध नहीं एक राजनीतिक युद्ध है। इस पूरे प्रकरण को धर्मयुद्ध की तरह दिखाया जा रहा है। यहाँ निर्दोषों का कत्लेआम हो रहा है और धर्म के ठेकेदार जनता को आपस में बांटकर इस कत्लेआम को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश कर रहें हैं। 

अरब शासक फिलीस्तीन के साथ क्यों नहीं हैं? ये सवाल स्वाभाविक ही बार बार पूछा जाता है क्योंकि समझा जाता है कि अरब व मुसलमान होने के नाते अरब मुल्कों के शासकों को फिलीस्तीन के संघर्ष में मदद करनी चाहिए। पर ये गलत और भाववादी विचार है। धर्म और नस्ल आधारित एकता मुमकिन नहीं है क्योंकि धर्म व नस्ल की समानता का अर्थ इन सब के हितों की समानता नहीं है जबकि एकता समान हितों के आधार पर ही बनती है। अरब देशों में पूंजीवादी शासन है और पूंजीवादी शासक को कभी भी जनता के हितों से कोई लेना देना नहीं होता है और इसके विपरीत जब जनता अपने जनवादी अधिकार के लिये लड़ती है तो पूंजीवादी शासक निरंकुश होकर बर्बर तरीके से ऐसे आन्दोलन को कुचल देती है और यंहा फिलिस्तीन में फिलीस्तीन की आजादी की लड़ाई इन देशों की जनता को अपने लिए जनवादी अधिकारों व आजादी के लिये संघर्ष करने के लिए निश्चित ही प्रेरित करेगी। आखिर जो जनता इजरायली निरंकुशता से फिलीस्तीन की आजादी की हिमायत करेगी वो खुद के लिए आजादी क्यों नहीं चाहेगी? इसी खतरे को भांप कर दुनिया भर के पूंजीवादी शासकों की तरह अरब देशों के शासक भी दिखावटी बयानबाजी के बावजूद फिलिस्तीनी आजादी की लडाई में मदद तो दूर फिलिस्तीनी आजादी के सबसे बडे शत्रु अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ हाथ मिलाए हुवे हैं।

अगर यह धर्मयुद्ध है तो गाजा में निर्दोष मुसलमानों के कत्ल पर मुस्लिम देश क्या कर रहे हैं? इसके पहले भी इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों पर हो रहे ज़ुल्म पर मुस्लिम देश क्या कर रहे थे? एकाध मुस्लिम देशों को छोड़कर सारे मुस्लिम देश तमाशबीन बने रहे हैं। इजरायल फिलिस्तीनियों पर अत्याचार करता रहा, अमेरिका इजरायल के साथ खड़ा रहा और अधिकांश मुस्लिम देश अमेरिका के साथ खड़े रहे हैं। आज भी उनकी स्थिति कमोवेश वही है। अमेरिका खुलेआम इजरायल का साथ दे रहा है और अरब देश सिर्फ ट्वीट देकर फिलीस्तीन के साथ होने का दावा कर रहें हैं। 

दुनिया भर के कम्यूनिस्ट इजरायली हमले के खिलाफ फिलिस्तीनी मुसलमानों के साथ खड़े थे और आज भी खड़े हैं। जो कम्यूनिस्ट लोग कभी हिटलर के अत्याचारों के खिलाफ यहूदियों के साथ खड़े थे, जो कम्यूनिस्ट पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ खड़े हैं, भारत में उत्पीड़ित मुसलमानों के खिलाफ दिखते हैं, आज यहूदी राष्ट्र इजरायल के अत्याचारों के खिलाफ गाजा की मुस्लिम जनता के साथ खड़े हैं। वही कम्युनिष्ट जिसने हिटलर को परास्त किया और हिटलर के नाजीवाद को खत्म किया और दूसरी तरफ हिटलर जब कम्युनिस्टों को कुचलने के के लिये सोवियत संघ पर हमला बोला तो पश्चिमी साम्राज्यवाद की फौजें ब्रिटेन में बैठी तमाशा देख कम्युनिस्टों को खत्म होने का ख्वाब देख रहीं थीं। युद्ध के खत्म होने पर सोवियत संघ की कम्युनिष्ट सरकार ने अधिकतर यहूदियों को बचा लिया और वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद लगातार यहूदी कट्टरपंथियों को अपना एजेंट बना फिलीस्तीन में बसाने की घृणित साजिश को आगे बढाते हुए नाजियों के घिनौने जुल्मों से पीडित यूरोपीय यहूदियों को भावनात्मक प्रोत्साहन व लालच देकर उकसाया कि वे उनकी सुरक्षा में फिलीस्तीन पर कब्जा कर वहां अपना देश बनाएं। पहले इजरायली राष्ट्रपति एडेनावेर ब्रिटेन साम्राज्यवाद के इशारे पर 1940 में एक पत्र में नाजियों द्वारा यहूदियों पर बढते जुल्म पर यह कहते हुए संतुष्टि जताई थी कि इससे जायनी इजरायल प्रोजेक्ट को लाभ होगा। इस बयान से सिद्ध होता है कि यहूदियों पर अत्याचार एक प्रायोजित खेल था। साथ ही उतना ही सच यह भी है कि उत्पीड़ित फिलीस्तीनी जनता को अरबी सरमायेदारों व इस्लामी कट्टरपंथियों ने भी हमेशा छला ही है क्योंकि वे भी अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ-साथ पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ खड़े रहे। यासर अराफात के नेतृत्व वाले फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चा के दमन और 1982 में इजरायलियों द्वारा लेबनान के शरणार्थी शिविरों में दसियों हजार फिलीस्तीनी शरणार्थियों को कत्ल कर बाकी को वहां से ट्यूनीशिया भगा दिये जाने में अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ ही पीछे से अरब व सभी मुस्लिम देश शामिल थे क्योंकि उनकी नजर में ये फिलीस्तीनी वामपंथी थे जिनके प्रभाव में अरब देशों की जनता द्वारा भी जनतंत्र की मांग करने की आशंका थी।

अत्याचारी चाहे कितना भी ताकतवर हो, किसी भी धर्म का हो, किसी भी देश का हो, किसी भी जाति का हो, कम्यूनिस्टों ने हमेशा पीड़ितों का पक्ष लिया है। मगर जाति, धर्म के ठेकेदार अपने निजी हितों के अनुसार कभी इस अत्याचारी के साथ खड़े हो जाते हैं, तो कभी उस अत्याचारी के साथ। कभी-कभी वसीम रिजवी की तरह जितेन्द्र नारायण सिंह बन कर न जाने क्या-क्या करते हैं।

अत: किसी भी ज़ुल्म को धर्म के चश्में से न देखा जाए। इजरायल पर हमले यहूदी धर्म की शिक्षाओं के आधार पर नहीं हो रहे हैं। हिटलर के अत्याचार बाइबिल के अनुसार नहीं हो रहे थे, हमारे देश भारत में जो माबलिंचिंग हो रही है वो हिन्दू धर्म की शिक्षाओं के अनुसार नहीं हो रही है, मुस्लिम चरमपंथियों के अत्याचार कुरान की शिक्षा के अनुसार नहीं हो रही है। आज मँहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी, मिलावटखोरी, नशाखोरी, अश्लीलता… को बढ़ावा किसी धर्म के आधार पर नहीं दिया जा रहा है। इसलिए अगर उत्पीड़ितों को न्याय दिलाना है तो अपने आप को उत्पीड़ितों के स्थान पर रखकर देखिए। उसके आर्थिक पहलू को देखिए

सभी धर्मों में दो वर्ग होते हैं शोषक और शोषित, उत्पीड़क और उत्पीड़ित, शासक और शासित। सभी धर्मों में धर्म के ठेकेदार हैं। हर एक धर्म के ठेकेदार अक्सर उस धर्म के अमीर यानी शोषक वर्ग के लोग ही क्यों बने हुए हैं? शोषक वर्ग हमेशा अपने फायदे के लिए धर्म का स्वयंभू ठेकेदार बन जाता है और जनता को आपस में लड़ाकर शासन करता है। 

*खण्ड 3 :विवाद की असली जड़ यानी आर्थिक पहलू क्या है-

फिलिस्तीन वह महत्वपूर्ण स्थान है जहाँ से होकर एशिया और अफ्रीका को जोड़ने वाला सिल्क रोड जाता था, यहीं से होकर बेल्ट एण्ड रोड एशिया और अफ्रीका को जोड़ने जा रहा है, यह चीन की पहल पर दुनिया की सबसे बड़ी महापरियोजना है। यहीं पड़ोसी देश मिस्र के बार्डर पर 1859-69  के दौरान ही एशिया और अफ्रीका को अलग करने वाली तथा लाल सागर को भूमध्य सागर से जोड़ने वाली स्वेज नहर बन चुकी है। स्वेज नहर बनाकर लालसागर को भूमध्य सागर से जोड़ देने से एशिया, यूरोप, अरब, अफ्रीका आदि महाद्वीपों के बीच व्यापारिक वस्तुओं की आवाजाही  बहुत आसान हो गयी है।

स्वेज नहर मार्ग से फारस की खाड़ी के देशों से खनिज तेल, भारत तथा अन्य एशियाई देशों से अभ्रक, लौह-अयस्क, मैंगनीज़, चाय, कहवा, जूट, रबड़, कपास, ऊन, मसाले, चीनी, चमड़ा, खालें, सागवान की लकड़ी, सूती वस्त्र, हस्तशिल्प आदि पश्चिमी यूरोपीय देशों तथा उत्तरी अमेरिका को भेजी जाती है तथा इन देशों से रासायनिक पदार्थ, इस्पात, मशीनों,औषधियों, मोटर गाड़ियों, वैज्ञानिक उपकरणों आदि का आयात किया जाता है। इसका महत्व इस बात से समझ सकते हैं कि आज भी इस रास्ते से दुनिया का 12% व्यापार होता है। कोरोना काल में एक जहाज फँस जाने से जब स्वेज नहर का रास्ता 6 दिन तक बन्द हो गया था तो वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिदिन लगभग 9 अरब डालर का नुक़सान हो रहा था।

1897 में विश्व यहुदी संगठन (WZO) की स्थापना हुई, इसमें दुनिया भर के बड़े-बड़े यहूदी पूँजीपति भी शामिल हुए। जिनका माल स्वेज नहर से होकर आता-जाता है। ये लोग फिलिस्तीन के धार्मिक महत्व को तो समझते ही थे, समय के साथ वे उसके व्यापारिक महत्व को भी समझने लगे। इसलिए विश्व यहूदी संगठन वालों ने फिलिस्तीन को अपनी पितृभूमि के रूप में प्रचारित किया और वहाँ पर जमीन खरीदने और बसने के लिए यहूदियों को प्रेरित किया। जब 1910 में मध्यपूर्व में तेल का खजाना मिल गया। तो फिलिस्तीन का महत्व और बढ़ गया। तब विश्व यहूदी संगठन फिलिस्तीन को पाने के लिए छटपटाने लगा। इस महत्वपूर्ण स्थान पर अमेरिका और यूरोप के बड़े पूँजीपतियों की निगाह पहले से थी। वहाँ की जनता को युद्ध में फँसाकर ही वे इस स्थान पर शान्ति कायम करने के नाम पर अपनी सेना लगा सकते थे। मदद के नाम पर सैनिक अड्डा बना सकते थे, हथियार बेचकर भारी मुनाफा कमा सकते थे। फिलिस्तीन और इजरायल युद्ध की यही असली जड़ है पर इस आर्थिक पहलू को छिपाकर अपनी दलाल मीडिया के जरिये गला फाड़-फाड़ कर युद्ध को धार्मिक रूप दिया जा रहा है। 

लेकिन सच्चाई तब और खुल कर आ जाती है जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन पिछले साल अक्टूबर में वाशिंगटन डी सी से बोलते हुए कहते हैं “अगर इजरायल नहीं होता, तो इस क्षेत्र में अपने हितों की पूर्ति के लिए अमरीका को एक इजरायल का आविष्कार करना पड़ता। ये 3 अरब डॉलर हमारा सबसे लाभप्रद निवेश है।” जाहिर है, अमेरिका सन् 1986 से इजरायल को सालाना 3 अरब डॉलर देता है और जो बाइडन का यह स्टेटमेंट काफी कुछ बयां कर रहा है।  2016 में अमेरिका ने इजरायल को 38 अरब डॉलर के 10 वर्षीय सैन्य सहायता पैकेज देने का प्रस्ताव पारित किया। 1946 से लेकर 2023 तक अमेरिका ने इजरायल को 264 अरब डॉलर की सहायता प्रदान की है। अब आप स्वयं तय करें कि आतंकवादी कौन है? और इस युद्ध के पीछे किसका खेल है।

एक तरफ दुनिया के सभी लोग जो अपनी जमीन को बचाने और मुक्त करने की लड़ाई को सही मानते हैं वह निश्चित ही फिलिस्तीन की जनता के साथ होंगे। हमें भी उत्पीड़ित जनता के साथ होना चाहिये चाहे वो फिलीस्तीन की हो या इजरायल की। खुद इजरायल के अंदर पिछले कुछ सालों से एक फासीवाद व कट्टरपंथ विरोधी मुहिम खडी हो रही है जो फिलीस्तीन पर जुल्म के खिलाफ है। पिछले दो सप्ताह में दुनिया के दूसरे हिस्सों में ही नहीं, बहुत से इजरायलियों ने भी इस पर खुल कर बोला है। ऐसे बहुत से पोस्ट व वीडिओ सोशल मीडिया पर तैर रहें हैं जो पश्चिमी कॉर्पोरेट मीडिया के दुष्प्रचार का खंडन कर रहे हैं। इजरायल द्वारा फिलीस्तीन जनता पर बर्बर हिंसा अति निंदनीय है और इस जुल्म के खिलाफ अमन लाने के लिये फिलीस्तीन के पक्ष में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जर्मनी, तुर्की, इंग्लैंड… सहित दुनिया के तमाम देश यंहा तक कि इजरायल के अन्दर भी यहूदी लोग सड़कों पर उतर गये हैं। 

दूसरी तरफ उत्पीडित फिलीस्तीनी जनता को अरबी इस्लामी कट्टरपंथियों ने भी हमेशा उतना ही धोखा दिया है क्योंकि वे भी पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ हाथ मिलाए रहे नतीजा आज फिलीस्तीन के अधिकांश भू भाग पर इजरायल का कब्जा होता रहा और लगातार फिलीस्तीन जनता उत्पीड़ित होती रही। सऊदी अरब अमीरात सहित अधिकांश अरब, खाड़ी और मुस्लिम देश आजकल खुलकर अमेरिकी साम्राज्यवाद और इजरायलियों से हाथ मिला रहे हैं व अमरीका-भारत के साथ आर्थिक फौजी गठबंधन में शामिल हो गए हैं।

 खण्ड 4:*आतंकवादी कौन? फिलीस्तीन? इजरायल? या कोई और?*

*इजरायल बनने का इतिहास-*

फिलिस्तीन प्रथम विश्व युद्ध से पहले ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की या उस्मानी साम्राज्य) के आधीन था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1917 में ओटोमन (तुर्कों) की हार के बाद ब्रिटेन ने फिलिस्तीन पर कब्‍जा हासिल कर लिया। उस वक्त फिलिस्तीन में यहूदी, अल्पसंख्यक थे, जबकि अरब बहुसंख्यक थे, वह फिलीस्तीन ब्रिटिश के अधीन हो गया। यहीं से फिलीस्तीन की तबाही की कहानी शुरू हो गयी। 

प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुए एक गुप्त समझौते (स्काइज-पिकोट एग्रीमेंट) के तहत फिलिस्तीन के ब्रिटेन के अधीन कर दिया गया और साथ ही 1917 में बाल्फोर घोषणापत्र में ब्रिटेन ने फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि बनाने की दिशा में पूरा प्रयास करने का आश्वासन भी दिया गया था। 2 नवम्बर 1917 को ब्रिटिश विदेश मन्त्री बाल्फोर ने यह घोषणा की कि इजरायल को ब्रिटिश सरकार यहूदियों का धर्मदेश बनाना चाहती है जिसमें सारे संसार के यहूदी यहाँ आकर बस सकें। मित्रराष्ट्रों ने इस घोषणा की पुष्टि की। इस घोषणा के बाद से फिलीस्तीन (वर्तमान में इजरायल) में यहूदियों की जनसंख्या निरन्तर बढ़ती गई।

1922 में ब्रिटेन ने अपने अधीन फिलीस्तीन के हिस्से को दो भागों में बांट दिया। बड़ा हिस्सा ट्रांसजार्डन कहलाया और छोटा हिस्सा फिलिस्तीन। बाद में जॉर्डन को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता मिल गयी। जिससे यहूदियों का एक बड़ा हिस्सा इसे अपने साथ विश्वासघात समझता है, क्योंकि प्रस्तावित यहूदी मातृभूमि का बहुत बड़ा हिस्सा जॉर्डन में चला गया। 

1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार आयी जिसने यहूदियों की मातृभूमि का समर्थन करने की घोषणा की। उसने कहा कि फिलिस्तीन में दुनिया के हर कोने से यहूदियों के पुनर्वसन की प्रक्रिया दोगुनी की जाएगी। इसके लिए अमरीका और अन्य देशों ने भी अब ब्रिटेन पर दबाव डालना शुरू किया। ये वो समय था जब ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज अस्त हो रहा था। तभी ब्रिटेन ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर फिलिस्तीन का मसला संयुक्त राष्ट्र के हवाले कर दिया। पश्चिमी साम्राज्यवाद के दबाव में 29 नवम्बर, 1947 को संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन को दो हिस्सों- अरब राज्य यानी फिलिस्तीन और यहूदी राज्य यानी इजरायल में बांटने का प्रस्‍ताव पास किया। यहूदी नेतृत्व ने इस प्रस्ताव पर हामी भरी, लेकिन अरब पक्ष ने इसे अस्वीकार कर दिया। फिलिस्तीन में जैसे-जैसे यहूदी बढ़ते गए कई फिलिस्तीनी विस्थापित होते गए और यहीं से दोनों के बीच हिंसा और संघर्ष की शुरुआत हुई।

जेरूसलम जो ईसाई, अरब और यहूदी तीनों के लिए धार्मिक महत्त्व का क्षेत्र था उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रबंधन के अंतर्गत रखे जाने का प्रस्ताव हुआ और फिलीस्तीन और इजरायल दोनों को बराबर का अधिकार दिया गया। इस विभाजन में फिलिस्तीन के 70% अरब लोगों को 42% क्षेत्र मिला था, और 30% यहूदियों को 58% दिया गया जबकि अरब लोगोँ का विभाजन के पहले 92% क्षेत्र पर कब्जा था। 

1948 तक फिलिस्तीन ब्रिटेन के औपनिवेशिक प्रशासन के अन्तर्गत एक अधिष्ठित (मैनडेटेड) क्षेत्र था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन ने 14 मई 1948 को घोषणा किया कि अब फिलीस्तीन ब्रिटेन का अधिवेश (मैनडेट) नहीं है और आज से फिलीस्तीन स्वंतंत्र देश है, मई 1948 में ब्रिटेन की सेना फिलिस्तीन को छोड़कर चली गयी और पीछे से पश्चिमी साम्राज्यवाद के सपोर्ट से 14 मई, 1948 को यहूदियों ने स्वतन्त्रता की घोषणा करते हुए इजरायल नाम के एक नये देश का ऐलान कर दिया, तब तक इजरायल और फिलिस्तीन की वास्तविक सीमा रेखा निर्धारित नहीं हो पायी थी। इसके बाद 1949 में एक आर्मीस्‍टाइस लाइन खींची गई, जिसमें फिलिस्‍तीन के 2 क्षेत्र बने- वेस्‍ट बैंक और गाजा। गाजा, जॉर्डन नदी के पश्चिम में स्थित है और गाजा को गाजा पट्टी भी कहा जाता है और यहां करीब 20 लाख फिलिस्तीनी रहते हैं। वहीं वेस्ट बैंक इजराइल के पूर्व में स्थित है, जहां करीब 30 लाख फिलिस्तीनी रहते हैं, इनमें से ज्यादातर अरबी मुसलमान हैं।

यहूदी जिस देश में रहते थे उसको छोड़कर अलग देश क्यूँ बनाना चाहते थे? एक तर्क यह है कि द्वितीय विश्व युद्ध से पहले यहूदी मुख्य रूप से मध्यपूर्व और यूरोप के कई क्षेत्रों में रहते थे। यूरोप में ईसाई कट्टरपंथियों ने यहूदियों के प्रति सदियों तक बेहद नफरत फैलाई, जिससे यहूदियों को अत्यंत प्रताड़ित किया। इसका नतीजा यह हुआ कि नाजियों द्वारा यहूदियों पर घृणित जुल्म और हिटलर का जनसंहार तो आप जानते ही हैं जो होलोकास्ट में तब्दील हुआ। ब्रिटिश और अमेरिकी साम्राज्यवाद यहूदी कट्टरपंथियों को अपना एजेंट बना फिलीस्तीन में बसाने की घृणित साजिश को आगे बढाते हुए नाजियों के घिनौने जुल्मों से पीड़ित यूरोपीय यहूदियों को भावनात्मक प्रोत्साहन व लालच देकर उकसाया कि वे उनकी सुरक्षा में फिलीस्तीन पर कब्जा कर वहां अपना देश बनाएं क्योंकि उनके वंशज वहीं (जेरूशलम) से थे। ब्रिटेन व अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा वित्तीय मदद के लोभ, सुरक्षा के वादे और यहूदी कट्टरपंथी नेताओं के प्रभाव में यहूदी जनता का एक हिस्सा इजरायल विस्थापित होकर अमेरिकी साम्राज्यवाद के भाड़े का फौजी गिरोह बनकर फिलीस्तीनी जनता पर वही जुल्म ढाने लगा जो इसी पश्चिमी साम्राज्यवाद ने यहूदियों पर ढाए थे। इजराइल के अस्तित्व में आने के पीछे निर्वासितों के एकत्र होने की अवधारणा थी। इसी अवधारणा के तहत ब्रिटेन-अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर इजराइल ने अपने दरवाजे खोल दिए- दुनिया भर में फैले हर यहूदी को यह अधिकार दिया गया कि वे इजराइल आएँ और बिना किसी शुल्क और दस्तावेज के नागरिकता हासिल करें। आजादी के महज चार महीने के अंदर करीब 50 हजार यहूदी आए इनमें से ज्यादातर वे थे जो नाजी यातना शिविर से बच गए थे। 1951 के अंत तक कुल 6 लाख 87 हजार स्त्री-पुरुष-बच्चे इजराइल आए। इनमें से तकरीबन तीन लाख वे लोग थे जो अरब देशों से शरणार्थी के रूप में आए थे। इजरायल के अस्तित्व में आने के बाद में फिलिस्तीनियों को अपना घर छोड़कर विस्थापित होना पड़ा।

*खण्ड 5 :*हमास क्या है?

फिलीस्तीन को एक संप्रभु राष्ट्र की स्थापना के लिए यासर अराफात ने 1964 में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन” (पीएलओ) नामक संगठन का निर्माण किया। इसके पश्चात 1987 में गाजा के शेख अहमद यासिन ने हमास (हरकत अल-मुकावामा अल-इस्‍लामिया) का गठन किया। फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के नेता यासर अराफात की मृत्यु के बाद हमास ने संसदीय राजनीति का रास्ता चुना और इसके लिये इजरायल ने हमास को सपोर्ट किया। गाजा, कलकिलिया, नबलूस के स्थानीय चुनावों में छिटपुट जीत दर्ज करने के बाद 2006 की जनवरी में हमास ने फिलिस्तीनी संसद के चुनाव में हैरतअंगेज जीत दर्ज की और तब से अब तक गाजा पट्टी में हमास का ही शासन है और समय-समय पर अपनी जमीन के लिये इजरायल पर हमला करता है पर इससे पहले जितनी बार भी हमास ने इजरायल पर आक्रमण किया उतनी बार अपनी और जमीन गँवाई है। 

एक समय हमास को इजरायल ने खूब सपोर्ट किया क्योंकि हमास की यासर अराफात की पी एल ओ से नहीं बनती थी और एक समय हमास और पीएलओ में जंग भी हुवा नतीजा वेस्ट बैंक में पीएलओ और गाजापट्टी में हमास का शासन है। चूंकि इजरायल अपना दुश्मन पीएलओ को मानती थी और इजरायल की नजर में हमास पीएलओ से निपट सकता था इसलिये जिस तरह एक समय अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को सपोर्ट कर खड़ा किया उसी तरह इजरायल ने हमास को हथियार और धन से सपोर्ट किया और हो सकता है कि यह हमास द्वारा हमला प्रायोजित हमला हो क्योंकि युद्ध शुरू हुवे 1 महीने को है और अभी तक आम जनता के अलावा कोई भी हमास का लीडर पकड़ा या मारा गया नहीं है। जिस तरह ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने पैदा किया उसी तरह हमास को इजरायल ने ही पीएलओ को खत्म करने के लिये हथियार और पैसे से फंडिंग की। फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास जो कि पी एल ओ से हैं बार-बार कहते हैं कि हमास को पैदा करने वाला इजरायल है और हमास इजरायल का एजेंट है।

युद्ध खत्म होने तक आप देखेंगे कि इजरायल नागरिकों के सुरक्षा नाम पर गाजा के अधिकांश क्षेत्र में अपनी सेना लगाए रहेगा और गाजापट्टी के उस क्षेत्र को कब्जा कर लेगा क्योंकि हर बार इस युद्ध का नतीजा फिलीस्तीन की धरती पर कब्जा रहा है। इजरायल सुरक्षा के नाम पर वंहा के नागरिकों को जाने के लिये मजबूर करेगा फिर क्या? उस क्षेत्र पर कब्जा।

*इस जंग में वर्तमान स्थिति-*

प्रोफेसर खालिदी ने ‘फलस्तीन, वन हंड्रेड इयर्स ऑफ कॉलोनियलिज्म एंड रेजिस्टेंस’ नाम से किताब में बताते हैं “1947 के अंत में लड़ाई शुरू होने और 14 मई, 1948 को इसराइल राज्य की घोषणा तक करीब तीन लाख फिलीस्तीनियों को उनके घरों से निष्कासित कर दिया गया था।” तबसे लेकर आज तक लाखों फिलिस्तीनियों को मजबूर किया गया फिलीस्तीन छोड़ने के लिये और इस युद्ध में भी फिलिस्तीनियों को अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर किया जाएगा।

यह युद्ध हमास और इजरायल के बीच बताया जा रहा है पर यह युद्ध एक तरफा नजर आ रहा है, शुरू में तो हमास ने मिसाईल छोड़ी इजरायल पर उसके बाद एक तरफा इजरायल ही हथियार चला रहा है। बीच-बीच में दो चार मिसाइलें छोड़ देता है हमास दिखाने के लिये पर जिस तरह से इजरायल गाजा पर हमला कर रहा है इस पर तो हमास को ढेर हो जाना चाहिये पर इस युद्ध में मासूम बच्चों और फिलीस्तीन के आम जनता के अलावा और हमास का कोई भी लीडर नहीं मारा जा है। ये कैसा युद्ध है, जिसमें इजरायल फिलीस्तीन के हमास के घर गाजा में घुसकर हमास को मार रहा है पर हमास के आतंकवादीयों से ज्यादा आम मेहनतकश जनता मारी जा रही है? तो इजरायल यह युद्ध किसके खिलाफ लड़ रहा है? बताया जा रहा है कि हमास ने इजरायल के लोगोँ बंधक बना लिया है और हमास को आतंकवादी संगठन बताया जा रहा है पर हमास बंधक लोगोँ के बदले अपने नागरिकों को भी नहीं बचा पा रहा है। ना ही उनको मार रहा है ना ही उनके बदले अपनी मासूम और निर्दोष जनता को बचा पा रहा है और ना ही युद्ध खतम करवा पा रहा है। आखिर हमास ने इजरायलीयों को बंधक बनाया ही क्यूँ है?

*खण्ड 6:आतंकवादी कौन? फिलीस्तीन? इजरायल? या कोई और? 

गाजा पट्टी में फिलिस्तीनी जनता को नागरिक सुविधाओं से वंचित कर बाड़े में घेरकर जानवरों से बदतर हालात में रहने को मजबूर किया जा रहा है। यह युद्ध फिलीस्तीन की आम जनता के खिलाफ साफ-साफ नजर आ रहा है। क्या फिलीस्तीन के आम जनता का अपना कोई वजूद नहीं? क्या फिलीस्तीन की जनता कोई भी अधिकार नहीं है? यदि यह युद्ध हमास के खिलाफ है तो फिर हमास के खिलाफ युद्ध करो। फिलीस्तीन के मासूम बच्चे और आम जनता के क्या बिगड़ा है आपका? हमास के बजाए जनता पर टारगेट कर नरसंहार क्यूँ? 

यह हमला कई नैतिक और व्यावहारिक सवाल खड़े करता है। इजराइल के नागरिकों के खिलाफ हमास की अंधाधुंध हिंसा निंदनीय है और इजरायल द्वारा बर्बर तरीके से फिलिस्तीन के मासूम बच्चों सहित निर्दोष नागरिकों का जिस तरह से लगातार कत्लेआम कर रहा है वह तो और जघन्य और निंदनीय है। जो भी धर्म के आधार पर निर्दोषों की हत्या को जायज ठहरा रहे हैं वे बहुत ही घृणित व्यक्ति होंगे। इतिहास उन्हें कभी भी माफ नहीं करेगा।

इस युद्ध में Settlers (गाजा में रहने वाले यहूदी, ये वे लोग हैं जिनको इजरायल बनने के बाद गाजा और यरुशलम में बसाया गया। इनको बाहर के देशों से लाकर बसाया गया इसलिए इनको सेटलर्स कहते हैं।) भी परेशान हैं। फिलिस्तीन में रहने वाले सेटलर्स के पास भी इजरायल का पासपोर्ट होता है। 

आप फिलीस्तीन के 1947 से पहले का नक्शा और 1947 के विभाजन के बाद से हर 10 साल बाद का लगातार अबतक का नक्शा देखें तो आपको साफ-साफ नजर आ जाएगा कि असल में कौन आतंकवादी है? और कौन अपनी सुरक्षा कर रहा है। 1947 से पहले यानी 1946 तक जो पूरा इलाका फिलिस्तीनी लोगों का था, अमरीकी नेतृत्व वाले पश्चिमी साम्राज्यवाद के संरक्षण में इजरायल ने फिलीस्तीन से छीन लिया। आज गाजा पट्टी मात्र 10 किमी चौड़ी 140 किमी लंबी है जिसमें 20 लाख लोग किसी तरह बाड़े में मुर्गे की तरह गुजर बसर कर रहें हैं, नागरिक सुविधाएं पूरी तरह से नदारद हैं। बिजली, पानी, गैस, तेल सहित तमाम नागरिक सुविधाएं और मूल अधिकार सब कुछ इजरायल के कंट्रोल में है। इजरायल, फिलीस्तीन पर कब्जे के उद्देश्य से लगातार फिलीस्तीन पर आक्रमण करता रहा है और हर जंग में इजरायल भारी पड़ा। इन 75 साल के इतिहास में इजरायल ने 16 बार फिलीस्तीन पर आक्रमण कर फिलिस्तीनी नागरिकों पर बर्बरता पूर्ण तरीके हत्या किया है। अब तक इजरायली सुरक्षाबलों ने लाखों फिलिस्‍तीनियों को इलाके से खदेड़कर उनके घर जमीन पर कब्जा कर लिया है, जिससे उन्‍हें पड़ोसी देशों में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा। फिलीस्तीन नागरिकों के एक बड़े हिस्से को शरणार्थी बनकर दुनिया में मजबूर होकर भटकना पड़ रहा है और जो नहीं भागे उन्हें गाजा और वेस्ट बैंक में बने जेलों में कैद कर लिया जा रहा है।

खण्ड 7आखिरी खण्ड: तीसरे विश्व युद्ध की स्थिति 

जब भी इजरायल फिलीस्तीन पर हमला करता है तो एक तीर से दो निशाने साधता है एक तो फिलीस्तीनीयों को उनकी जमीन से खदेड़कर उनकी जमीन को कब्जा कर लेता है और दूसरा वह अपने अत्याधुनिक हथियारों की नुमाईश करता है कि देखो हमारे पास कितने अत्याधुनिक हथियार हैं, जो कितने खतरनाक हैं। इन युद्धों के बहाने इजरायल अपने हथियारों की नुमाइश कर बाकी देशों को हथियार खरीदने का न्योता देता है। इजरायल तो बस आतंकवाद का एक औजार है, साम्राज्यवादी आतंकवादी गिरोह का असल सरगना तो अमरीकी साम्राज्यवाद है जो इजरायल के छिपकर सारा खेल खेल रहा है।

तीसरे विश्व युद्ध की स्थिति 

कुछ लोग इस युद्ध को तीसरे विश्वयुद्ध का आगाज मान रहे हैं। मेरी समझ के अनुसार जब तक शक्ति संतुलन चीन के पक्ष में है तब तक तीसरा विश्वयुद्ध संभव नहीं। लगभग सारे इस्लामिक देश जो पहले अमेरिका के साथ हुआ करते थे आज अधिकांश देश चीन के साथ खड़े हैं। चीन की बेल्ट एण्ड रोड (BRI) महापरियोजना में 155 देश शामिल हो चुके हैं। भारत के सभी पड़ोसी देश चीन के साथ खड़े हैं। एशिया में अकेला भारत ही है जो जनभावनाओं के खिलाफ अमेरिका जैसी डूबती जहाज पर बैठा है। इसका बड़ा उदाहरण संयुक्त राष्ट्र महासभा में इजरायल, फिलीस्तीन में युद्ध विराम का प्रस्ताव पारित हुआ। इस प्रस्ताव पर अमेरिका को खुश करने के लिये शुरू में भारत ने अपने को कथित तौर पर तटस्थ भूमिका में रखा। सही मायने में भारत ने युद्धविराम के प्रस्ताव पर हुए मतदान प्रक्रिया से खुद को बाहर रखकर तटस्थता का ढोंग किया है। युद्धविराम के पक्ष में वोट न करके एक तरह से युद्ध को बढ़ावा दिया है। युद्ध को बढ़ावा देकर अमेरिका को खुश किया है और इजरायल का ही साथ दिया है।

यूरोप के कई देश अमेरिका का साथ छोड़ चुके हैं, उसके नेतृत्व में बने नाटो सैन्य संगठन में भीतर ही भीतर फूट है। जी-7 और जी-20 जैसे संगठन महत्व खोते जा रहे हैं। अमेरिका तो विश्वयुद्ध चाहता ही है क्योंकि उसकी रोजी-रोटी युद्ध पर ही टिकी हुई है क्योंकि वह हथियारों का निर्माण करता है अब हथियार तभी बिकेंगे जब युद्ध होगा और इस इजरायल-फिलीस्तीन युद्ध में अमेरिका अपना काम कर गया। अमेरिका ने इजरायल से 320 मिलियिन डालर (26645 करोड़ रुपया) के हथियार का सौदा किया है। 2008 से अमेरिका में आयी मंदी महामंदी में तब्दील हो गयी है, जो जाने का नाम नहीं ले रही है। छोटी-छोटी लड़ाइयों से जैसे अभी हाल ही में यूक्रेन युद्ध और अब फिलीस्तीन-इजरायल युद्ध के जरिये किसी तरह अमेरिका इस मंदी से लड़ पा रहा है पर इससे मंदी और गहराती जा रही है पर विश्वयुद्ध के जरिये ही उसकी मंदी दूर हो सकती है। मगर शक्ति संतुलन अमेरिका के विपरीत है। जब शक्ति सन्तुलन अमेरिका के पक्ष में होगा तभी विश्वयुद्ध की परिस्थिति बनेगी जो अभी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है।

*अजय असुर*

*जनवादी किसान सभा*

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