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हमें एक खास झुकाव वाली न्यायपालिका से बचना चाहिए

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वरुण गांधी
फरवरी 1970 में, केरल में एडनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती ने संविधान के अनुच्छेद-26 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। इसमें मठ की संपत्ति के प्रबंधन पर प्रतिबंध के केरल सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों को चुनौती दी गई थी। तीन साल बाद इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 7-6 बहुमत से संविधान के मूल संरचनात्मक सिद्धांत को रेखांकित किया। इसमें खास तौर पर संविधान के प्रमुख सिद्धांतों और इसकी मूल संरचना में संशोधन करने के संसद के अधिकारों पर लगे अंकुश को नए सिरे से रेखांकित किया गया।

इमर्जेंसी में बदला रुख
दिलचस्प है कि जब आपातकाल घोषित किया गया तो सुप्रीम कोर्ट भी नए न्यायाधीशों के साथ ढेर हो गया था। ए एन रे को राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इस नियुक्ति में तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता खारिज की गई थी। गौरतलब है कि रे ने केशवानंद मामले में फैसले पर दस्तखत नहीं किए थे। उनके नेतृत्व में 13 न्यायाधीशों की पीठ के साथ ऐतिहासिक फैसले पर दोबारा गौर किया गया। यह बात भी सामने आई कि वास्तव में कोई समीक्षा याचिका दायर नहीं की गई थी। महज एक मौखिक अनुरोध पर यह समीक्षा सुनवाई हुई। जाहिर है, एक अनुचित प्रक्रिया अपनाई गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश ने एकतरफा बेंच को भंग कर दिया। केंद्र के पास एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका होने के बावजूद संविधान की बुनियादी संरचना का सिद्धांत बमुश्किल बच पाया। इस ऐतिहासिक फैसले ने देश में निरंकुशता और लोकतंत्र के बीच संतुलन साधने में मदद की।

अन्य देशों में न्यायिक नियुक्तियां

चुनिंदा देशों में राजनीतिक संस्थानों द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। विभिन्न देशों में न्यायिक नियुक्तियों की प्रचलित व्यवस्था पर एक नजर डाल लेना ठीक रहेगा।

हाल ही में, केंद्र ने न्यायिक नियुक्तियों को न्यायिक आयोग के माध्यम से संचालित करने पर जोर दिया है। हालांकि 16 अक्टूबर, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी अधिनियम (2014) को 4:1 के बहुमत से रद्द कर चुका है। यह रेखांकित किया गया कि कलीजियम सिस्टम को अधिक पारदर्शी बनाने, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए पात्रता मानदंड तय करने और इस बात पर बहस करने की पूरी गुंजाइश है कि क्या न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक सशक्त सचिवालय की आवश्यकता है। इस मामले में और सुधार किए जा सकते हैं।

न्यायिक स्वतंत्रता
भारत के लोकतंत्र की सेहत के लिए न्यायिक स्वतंत्रता की अहमियत बनी हुई है। न्यायिक स्वतंत्रता के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति की एक विश्वसनीय और निष्पक्ष प्रणाली जरूरी है। किसी भी नियुक्ति की न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। साथ ही एक ऐसी न्यायपालिका को बढ़ावा देना चाहिए, जो व्यक्तिगत और प्रणालीगत स्तर पर सरकार की अन्य शाखाओं से स्वतंत्र हो। ऐसी न्यायिक प्रणाली को राजनीतिक विचारधारा और जनता के दबाव से और इसके भीतर के पदानुक्रम से भी मुक्त होना चाहिए। इस बात पर पहले से तार्किक सहमति रही है कि हमें एक खास झुकाव वाली न्यायपालिका से बचना चाहिए।

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