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जीत ही लेंगे बाजी हम…?

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शशिकांत गुप्ते

जब भी देश में चुनाव होतें हैं। मतदाताओं की एहमियत बढ़ जाती है। जहाँ भी चुनाव होतें हैं, उस क्षेत्र की जनता चुनाव के दौरान स्वयं को भाग्यवान समझती है। चुनाव दौरान उम्मीदवारों के दर्शन कर मतदाता धन्य हो जातें हैं। कारण नतीजों के बाद जीतने वाले उम्मीदवार के दर्शन तो दुर्लभ होना स्वाभिवक है,लेकिन पराजित उम्मीदवार भी गायब हो जातें हैं।
चुनाव के दौरान समाज के हर तबक़े की बहुत पूछ परख होती है।
राजनैतिक दल चुनाव के दौरान समाज के आखिरी सोपान पर खड़े व्यक्ति तक पहुँचते हैं।
देश के दलित और पिछड़े वर्ग के लोग इतने भोले भाले होतें हैं कि,वे भूल जातें हैं कि, उन्हें विभिन्न तरह के गलत आरोपों के कारण अनावश्यक प्रताड़ित किया गया। गाय की हत्या की सिर्फ आशंका पर कपड़े उतरवाकर यातना दी गई।
सुरक्षा व्यवस्था की गलती से सेना के जवान विस्फोटक रसायन के शिकार होकर परलोक सिधार गए।
एक झूलते पुल की मरम्मत के लिए किए गए अनुबंध की खामियों के कारण लगभग डेढ़ सौ लोग शहीद हुए, उनके परिजन सांत्वना के दो शब्द सुनने से वंचित रह जातें हैं। लेकिन मतदान की अपील और नए वादें सुनने के लिए विवश होतें हैं।
सत्तर वर्ष के इतिहास को शून्य बताया जाता है। लेकिन सत्ताईस वर्ष के मॉडल की विज्ञापनों बहुत सारी उपलब्धियां दर्शाई जाती है।
विकास के मॉडल में नशाबंदी के बावजूद,मादक पद्रार्थों की उपलब्धता विकास में चार चांद लगा देती है। जहरीली शब्द के विशेषण युक्त मदिरा के साथ अब तो ब्राउन रँग मादक शक्कर भी प्रचूर मात्र में ….. ।
जाँच होते रहेगी। निष्पक्ष होगी जनता को इसी आश्वासन पर निर्भर रहना है।
हर चुनाव में नए वादें सुनो पढ़ो और पुराने वादें भूल जाओ।
भूल जाओ की देश का युवा बेरोजगार है। भूल जाओ देश में महंगाई है। छोटे मंझोले व्यापारियों की स्थिति दयनीय है। सारी बुनियादी समस्याओं को भूल जाओ।
तदान होगा नतीजा आएगा।
हम पुनः सफल होंगे।

 अच्छेदिन किन लोगों के आएंगे यह अंडरस्टूड है।
नतीजों के बाद मतदाता इसी कहावत दोहराएगा,चार दिनों की चाँदनी, फिर अंधेरी रात
साथ ही मतदाता सन 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म राजा और रंक के इस गीत की पैरोडी गुनगुनाएंगें। इस गीत को लिखा है, गीतकार आनंद बक्षीजी ने
वो फिरकी वाली तू कल फिर आना
नहीं फिर जाना,तू अपनी जुबान से
तेरे वादें हैं बड़े बेईमान से

(फिरकी वाली की जगह जुमले वाली लिखना है।)
चुनावी वादे फिल्मी गीत की इन पंक्तियों जैसे होतें हैं।
मिलता है जहाँ धरती से गगन
आओ हम वहीँ जाएं
विज्ञापनों ही उक्त वादा सम्भव है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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