एस. चार्वाक
उदयनिधि स्टालिन ने ऐसा क्या कह दिया है, जिस पर इतना हंगामा बरपा हुआ है? ‘इंडिया’ गठबंधन के धीरे-धीरे आकार लेते जाने और राजनीतिक रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते जाने से सहमी हुई भाजपा की अचानक जैसे बांछें खिल आयी हों। कोई भी ऐसा मुद्दा, जिसको सांप्रदायिक शक्ल दी जा सकती हो, उससे भाजपा को नये सिरे से प्राणवायु मिल जाती है। लेकिन, शायद उसके नेताओं को इस बात का आभास नहीं है कि यह खेल एक दुधारी तलवार की तरह है।
जिस सनातन धर्म या हिंदुत्व के झंडे के नीचे, सांप्रदायिकता का खेल खेलते हुए, बहुसंख्यक हिंदुओं को गोलबंद करके, अनंत काल तक राजनीति की मलाई चाटते रहने का सपना वे देख रहे हैं, वह धर्म दरअसल मुट्ठी भर सवर्णों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व का एक अस्त्र मात्र है, और जिस दिन बहुसंख्यक हिंदुओं को इस बात का बोध हो जाएगा, वह दिन उनके वर्चस्व के हमेशा-हमेशा के लिए खात्मे का दिन भी होगा।
तमिलनाडु द्रविड़ आंदोलन की जमीन है। पेरियार का कर्मक्षेत्र है। वहां सनातन धर्म, जो मूलतः ब्राह्मणवाद, यानि वर्ण-वर्चस्ववाद ही है, और जिसकी बुनियाद ही जाति-व्यवस्था/वर्ण-व्यवस्था है, उसके खिलाफ चेतना और संघर्ष की जड़ें इतनी गहरी हैं कि लाख सर पटकने के बावजूद सांप्रदायिक राजनीति उस चेतना पर खंरोच तक नहीं मार पा रही है।
पेरियार बहुत पहले ही काफी तीखे अंदाज में कह चुके हैं कि “सांप से भी ज्यादा जहरीला और खतरनाक ब्राह्मणवाद है, क्योंकि सांप का जहर तो सिर्फ एक इंसानी जीवन को मारता है, लेकिन ब्राह्मणवाद का जहर वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को भी मार कर फना कर देता है।” वे कहते हैं कि “ब्राह्मणों ने हमें शास्त्रों और पुराणों की सहायता से गुलाम बनाया है। उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए मंदिर, ईश्वर और देवी-देवताओं की रचना की है।”
उदयनिधि ने कहा है कि “सनातन धर्म मलेरिया-डेंगू की तरह है, इसे खत्म कर देना चाहिए।” इसका सही जवाब तो यही हो सकता था कि इस धर्म के अलंबरदार लोग अपने भीतर झांकते, अपने धर्म के उन दुर्गुणों को दूर करते, जिन्होंने उसे मलेरिया-डेंगू बना रखा है। लेकिन यह तो तब संभव होता, जब इस धर्म में आत्मचिंतन जैसी कोई चीज होती। पिछली कुछ शताब्दियों में करोड़ों लोगों ने इस धर्म में व्याप्त असमानता, घृणा, शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर इसका परित्याग किया है, फिर भी इसमें आत्मचिंतन का कोई सशक्त आंदोलन नहीं हुआ।
जोतिबा फुले, अंबेडकर और पेरियार जैसे लोगों ने इस धर्म के पाखंड को रेशा-रेशा करके दिखा दिया, इसके करोड़ों अनुयायियों का इस धर्म से जुड़ाव दिनोंदिन कम होता जा रहा है, फिर भी इसके अलंबरदारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। उनमें न तो इसकी कुरीतियों और अमानवीयता के प्रति रत्ती भर भी प्रायश्चित की भावना है न ही इनमें यत्किंचित परिवर्तन की मंशा है। बल्कि इसके उलट वे मनुस्मृति जैसी कुख्यात स्मृति तक को अपने धर्म का अनिवार्य हिस्सा मानते हुए इसे ‘सनातन’ और दुनिया का महानतम धर्म मानने जैसी डींगें मारते आ रहे हैं।
जबकि हिंदू धर्म के त्योहारों के बारे में डॉ अंबेडकर ने लिखा है कि “भारतीय त्योहारों का इतिहास और कुछ नहीं, बस आर्य ब्राह्मणों की जीत का जश्न है। ब्राह्मणों के हर त्योहारों के पीछे मूल निवासी महापुरुषों की हत्या और बरबादी का राज छिपा है।” वे लिखते हैं कि “हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद-नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए, और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है, तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दलित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है।”
दरअसल सनातन धर्म की महानता के बारे में इसके विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के विचारों से ज्यादा महत्वपूर्ण है इसकी मार झेल रहे पिछड़ों, शूद्रों और अछूतों की विशाल आबादी के विचार। धूमिल ने लिखा है कि “लोहे का स्वाद/ लोहार से मत पूछो/ उस घोड़े से पूछो/ जिसके मुंह में लगाम है।”
हम जिस सहस्राब्दी में जी रहे हैं, उसमें भले ही ऊपरी तौर पर धार्मिक कर्मकांडों की बाढ़ आयी हुई दिख रही हो, लेकिन हकीकत यही है कि विज्ञान और तर्क ने यों भी भीतर-भीतर आस्था की चूलें हिला रखी हैं। आज दिख रहा धार्मिक क्रियाकलापों का अतिरेक दरअसल बुझते दिये की भभक से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ऐसे में अगर किसी धर्म को कुछ और समय तक जिंदा बचे रहना है, तो लाजिमी है कि वह अपनी झूठी महानता की डींगें हांकना बंद करे, अपने भीतर लचीलापन लाए, वाद-विवाद-संवाद की गुंजाइश रखे, आस्था के साथ-साथ तर्क को जगह दे और गहरी करुणा, व्यापक मनुष्यता और विराट नैतिकता के अनुरूप अपने को ढाल ले।
मुट्ठी भर लोगों के विशेषाधिकारों की रक्षा करने वाले धर्म का हाल वही अंग्रेजों के जमाने के जेलर का होगा कि “आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ”। चंद विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के अलावा अंत में इसके साथ अन्य कोई नहीं रह जाएगा।
इस तथाकथित महान धर्म के विरुद्ध सतह के नीचे एक बहुजन क्रांति धीरे-धीरे आकार लेने लगी है, जो अब केवल द्रविड़ क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि समस्त उत्तरी भारत में भी वाम आंदोलन द्वारा दशकों तक तैयार की गयी जमीन पर फुले, अंबेडकर, पेरियार, ललई सिंह यादव, लोहिया, जयप्रकाश, कांशीराम के वारिस एकजुट होने लगे हैं। और वे सनातन धर्म की रक्षा के नाम पर सांप्रदायिकता की काठ की हांड़ी को दुबारा चूल्हे पर चढ़ने लायक नहीं छोड़ेंगे।