नीलम ज्योति
_मानव स्वयं में एक रहस्य है। इस रहस्य के साथ जीवन के अस्तित्व की खोज एकमात्र सत्य की खोज है। हमारे पास ज्ञान है, बुद्धि है, इन्द्रियां हैं, लेकिन फिर भी जीवन का रहस्य, रहस्य ही बना हुआ है और बना हुआ है अज्ञात जीवन का सत्य भी।_
हम जीवन के विकास की जिस स्थिति पर पहुंचे हैं, वह भी अधूरा है। देखा जाय, वह विराट संभावनाओं की तुलना में हमारा अस्तित्व समुद्र में एक बून्द के समान है।
जीवन के रहस्यों को जानने के लिए अवरोधों, परिधियों और आयामों का अतिक्रमण करना पड़ता है। तब कहीं जाकर जीवन के तमाम रहस्य अनावृत होते हैं, सत्य की उपलब्धि होती है और चेतना भी अपनी सीमा पर, अपनी ऊंचाई पर प्रकट होती है।
_देश, काल और परिस्थिति के अनुसार योग के अनेक आयाम विकसित हुए जिनमें प्रमुख हैं--हठयोग, राजयोग, लययोग, नादयोग, मंत्रयोग, स्वरयोग, कुण्डलिनी योग आदि।_
योग-विद्या ही एक ऐसी सर्वभोम विद्या रही है जिसने बौद्ध साधना, इस्लाम साधना, सूफी साधना, क्रिश्चियन साधना आदि के रूप में समूची धरती की यात्रा की। यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो योग के जितने भी आयाम विकसित हुए उनमें 'कुण्डलिनी योग' ही एकमात्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण और उपयोगी है।
कुण्डलिनी योग वास्तव में स्थूल शरीर से लेकर आत्म-शरीर तक के विकास की साधना है। इन शरीरों में विद्यमान 'अन्तर्चेता' की जागृति और उनके क्रमिक विकास की साधना है।
_कुण्डलिनी की साधना-यात्रा स्थूलतम आधार से शुरू होकर सूक्ष्म से सूक्ष्म होती हुई सूक्ष्मातिसूक्ष्म का भी अतिक्रमण कर हमें 'परम सत्य' तक पहुंचाती है। मन, प्राण और आत्मा का चरम विकास 'कुण्डलिनी साधना' द्वारा ही सम्भव है।_
योगियों का कहना है कि कुण्डलिनी ही एकमात्र ऐसी साधना है जिसके द्वारा वैज्ञानिक ढंग से व्यक्ति का आतंरिक जागरण और आतंरिक रूपांतरण सम्भव है।
इसीलिए ‘कुण्डलिनी योग’ को ‘सिद्धयोग’ और ‘महायोग’ भी कहा जाता है।
कुण्डलिनी साधना की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण घटना है–‘अस्तित्वगत रूपांतरण अर्थात् ( Existential Transformation.)
हमारे भीतर आत्मा है मगर वह सोई हुई है। कुण्डलिनी साधना के अंतर्गत ध्यानयोग से वह जागृत होती है और समाधियोग से वह विकसित होती है।
आत्मजागरण और आत्मविकास का परिणाम है–परम आनंद, परम शान्ति की जीवन में उपलब्धि। फिर उस ‘जागृत चैतन्य’ से सुगन्ध और प्रकाश फैलता है–मुक्ति का, अनुग्रह का और आत्मकाम का और तब व्यक्ति खो जाता है–जीवन के अन्तहीन रहस्य में।
एकरस हो जाता है–जीवन के स्रोत में। उसके जीवन की सारी सीमायें टूट जाती हैं। द्वंद्व समाप्त हो जाता है और तमाम पीड़ाएँ समाहित और शान्त हो जाती हैं उस ‘परम सत्य’ की उपलब्धि में।
मगर इस परम उपलब्धि के लिए हमें स्वयं अपने भीतर की यात्रा करनी होगी। परिश्रम करना होगा स्वयं के अस्तित्व के साथ। साधना करनी होगी स्वयं अपनी ही वृत्तियों और आतंरिक स्थितियों के साथ। जगानी होगी अपने ही भीतर खोई हुई शक्तियों को।
_कुण्डलिनी साधना की यात्रा लम्बी अवश्य है और यह भी सत्य है वह यात्रा एक जन्म में नहीं, कई जन्मों में जाकर पूरी होती है मगर मुमुक्षु साधक के लिए जरा सी भी लम्बी नहीं है वह यात्रा। बस साधना में छलांग लगानी है फिर तो परमात्म शक्ति ही कार्यो को संपन्न करती चली जाती है।_
अंत में एक दिन ऐसा आता है कि बिना कुछ प्रयास किये ,बिना संघर्ष किये और बिना अहंकार और कर्ता के 'परमसत्य' स्वयं अपने आप प्रकट हो जाता है।
_कुंडलिनी जागरण का सफल प्रयोग हम अपने 15 दिवसीय ध्यान शिविर में कराते हैं. हमारी निःशुल्क सेवा ली जा सकती है._
{चेतना विकास मिशन)