हिंदी साहित्य में धनपत राय उर्फ प्रेमचंद ने कालजयी रचनाओं का योगदान दिया है। इसमें गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि जैसे उपन्यास और बड़े घर की बेटी व दो बैलों की कथा जैसी रचनाएं भी हैं। आज क्या हैं प्रेमचंद होने के मायने? क्या वह आज भी प्रासंगिक हैं? ऐसे ही सवालों के जवाब साहित्य जगत की इन हस्तियों से बात करके तलाश रही हैं रजनी शर्मा। कोई लेखक कहानी लिखने की शुरुआत करे तो प्रेमचंद होने का तमगा पहना दिया जाता है। वह ऐसे रचनाकार हैं जो खुद एक परंपरा और मुहावरा बन गए हैं। प्रेमचंद के जन्म के 142 साल बाद भी उनकी कहानियां और उनके किरदार लोगों की जुबान पर हैं। उनके किरदार आज भी अपने आसपास महसूस किए जा सकते हैं।
इंसानी तकलीफों का सबसे बड़ा चितेरा
वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश बताते हैं कि प्रेमचंद इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आज भी भारत की जनसंख्या का करीब 65 से 70 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है। जितनी बार ऐसा लगा कि भारत औद्योगिक रूप से विकसित हो रहा है तब-तब हमें गांव की ओर देखना पड़ा है। वहीं प्रेमचंद भारत ही नहीं, एशियाई महाद्वीप के लेखक माने जाते हैं। उन सभी देशों के, जिनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था है। प्रेमचंद की सबसे बड़ी सफलता यही थी कि समाज में होने वाले बदलाव को, उसके केंद्र को, अंतर्विरोध को जाना और अपने अनुभवों को जरिये उसे व्यक्त किया।’
प्रेमचंद होना कोई आसान बात नहीं
साहित्यकार अनामिका कहती हैं, ‘हर कथाकार समाज वैज्ञानिक सच और मनोवैज्ञानिक सच को अपने लेखन में लाने की कोशिश करता है। प्रेमचंद में मनोविज्ञान की जितनी प्रखर समझ है, वैसी ही समाज की संरचनाओं की भी है। अगर धनाढ्य वर्ग को देखना है तो ‘मालती’ जैसे चरित्र मिलेंगे, गरीबी के चेहरे की झुर्रियां पहचाननी हैं तो ‘होरी’ मिलेगा। मध्यवर्ग की विडंबनाएं देखनी हैं तो ‘गबन’ में मिलेंगी। ‘रंगभूमि’ में उन्होंने दलित समाज में गांधीवादी तेजस्विता का निवेश किया। वहां ईसाई सोफिया और उसका परिवार भी है। ‘पंच परमेश्वर’ जैसी कहानी में जुम्मन जैसे चरित्र मिलते हैं। कोई भी साहित्यकार अपनी रेंज, विस्तार और गहराई की वजह से बड़ा होता है। उनके किरदारों में बच्चे, किशोर और बूढ़ी काकी सब हैं। समाज के सभी श्रेणियों के लोगों को जिसने इतना करीब से देखा, वह प्रेमचंद हैं। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी समाज उनके लेखन में मिलता है। कोई उपन्यास ऐसे ही बड़ा नहीं होता। इस तरह प्रेमचंद के लेखन में सूक्तियां भी मिलती हैं।’
वहीं राजकमल प्रकाशन के संपादक सत्यानंद निरुपम बताते हैं कि प्रेमचंद के बारे में निराला ने लिखा था कि जब भी वह राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू को देखते हैं, उन्हें प्रेमचंद की याद आती है और यह खयाल आता है कि राजनीति के सामने साहित्य का सिर नहीं झुका, बल्कि और ऊंचा है। प्रेमचंद होना कोई आसान बात नहीं है। वह स्वातन्त्र्य चेत्ता व्यक्ति थे।’
अपने समय को पार करने का लालच
नए लेखक भी प्रेमचंद के मायने बखूबी समझते हैं। युवा लेखक दिव्य प्रकाश कहते हैं, ‘जब कोई लिखना शुरू करता है तो उस पर प्रेमचंद का या शेक्सपीयर का या मोपासां जैसे लेखकों का कुछ असर जरूर होता है। लिखनेवाले को ये सब लोग घेरकर खड़े हो जाते हैं, तब वह कोई रचना करता है। मैं हमेशा कहता हूं मुझ पर हरिवंश राय बच्चन से लेकर धर्मवीर भारती, राही मासूम रजा तक इन सब लोगों का उधार है। जब मैं लिखता हूं कि तो इस उधार को चुकाने की कोशिश करता हूं। मेरे लिए प्रेमचंद होने का मतलब है कि क्या मैं लिखकर कुछ असर छोड़ पा रहा हूं। यह बात अलग है कि मुझे कितने लोग पढ़ते हैं। हर लेखक का यही लालच होता है कि वह अपने समय को पार कर जाए जैसा कि प्रेमचंद ने किया। यही सबसे बड़ी बात है।’
हानी लिखते हो तो प्रेमचंद हो गए हो
लेखक के बड़े होने का प्रमाण है कि वह मुहावरे में बदल चुका है। साहित्यिक ऐप ‘बिंज हिंदी’ के संपादक अनुराग वत्स कहते हैं कि किसी को कहें कि कहानी लिखते हो तो प्रेमचंद हो गए हो, यह लेखक की उपस्थिति और प्रासंगिकता का प्रमाण है। प्रेमचंद जैसा बड़ा, इंसानी दुख-तकलीफों का चितेरा कोई लेखक नहीं हो पाया है। कुछ विद्वानों की इससे अलग राय हो सकती है कि प्रेमचंद से बड़े भी लेखक हैं। लेकिन मेरी निजी राय है कि प्रेमचंद हिंदी कथा संसार में बड़ा, जरूरी और कभी न भुलाया जाने वाला नाम है। इसका दूसरा मतलब यह भी है कि लिखो तो प्रेमचंद जैसा लिखो। उनकी तरह बड़ा, प्रभावी, गहरा, महत्वपूर्ण, अनुकरणीय और दस्तावेजी लिखो।
प्रासंगिक क्यों हैं प्रेमचंद
इस बारे में दिव्य प्रकाश कहते हैं, ‘जो लेखक दुनिया में प्रासंगिक रहे हैं उसके पीछे एक थिअरी काम करती है। मानवजाति के लिए उनका कोई न कोई विजन था। उनकी एक कहानी है मंत्र जिसमें डॉ. चड्ढा एक बूढ़े आदमी के बेटे को नहीं देखते और जब उनके अपने बेटे को सांप काट लेता है तो वही बूढ़ा उनके बेटे की जान बचा देता है। यानी अच्छाई हमेशा जीतती है।’ वहीं, सत्यानंद कहते हैं, ‘उनकी प्रासंगिकता उनकी लेखकीय क्षमता या उनके कथा-साहित्य के विषय-चयन भर को लेकर नहीं है बल्कि इससे अधिक उनके विचारों और उनके लेखक-धर्म को लेकर है। जहां कहीं दमन होगा, सत्ता निरंकुश होगी, मनुष्य की बुनियादी जरूरतों की उपेक्षा होगी और पूंजी का वर्चस्व होगा, धार्मिक वैमनस्य की राजनीति होगी, सामंती बोलबाला होगा, प्रेमचंद की जरूरत महसूस होगी। वह लिखनेभर के लिए लेखन नहीं करते थे। समाज के प्रति जिम्मेदारी के गहरे अहसास के साथ लिखते थे। उनकी किताबें ‘चिट्ठी-पत्री’ और ‘विविध प्रसंग’ पढ़ते हुए लगता है कि वह सोते-जागते हर पल लेखक-व्यक्तित्व में ही रहे। वह जैसा स्वतंत्र और मानवीय समाज देखना चाहते थे, उसके अनुरूप ही मनुष्य को गढ़ने के आकांक्षी थे। बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई लालसा नहीं है। यही चाहता हूं कि वह ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, धनी, खुशामदी संतान से मुझे घृणा है।’ यह बात आज के समय में कितने लोग सोच सकते हैं?’
सबकी है अपनी खासियत
इस सवाल पर कि आज का प्रेमचंद किसे कहा जा सकता है, साहित्यकार अलग-अलग राय रखते हैं। वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश कहते हैं, ‘यह कहना मुश्किल है। लेकिन प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ में सूरदास का जो किरदार लिखा, वह तब का है जब औद्योगीकरण हो रहा था। जमीन अधिग्रहित की जा रही थीं। जब ‘गोदान’ लिखा तो तब साहूकार सिस्टम चलता था। लेकिन उस वक्त नैतिकता इतनी थी कि जो कर्ज लेता था वह उसे चुकाने के लिए नैतिक रूप से दबा रहता था। लेकिन आज बैंकिंग सिस्टम है तो लोग कर्ज लेकर भाग रहे हैं। उनके सामने होरी की तरह अपना कर्ज चुकाने की नैतिक बाध्यता भी नहीं है। ऐसे में कोई अब लिखे जबकि बैंकिंग सिस्टम ध्वस्त हो गया है तो वह प्रेमचंद है। कुछ व्यक्तित्व चाहे राजनीति में हों या किसी दूसरी फील्ड में, उनके पीछे ऐतिहासिक संदर्भ रहे हैं। प्रेमचंद ने अपने दौर के बारे में लिखा है। अब नए बदलाव हो रहे हैं। अब जो इन बदलावों को दर्ज करेगा, वह प्रेमचंद हो सकता है।’
एक बार जो क्लासिक लिख गया, उसको दोबारा नहीं लिख सकता
लेखिका अनामिका कहती हैं कि कोई भी व्यक्ति एक बार जो क्लासिक लिख गया, उसको दोबारा नहीं लिख सकता। सबका अपना अलग वैशिष्ट्य है। गुलाब अपने ढंग से सुंदर होता है और कमल अपने ढंग से। हर रचनाकार जो गंभीर हो, रेंज बड़ी हो, जिसमें गहराई हो, जिसको समाज की विडंबनाओं की समझ हो और मानव मन की विडंबना भी समझता हो। जो ऐसे चरित्र गढ़ता हो जो आपके मन में गांव बनाकर रहने लगे। इतने काम जो लेखक कर जाए, ऐसे हर युग में होते हैं। लेकिन दूसरे प्रेमचंद नहीं हो सकते। इस पर दिव्य प्रकाश कहते हैं, ‘ऐसा नहीं था कि प्रेमचंद अपने समय के सबसे अच्छे लेखक थे। जब वह लिखते थे तब टैगोर और शरतचंद्र बहुत मशहूर थे। शरत जैसा नाम तो अब तक किसी का नहीं है। ये लोग इसलिए महत्वपूर्ण थे कि वे अपने वक्त को बहुत ईमानदारी से दर्ज कर रहे थे। इसलिए आज का प्रेमचंद उसी को कहा जा सकता है जो अपने समय को ईमानदारी से दर्ज कर रहा हो। लेकिन आज का दिव्य प्रकाश होना या कोई दूसरा होना ज्यादा बड़ा होगा बजाय के प्रेमचंद होने के क्योंकि प्रेमचंद एक ही हैं। कोई हजार कोशिश करके भी वैसा नहीं होगा।’ हिंद युग्म के संपादक शैलेश भारतवासी की भी राय है कि प्रेमचंद की अपनी महत्ता थी और नए जमाने के लेखकों की अपनी महत्ता है। प्रेमचंद जैसे आम लोगों के बीच मशहूर थे और लोगों के दिलों को छूते थे उस पैमाने पर देखें तो मुझे आज के दौर में नीलोत्पल मृणाल और दिव्य प्रकाश दुबे दिखते हैं।
सत्ता से सवाल जरूरी
हर लेखक कहीं न कहीं प्रेमचंद जैसा बनना चाहता है। लेकिन प्रेमचंद ही क्यों? यह पूछे जाने पर दिव्य प्रकाश कहते हैं, ‘कोई भी लिखता है तो उसे प्रेमचंद की उपमा दी जाती है क्योंकि हमारे पास उदाहरण बहुत कम हैं। हिंदी बहुत नई भाषा है। उधर, अंग्रेजी में शेक्सपीयर को गए हुए भी 400 साल हो गए।’
उधर, सत्यानंद कहते हैं कि प्रेमचंद जैसा लेखक होना चाहते तो कई लोग हैं, लेकिन जनता से संवाद और सत्ता से सवाल की बहुस्तरीय कोशिश कितने कर पाते हैं? प्रेमचंद होने के मायने सपाट नहीं हैं। सामाजिक बदलाव की आकांक्षा का वह लेखक किसी और ही मिट्टी का बना था। जैनेन्द्र कुमार ने यों ही नहीं लिखा है, ‘जहां ज़िन्दगी थी, वहां प्रेमचंद जी की निगाह थी। जहां दिखावा था, उसके लिए प्रेमचंद के मन में उत्सुकता तक न थी।’
उदय प्रकाश इसमें नई संभावना देखते हैं। वह कहते हैं कि आज भी प्रेमंचद होने की संभावना वैसे ही बनी रहती है, जैसे गांधी बनने की संभावना होती है।
इस बारे में शैलेश मानते हैं कि लोग प्रेमचंद ही इसलिए बनना चाहते हैं क्योंकि आज भी लोग उनके लेखन में खुद को पाते हैं।