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*क्या है आत्मज्ञान/भगवत्प्राप्ति के मायने*

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        ~डॉ. विकास मानव 

परमात्मा प्राप्ति माने क्या है? बहुत ध्यान से समझें : परमात्मा, आत्मस्वरूप, अपना-आपा, आत्मज्ञान, स्वयंप्रकाश आदि सब पर्यायवाची शब्द हैं।

   परमात्मा कहीं खोया नहीं, खो सकता ही नहीं. वह तो विस्मृत हो गया है. उसे पाना कोरा विचार ही है. असल में उसका याद आ जाना ही उसे पा जाना है।

     अब वह आपको जिस रास्ते से भूला है, उसी रास्ते को पलटकर याद आ जाएगा। अपना-आपा में कल्पित जगत में बुद्धि हो जाने से वह भूला गया है। जगत में बुद्धि न रहे क्योंकि यह कल्पित है, स्वप्न है, मिथ्या है, माया है, है ही नहीं : ऐसी अनुभूति हो जाए, तो आपकी भूल मिट जाए।

        सबको यह भ्रम है कि आत्मा का ज्ञानआत्मज्ञान है। मेरे भाई/बहन! जानने वाला, जाना जाने वाले से भिन्न होता है। जो जाना जाता है वह दूसरा होता है। आप दूसरे को जान सकते हो, पर अपने को कभी नहीं जान सकते।

     आप तो स्वयंप्रकाश हो, प्रकाश माने रोशनी नहीं, प्रकाश माने जिससे समस्त “यह” प्रकाशित होता है, अर्थात ज्ञान।

    येन इदं सर्वं विजानाति लोकः तम् आत्मानं केन विजानीयात्?

वह जिससे यह सब जाना जाता है उसे कैसे जानोगे?

देखो! रात हो यानी सूर्य न हो, अमावस की रात हो यानी चन्द्रमा न हो, घनघोर काले बादल छाए हों माने तारे न हों, सरकारी बत्ती भी गुल हो, इन्वर्टर भी काम न करता हो, मोमबत्ती भी न हो यानी कृत्रिम प्रकाश की भी कोई व्यवस्था न हो, कड़कड़ाती ठंड में आप रजाई सिर तक ओढ़े लेटे हों, तब भी आप स्वप्न देख लेते हो।

   किसके प्रकाश में? अपने स्वयं प्रकाश में। अपने ज्ञान प्रकाश में। वह आप हैं। वह अपना स्व कभी हाथ पर रखे फल जैसा प्रत्यक्ष नहीं होता तो जाना कैसे जाए?

      अत: आत्मा का ज्ञान कभी किसी को नहीं हो सकता, तब आत्मज्ञान का अर्थ ही क्या हुआ? आत्मा का ज्ञान आत्मज्ञान नहीं है, जगत को मिथ्या जान लेना ही आत्मज्ञान है।

      बस इतना समझ लिया तो पचड़ा ही खत्म हो जाता है। इसके सिवा आत्मज्ञान नाम की, परमात्मा प्राप्ति नाम की, कोई वस्तु न थी, न है, न होने की संभावना है।

     जगत के मिथ्यात्व का बुद्धि में दृढ़ निश्चय हो जाना ही आत्मज्ञान है, मुक्ति है, स्वरूप प्राप्ति है। ऐसा बोध होते ही आप झूठे, धूर्त, मक्कार, दुराचारी, नशेड़ी, भ्रष्टाचारी कुछ भी नहीं होने को रेडी होंगे. जगत ही नहीं, तो किसके लिए? तब आप स्वस्थ हो जायेंगे. स्वस्थ यानी स्व में स्थिति. परमात्मा यानी सच्चिदानंद. अर्थात जो सत्य हमारे चित्त को आनंदित बनाए.

    भला जगत को मिथ्या स्वीकार लेने में हमारा जाता ही क्या है? यह तो सरल से भी सरल है।

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