अग्नि आलोक

चुनावी भाषा में आग का क्या है ककहरा!

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प्रफुल्ल कोलख्यान

रण-दर-चरण 2024 का आम चुनाव पांचवें पड़ाव की तरफ बढ़ रहा है। जिसकी जैसी औकात, चुनाव प्रचार चल रहा है। सत्ताधारी दल के नेता भाषा को फूंक मार-मारकर लहकाने की कोशिश करते-करते थक चुके हैं। करुणा से भीगी भाषा को आक्रोश की फूंक से लहकाने की कोशिश अब कमजोर पड़ती दिख रही है। वातावरण धुआं-धुआं हो रहा है। हवा में तरह-तरह का आकार धरता धुआं विश्लेषणों में रहस्य बन गया है।

निष्फल आश्वासनों के राजनीतिक विश्लेषण के साथ-साथ आकलित चुनाव परिणाम की ‘गोधूलि-वेला’ में पाला बदल की ऊहापोह से आंतरिक फुसफुसाहट और सुगबुगाहट से रहस्य कुछ अधिक गहरा रहा है। लौटती ‘गायें’ किस बथान में जा लगती हैं, इस का सब से अधिक बेसब्र इंतजार उन्हें है जिनकी जिंदगी की रेल पिछले दस साल में बेपटरी होती चली गई और वे आश्वासन की मोटरी बगलियाए हुए ‘पलट-फारम’ पड़ टापते रह गये। बहरहाल, चुनावी भाषा में लगी आग तो आग का ककहरा पढ़ रहे हैं।   

इधर, खबर है कि आयकर दफ्तर में आग लग गई थी। इस के पहले गृह मामलों के मंत्रालय में भी आग लगने और आग पर काबू पा लेने की खबर आई थी। पहले के जमाने के दार्शनिकों ने प्रमाण-श्रृंखला पर विचार करते हुए बताया था, जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां आग है। अब जमाना बदल गया है। दार्शनिक की दृष्टि को वैज्ञानिकों ने बदल कर रख दिया है। अब आग कहीं, धुआं कहीं का जमाना आ गया है। आग दिल में है, धुआं दफ्तर में हो सकता है या फिर यह भी हो सकता है कि आग दफ्तर में हो और धुआं दिल में। इस पहेली में आम नागरिकों को क्यों उलझना? यह पहेली तो‎ प्रवक्ताओं के काम की होती है।

सरकारी जांच अधिकारियों को यह सुविधा हासिल होती है कि जब चाहें दार्शनिक का रास्ता अख्तियार कर लें, जब चाहें वैज्ञानिक का रास्ता पकड़ लें। यह सुविधा सायंकालीन प्रवक्ताओं को भी हासिल रहती है। बस ध्यान देने की बात इतनी ही होती है कि निष्कर्ष ऐसा निकले जिस से समस्या का कोई सीधा समाधान निकलता हुआ न दिखे। आग लगी है तो‎ इस की जांच भी होगी। जांच से दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि को अपनाते हुए निष्कर्ष तो यही निकल सकता है कि जब-जब सत्ता बदलती है, तब-तब आग लगती है। पत्रकारीय निष्कर्ष तो‎ यह हो सकता है कि आग लगने का मतलब सत्ता परिवर्तन का शुरू होना होता है। कैसे क्यों? नई सरकार का शुरुआती समय तो इसी सब में बीत जाता है।

सत्ता का स्वभाव गजब होता है। सत्ता तो ऊर्जावान लोगों की चरणदासी होती है। ऊर्जा के समस्त रूपों का नाम है आग। ऊर्जावान लोग आग से खेलना जानते हैं। ऊर्जा से खेलते-खेलते वे खुद ऊर्जा-स्वरूप हो जाते हैं! अग्नि-क्रीड़ा उन्हें बहुत प्रिय होती है। ऊर्जावानों की गलियों में कहीं-न-कहीं आग से खेलना जारी रहता है। आती-जाती सत्ता की अग्नि-क्रीड़ा की लहक बहुत तेज होती है। सरकारी दफ्तरों में ‘ऊर्जा का प्रकटीकरण’ बताता है कि ऊर्जा खुद को पुनर्परिभाषित करने और पुनर्संयोजन (Realignment)‎ की प्रक्रिया में लग गई है। ध्यान देने की बात है कि ऊर्जा नहीं बदलती है, ऊर्जावान बदल जाते हैं।

असल में मनुष्य की सभ्यता में आग का बड़ा महत्व है। यह सही समय है जब आग के बारे में गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। यह जरूरी है, क्योंकि किसिम-किसिम की‎ ऊर्जाओं और तरह-तरह के ऊर्जावानों से अभी भारत के लोगों की मुलाकात होती रहेगी। झूठी ही सही, मगर इस तरह की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है। आशंकाएं इसलिए भी हैं कि इस सरकार के दस साल के चाल-चरित्र-चेहरा से कई ऐसे संकेत लोगों को मिल रहे हैं कि चुनाव परिणाम कुछ भी आये, सरकार वही बनायेंगे या वे ही सरकार में बने रहेंगे।

डरा हुआ मन आशंकाओं का बहुत बड़ा कारखाना होता है। अभी पौ फट रही है, अंधेरा छंट रहा है। धीरे-धीरे डर दूर होगा। भारत के लोकतंत्र में इतनी ताकत है कि कोई कितना भी ऊर्जावान हो चुनाव में प्राप्त जनादेश की अवमानना का राजनीतिक साहस नहीं दिखा सकता है। ऊर्जावानों की मंशा की पवित्रता मन तक ही सीमित रहती आई है और आगे भी रहेगी। जीवन में जीत-हार तो चलता रहता है, लेकिन इतना क्या डरना कि जीत हार में बदल जाये!

हां, आग सब से बड़ा रहस्य थी। मनुष्य ने पहली आजादी तब हासिल की जब वह सीधी रीढ़ के साथ सीधा खड़ा हो गया।  दो पैर शारीरिक वजन उठाने लगे। बाकी दो मुक्त होकर हाथ बन गये। फिर तो‎ हाथ ने एक-से-एक कमाल करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे अपना हाथ जगन्नाथ बनता गया। हाथ की मुट्ठी बंधने लगी, दुनिया मुट्ठी में करने की लालसा भी बढ़ने लगी। हाथ की सफाई और हाथ का कमाल कि हाथ की रेखा देखकर भविष्य बतानेवाले तभी से लेकर आज तक भारतीयों के साथ चले आ रहे हैं।

बहरहाल, कहा जा सकता है कि मनुष्य की मेधा की पहली बड़ी जीत तब हुई जब उसने आग का पहला रहस्य भेद लिया। मनुष्य ने आग के रहस्य को भेद लिया तो आग उस के हाथ लग गई! ‎रहस्य कि आग को उत्पन्न कैसे किया जा सकता है। आग पर नियंत्रण कैसे बनाये रखा जा सकता है? आग को भड़काया कैसे जा सकता है, बुझाया कैसे जा सकता है। आग को आयुध में कैसे बदला जा सकता है। आग पर जिसका अधिकार हो गया, पवित्रता उसी के काबू में रही। इसलिए आग को पावक, पवित्र करनेवाला कहा गया। शादी से श्राद्ध तक, धर्म से ध्वंस तक आग सर्वत्र आग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।   

दुनिया के लोग खासकर पश्चिमी दुनिया के लोगों ने अपनी अग्नि-मेधा को धार देने में उम्र खपा दी। उधर लोग आविष्कार में लग गये और इधर कुछ लोग फुरती से अनुकरण में लग गये। यह सही है कि सभ्यता के विकास में आविष्कार और अनुकरण का बहुत महत्व रहा है। लेकिन ज्यों-ज्यों अनुकरण की प्रवृत्ति मजेदार लत में बदलती गई त्यों-त्यों आविष्कार की प्रवृत्ति तिरस्कृत होती गई। अनुकरण की बुरी लत ने हमारे शासकों को राज-गुलाम बना दिया और हमारे शासकों ने हमें मानसिक गुलाम बना दिया। गुलामी में गुल खिलना, गुलामी के मजे लेने की मानसिकता ‘दिमागी गुलामी’ को सुख सागर में बदल देती है।

‘दिमागी गुलामी’ नाम से राहुल सांकृत्यायन की एक बहुत अच्छी किताब है। राहुल सांकृत्यायन महापंडित थे, बौद्ध थे, मार्क्सवादी थे, किसान आंदोलनकारी थे, उन में ऐसा कोई गुण नहीं था जिस पर आज का सत्ताधारी दल हितकारी समझे। अचरज नहीं कि ‘हिंदी पाठक’ ने राहुल सांकृत्यायन की किताबों और किये कार्यों से मुंह फेर लिया है। ‘दिमागी गुलामी’ भी अपवाद नहीं है। ऐसा क्यों उस पर विस्तार से फिर कभी। अभी तो‎ उस पुस्तक से एक संदर्भ।

राहुल सांकृत्यायन ने ‘दिमागी गुलामी’ में संकेत दिया है कि हमारे यहां के विद्वानों ने बारूद को पहचानने की जहमत नहीं उठाई, उन्होंने मुख से निकली हुई ज्वाला में करोड़ों शत्रु एक क्षण में जलाकर राख करने के आनंद के प्रति लोगों की रुचि जगाने में अपनी ‘ऊर्जा’ खपा दी। उन्हें, बारूद के आविष्कार की क्या जरूरत थी? उन्होंने तो बारूद के अनुकरण का कमाल दिखाया। अपने-अपने ‘देवताओं’ के मुख से, कभी ‘आंख’ से अग्नि निकलने और दुश्मनों को भस्म पर लोगों को विश्व दिलाने की जुगत भिड़ा ली। लोगों ने जमकर विश्वास किया और माथे पर, कोई-कोई तो पूरी नश्वर काया पर सुरक्षा की ‘गारंटीवाली’ भस्मी-भभूत मलना शुरू कर दिया जो ‘मंगल अभियान’ के ‘हर्षगान’ के साथ आज भी जारी है। जी, यही वह ‘जुगत भिड़ाऊ बुद्धि’ है जिस के बल पर हम विश्व-गुरु बनने का राष्ट्रीय ‘रोडशो’ होता रहता है।

पिछले दस साल की कोशिश के बाद यह बात तो‎ साफ-साफ दिमाग में आ जानी चाहिए कि विश्व-गुरु बनने के चक्कर से बाहर निकलने और ‘दिमागी गुलामी’ से मुक्त होने की कोशिश में अविलंब लग जाना क्यों और कितना जरूरी है। न लग सकें तो‎, जो लोग ‘दिमागी गुलामी’ को तोड़ने के लिए संघर्षशील हैं उनकी पीठ पर खड़ा होने की कोशिश तो‎ की ही जा सकती है। लोगों के पीठ पर मुस्तैद नहीं रहने के कारण, दिमागी गुलामी से बाहर निकालने का जिन लोगों ने ‘छोटी-छोटी’ भी कोशिश की उनका हाल डॉ नरेंद्र दाभोलकर, गौरी लंकेश, सिद्दीक कप्पन, गोविंद पानसरे, स्टेन स्वामी, गौरी लंकेश, एमएम कलबुर्गी आदि जैसा बना दिया गया! ‎

‘लाइव लॉ’ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति ‎संदीप मेहता ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम 1967 के तहत ‎ ‎न्यूजक्लिक के संस्थापक और प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी और ‎‎रिमांड को अवैध घोषित करते हुए 15 मई 2024 को कहा  कि केवल आरोप पत्र दायर करने के तथ्य ‎के आधार पर आरोपी को गिरफ्तार  करने और आरोपी को प्रारंभिक पुलिस ‎हिरासत रिमांड देने के समय की गई अवैधता और असंवैधानिकता को मान्य नहीं ‎किया जा सकता है। हालांकि अभी इस मामले में पूरा फैसला आना बाकी है। माना जा सकता है कि न्यायालय में ‎आरोपी की दोष-सिद्धि के बावजूद आरोपी की गिरफ्तारी की अ-वैधता और अ-संवैधानिकता को ‎हलके में नहीं लिया जा सकता है।

न्यायालय में आरोपी की दोष-सिद्धि होने के बावजूद ‎गिरफ्तारी की निर्दोष-सिद्धि न होने की स्थिति पर आम-नागरिक भला  क्या कह सकता ‎है। माननीय सुप्रीम कोर्ट से ही गिरफ्तारी के पीछे की दुर्भावनाओं, यदि कोई हो तो‎, की पहचान और समाधान करने की उम्मीद आम नागरिक कर सकता है। आम नागरिक तो लोकतांत्रिक शासन में गिरफ्तारी की शक्ति रखने वालों के शक्ति-प्रयोग की ‎‘दुर्भावनाओं’‎ ‎को महसूस करते हुए हैरान और हताश होता रहता है, या महसूस ही नहीं कर पाता है। क्यों  नहीं महसूस करता है! ‎इस का जवाब कौन दे सकता है! मीडिया! क्या पता!‎  ‎

विश्व-गुरु बनने की तमन्ना रखनेवालों ने ‎‘हम भारत के लोगों’‎ के संविधान और लोकतंत्र को किस ‘त्रिशंक-ऊंचाई’ पर पहुंचा दिया है! अपने समर्थन से चल रही सरकार के द्वारा मनगढ़ंत आरोप के आधार पर किसी नागरिक को लांछित और प्रताड़ित किया जाना, क्या किसी धर्म-निष्ठ व्यक्ति को जरा भी परेशान नहीं करता है! क्या, सनातनी लोग सोद्देश्य भेदभाव, शोषण, अ-न्याय के किसी प्रसंग से जरा भी परेशान नहीं होते हैं?

क्या सनातनी परिसर में धर्म और कर्तव्य में अंतर होता है! क्या धर्म-निष्ठा अपने अनुयायियों को कर्तव्य और न्याय के प्रति जरा भी जवाबदेह नहीं बनाती है? क्या, सनातनी लोगों का भरोसा सिर्फ ईश्वरीय न्याय पर होता है? ऐसा है, तो फिर न्यायालयों की क्या जरूरत है? जरूरत है। ऐसे सनातनी लोगों पर जब कोई अन्याय और अत्याचार होता है, तो‎ वे बेझिझक संवैधानिक न्यायालयों के शरणागत होते हैं, ईश्वरीय न्याय के लिए दो क्षण नहीं रुकते हैं।

अपने समर्थन और आशीर्वाद से चल रही सरकार के द्वारा किये गये किसी मनुष्य-विरोधी षड़यंत्र पर सनातनी लोगों के विरोध तो‎ दूर की कौड़ी है, असहमति का द्रुत-विलंबित स्वर भी नहीं सुनाई पड़ता है। ठीक है कि की धर्म-निष्ठता सनातनी को ईश-विरोधी होने से रोकती है। क्या धर्म-निष्ठता मनुष्य-विरोधी होने की प्रेरणा बन सकती है? कहने को कहा जा सकता है कि मनुष्य का सम्मान ईश्वर की सब से बड़ी आराधना है। संत मान लेंगे पक्का। और सनातनी? जवाब कठिन है। जिस ‘धर्म-निष्ठता’ ने धर्म-आधारित मनुष्य-विरोधी नकारात्मक भेद-भाव का कभी कोई सार्थक, क्या निरर्थक विरोध भी नहीं किया, उस ‘धर्म-निष्ठता’ की न्याय निष्ठता के बारे में अलग से कुछ कहने की कोई जरूरत है क्या? ‘दिमागी गुलामी’ का शिकार न तो धर्म-निष्ठ होता है और न न्याय निष्ठ। ‘सदाशयताओं’ की गुलामी के रूप अनंत, व्यथा अनंत।

लंका में क्यों और कैसे लगी? खांडव वन का क्या हुआ? लाक्षागृह प्रसंग क्या है? हमारे पास क्या जवाब है? वह तो बहुत, बहुत दूर की बात है! हम तो वे हतभागे हैं, जिन्हें गोधरा की रेल आग और उस के बाद की दुखद घटनाओं की भी सुननी पड़ी है। भारतीय जनता पार्टी के दस साल के ‎‘शांति काल’‎ में आग ने क्या-क्या न रूप ‎धरा! जनता ने खूब तेरी, प्रभु ताई और अब मांग रही है जान-माल की रिहाई! लोकतंत्र है, बाबू लोग समझकर भी कुछ नहीं समझते हैं। सताये हुए लोग नहीं समझकर भी कुछ-न-कुछ अवश्य समझ लेते हैं। प्रसाद से पेट नहीं भरता, आशीर्वाद से देश नहीं चलता।  

साफ संकेत हैं कि नरेंद्र मोदी को औपचारिक रूप से कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार करने का ‎वक्त आ गया है। महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। दहाड़ें सिसकियों में ‎‎बदल चुकी थी। दहाड़ों की शिलाओं के नीचे, सत्य की गुफाओं  के अंदर लहू  जम  चुका ‎था। नियति की कराहों के पीछे क्रूरता की कंदराओं में आग की भाषा का ककहरा ‎आकार ले रहा था। अतीत की त्रासद अग्नि-कथाओं से भविष्य के ‎भ्रम की समिधा चुन-‎चुनकर गठरी में समेटते हुए धर्मराज ‎युधिष्ठिर हिमालय की ठंढी ऊंचाई को  नीहार ‎रहे थे। कांपते कदमों से  धर्मराज  युधिष्ठिर आगे बढ़ गये थे। कहां तक पहुंचे! क्या पता!‎ लेकिन, अपने पीछे छोड़ गये आग की भाषा का ककहरा और भारत की धरती पर अनवरत गूंजता घायल उद्घोष! “अश्वत्थामा हतः इति! नरोवा कुंजरोवा!!”

चार जून को भारत किधर? इधर या उधर! मतदाताओं के फैसले मतगणना की प्रक्रिया से तय हो जायेगा। 

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