अग्नि आलोक

भारत के आगे अब रास्ता क्या है!

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प्रफुल्ल कोलख्यान

इतना तो तय है कि पूरी दुनिया की व्यवस्था में बदलाव की हवा चल रही है। इस हवा में ‘बहुत कुछ’ नया है। यह अलग बात है कि हर नये में कुछ-न-कुछ पुराना भी बचा होता है। दुनिया की बात अपनी जगह है, फिलहाल तो सवाल यह है कि भारत में गति और परिस्थिति की क्या स्थिति है! भारत में संगठित राजनीतिक दलों का भविष्य अपने संगठन की नई राजनीतिक शैली की मांग कर रही है। पुरानी राजनीतिक शैली की संरचना अब काम नहीं करनेवाली है।

नई राजनीतिक शैली पर बात करने के लिए पहले पुरानी राजनीतिक शैली पर बात की जानी चाहिए। सभ्यता की पीरामिडीय संरचना में क्षैतिजीय आकांक्षा बहुत तेजी से बढ़ रही है। श्रेष्ठानुक्रमिकता के निर्धारण के आधार में परिवर्तन हो रहे हैं। भारत में श्रेष्ठानुक्रमिकता के निर्धारण की पुरानी व्यवस्था पर बात की जानी चाहिए।

बुद्धिमत्ता ने मनुष्य की सभ्यता के विकास में बहुत योगदान किया है। भावुक सांद्रताओं ने भी मनुष्य के मनुष्य बनने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। बुद्धिमत्ता और भावुक सांद्रताओं में टकराव की स्थिति भी उत्पन्न होती रहती है। टकराव की परिस्थिति के साथ सम्मानजनक तरीके से सामंजस्य बैठाने के लिए बुद्धिमत्ता और भावुकता के समानांतर विवेक की सक्रियता जारी रहती है। स्थगित-विवेक के दौर में हर प्रकार का सामंजस्य टूटने लगता है। टूटा हुआ सामंजस्य संसाधनों के न्याय-पूर्ण वितरण का सब से बड़ा बाधक और सामाजिक समरसता का संघातक होता है।

भावुकता आदमी को यथार्थ की वास्तविक जमीन से हटाकर काल्पनिक दुनिया में ले उड़ती है। काल्पनिक दुनिया में भूत और भगवान दोनों का निवास होता है। डराने के लिए भूत और डर से मुकाबला के लिए भगवान के सहारे का भरोसा पैदा किया जाता है। इस लोक से कहीं अधिक बेहतर संभावनाओं का द्वार उस लोक में खुलता हुआ दिखाया जाता है। उस लोक की कुंजी अपने पास होने का भ्रामक भरोसा ‘पंडा-पुरोहित-ब्राह्मण’ दिलाता है। इस लोक से बेहतर उस लोक को बताने की भ्रमोत्पादक व्यवस्था के पूरे इंतजाम को भारत में ब्राह्मण-व्यवस्था या वर्ण-व्यवस्था कहा जाता है।

ब्राह्मण-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था दोनों ही ब्राह्मणवाद के अ-भिन्न अवयव हैं। ब्राह्मण-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था में एक बारीक अंतर है। ब्राह्मण-व्यवस्था उस लोक में बेहतर संभावनाओं के उपलब्ध होने का भ्रामक-विश्वास का काल्पनिक ताना-बाना बुनती रहती है। इस काल्पनिक ताना-बाना में उलझाकर टिकाये रखने के लिए ब्राह्मण-व्यवस्था आस्था की खूंटी ठोकती रहती है या कह लें कील-कवच तैयार रखती है। इस तरह ब्राह्मण-व्यवस्था मानसिक और काल्पनिक चर्या के कारोबार में लिप्त रहती है।

ब्राह्मण-व्यवस्था बुद्धि के इस्तेमाल को अनुपयोगी ही नहीं विनाशी भी बताती है। आस्था और विश्वास के प्रति समर्पण को महत्व देती है। इस के लिए तर्क और बुद्धि के निषेध को धार्मिक आचरण के विभिन्न आकर्षक पोशाक में पेश करती है। इस दुनिया में जो भी बेहतर है उस के पीछे तर्क और बुद्धि का बहुत बड़ा योगदान है। तर्क और बुद्धि का निषेध अंततः ‘इस दुनिया’ में बेहतरी की संभावनाओं के निषेध के अलावा और क्या हो सकता है! काल्पनिक दुनिया में सक्रिय ब्राह्मणवाद की ब्राह्मण-व्यवस्था का वास्तविक दुनिया से बहुत कम, लगभग न के बराबर ही कोई संबंध, संपर्क और संघर्ष होता है।

वर्ण-व्यवस्था का संबंध काल्पनिक दुनिया या उस लोक से न होकर इस लोक से होता है। वर्ण-व्यवस्था का संबंध वास्तविक समाज और इस दुनिया से होने के कारण इस में संपर्क और संघर्ष होता रहा है। वर्ण-व्यवस्था भ्रामक श्रेष्ठानुक्रमिकता बनाती है। इस श्रेष्ठानुक्रमिकता के निर्धारण में जन्म-आधारित वास्तविकताओं को ही महत्व दिया जाता है। इस व्यवस्था के संचालन में शारीरिक बल और शारीरिक श्रम को तो पर्याप्त महत्व दिया जाता है, लेकिन शारीरिक बल रखनेवालों और शारीरिक श्रम करनेवालों को सब-से कम महत्व दिया जाता है। इतना ही नहीं, शारीरिक बल को पशु-बल माना जाता है और शारीरिक श्रम करनेवालों को पशु का दर्जा दिया जाता है। शारीरिक श्रम करनेवालों को वर्ण-व्यवस्था श्रेष्ठानुक्रमिकता के सब-से निचले पायदान पर जगह देती है। गजब है कि शारीरिक श्रम की आनुपातिक न्यूनता श्रेष्ठानुक्रमिकता में श्रेष्ठता की अधिकता का आधार तय करती है।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को याद करें तो कहना होगा कि यह ठीक ही रेखांकित हुआ है कि वर्ण-व्यवस्था श्रम विभाजन का नहीं, श्रमिक विभाजन का षड़यंत्र है। यह षड़यंत्र तब और अधिक भयानक रूप में प्रकट होता है जब श्रेष्ठानुक्रमिकता सामाजिक और आर्थिक अ-न्याय, भेद-भाव के साथ समाज में घृणा-प्रसार को वैधता प्रदान करने में लगा रहता है। घृणा आंख पर पट्टी बांधकर हिंसा की घाटी में ले जाती है। ध्यान में रहना चाहिए कि हत्या हिंसा का अंतिम परिणति होती है और इसी तक सीमित नहीं रहती है।

हिंसा क्या है? समुदाय और समुदाय सदस्य के रूप में व्यक्ति के सामाजिक विकास की नैसर्गिक संभावनाओं को अवरुद्ध करना हिंसा है। गति तो प्रकृति की बुनियाद में है। गति को दिशा देना मनुष्य की संस्कृति का उद्यम है। अपने रास्ते पर चलाने के लिए किसी अन्य के रास्ता को ताकत के इस्तेमाल से रोकना हिंसा है। वर्चस्वशाली लोगों में दूसरों को बलपूर्वक अपने रास्ते पर चलाने और अपनी मान्यताओं के अनुरूप शोषण के अनुकूल बनाने की जबरदस्त प्रवृत्ति होती है।

वर्चस्व की प्रवृत्ति हिंसा है। वर्चस्व का विरोध प्रतिहिंसा है। राज-व्यवस्था यदि वर्चस्व की प्रवृत्ति पर लगाम नहीं कसती है और सिर्फ वर्चस्व के प्रतिरोध को राज्य-शक्ति के इस्तेमाल से रोकने के लिए तत्पर रहती है तो वह राज-व्यवस्था हिंसा के पक्ष में बने रहकर प्रतिहिंसा के हिंसात्मक विरोध से हिंसा-मुक्त समाज बनाने का ढोंग करने के अलावा कुछ नहीं करती है।

राज-व्यवस्था को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि कानून को मनुष्य बनाता है, कानून मनुष्य को नहीं बनाता है। भारत-विचार में अ-हिंसा के प्रति जबरदस्त आग्रह है लेकिन भारत-व्यवस्था में वर्चस्व की उतनी ही उत्कट प्रवृत्ति रही है। बुद्ध और कृष्ण के संदेशों को संदर्भ में लेने से बात कुछ-कुछ साफ हो सकती है। बुद्ध ने आनंद से कहा ‘अप्पा दीपो भव’। आशय यह कि किसी के शरण में जाना उपयोगी नहीं है। कृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:’।

बुद्ध के संदेश में भारत-विचार का सार है और कृष्ण के संदेश में भारत-व्यवस्था का रहस्य है। जिस समाज में नैसर्गिक संभावनाओं का रास्ता अवरुद्ध करने की कोशिश को निरंतर सामाजिक वैधता मिलती रहती है वह समाज हिंसक हो जाता है। जो राज-व्यवस्था नैसर्गिक संभावनाओं के फलीभूत होने का रास्ता रोके जाने की कोशिशों की निरंतरता को तोड़ने में विफल रहती है, वह राज-व्यवस्था राष्ट्र के हिंसक बनने की खतरनाक दिशा में कदम बढ़ाती रहती है। वर्चस्वशाली समुदाय समाज को हिंसक बनाता है। वर्चस्ववादी समुदाय पर लगाम न लगानेवाली राज-व्यवस्था अंततः हिंसा को रोक नहीं पाती है। हिंसक समाज और राष्ट्र दोनों मिलकर हाशिये के लोगों का क्रूर और हिंसक शोषण करता है।

वर्चस्व के लिए हिंसा और हिंसा का वर्चस्व वस्तुतः बेहतर संविधान और वास्तविक लोकतंत्र को निष्फल बना देता है। सारे लोक-हितैषी संवैधानिक प्रावधान आम लोगों की पहुंच से दूर होते चले जाते हैं। वंचित लोग लोकतांत्रिक राजनीति के नाम पर विषाक्त-हितैषिता के आसान शिकार होते रहते हैं। विषम समाज की राज-व्यवस्था में समकारक प्रावधानों को निरंतर सक्रिय रखना प्रमुख कर्तव्य होता है।

भारत के संविधान-निर्माताओं को भारतीय समाज में वर्चस्वशाली और वर्चस्ववादी समुदायों की हैसियत और क्रूर-कार्रवाइयों के यथार्थ का ज्ञान था, कुछ हद तक अनुभव भी था। उन्हें यह भी एहसास था कि नव-स्वतंत्र राष्ट्र सीधे यथार्थ की यथा-स्थिति को तोड़ने की तरफ कदम बढ़ाता है तो भारी सामाजिक उथल-पुथल शुरू हो जायेगा। इस उथल-पुथल में सर्वाधिक नुकसान उन्हीं लोगों को होने की आशंका थी जिन के हक में लोक-हितैषी प्रावधानों को लागू किया जाना था। लोकतंत्र का मौलिक महत्व गृह-कलह के बिना रक्तपातहीन परिवर्तन का वाहक होने में निहित होता है।

सांप्रदायिक आधार पर देश विभाजन के भयावह रक्तपात से भारत त्रस्त था। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर सहित सभी संविधान-निर्माताओं की यही आंतरिक इच्छा थी कि आजादी के बाद भारत में गृह-कलह और रक्तपात के बिना समाज-व्यवस्था में सकारात्मक और वांछनीय परिवर्तन संभव होने का लोकतांत्रिक चमत्कार हो जाये! उन्हें भारत के लोकतंत्र को गृह-कलह और रक्तपात से कलंकित होने की चिंता थी। उनके समक्ष दुनिया के सामने यह साबित करने की चुनौती थी कि भारत गृह-कलह और रक्तपात के बिना सफल लोकतंत्र को संभव कर सकता है। व्यापक भारतीय जनता के मन में वंचित-शोषित लोगों के दुख को दूर करने के लिए होनेवाले हृदय-परिवर्तन की संभावना, शुभ-बुद्धि, जाग्रत विवेक और निश्छल ‘आध्यात्मिक एकत्व’ की उम्मीद हमारे संविधान-निर्माताओं को थी। कहना न होगा कि हम पुरखों की उम्मीद पर खरा नहीं हो पाये।

बाबासाहेब को बस इतनी उम्मीद थी कि भारत का संविधान और संविधान के प्रावधान ‘अच्छे हाथ’ में ही रहेगा, गलत इरादों (Malafide Intentions) से कोई इस तक पहुंच नहीं पायेगा। आजादी के पचहत्तर साल के बाद भी दूर-दूर तक उस चमत्कार के घटित होने की कहीं कोई संभावना नहीं दिखती है! सारी बातें अपनी जगह है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि संविधान का ‘अच्छे हाथ’ में बने रहने का आंतरिक भरोसा भी अंततः आत्म-छल ही साबित होता रहा है। आजादी के आंदोलन की सब से बड़ी राजनीतिक भागीदार होने के बावजूद कांग्रेस सत्ता की राजनीति में ऐसी लिप्त होती चली गई कि गृह-कलह और रक्तपात के बिना सामाजिक-व्यवस्था में वांछनीय और सकारात्मक परिवर्तन का कार्यक्रम पीछे, बहुत पीछे छूटता चला गया।

‘गांधी परिवार’ के राजनीतिक योगदान को याद किया जाना चाहिए। यह नहीं है कि ‘गांधी परिवार’ ने कोई राजनीतिक गलती नहीं की। उन गलतियों को जरूर याद किया जाना चाहिए, लेकिन बहुत सारे अच्छे काम भी किये। दोनों तरह के काम पर विचार किया जाना चाहिए। इंदिरा गांधी ने सिर्फ इमरजेंसी नहीं लगाया था। प्रीवी-पर्स का प्रावधान समाप्त करने, बैंकों और खदानों का राष्ट्रीय-करण, सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े-बड़े कारखानों को सफलतापूर्वक स्थापित करने, वैज्ञानिक विकास, हरित-क्रांति, श्वेत-क्रांति, परमाणु-परीक्षण, दुनिया के नक्शा पर एक नये राष्ट्र के निर्माण में योगदान और सब से बड़ी बात उनकी शहादत को भी याद किया जाना चाहिए।

राजीव गांधी के शासन-काल में पंचायती राज, सूचना क्रांति और कंप्यूटर के चलन की शुरुआत आदि को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए। मां इंदिरा गांधी की शहादत के बाद बेटे राजीव गांधी की शहादत आजाद भारत के इतिहास में शहादत की ऐसी विरल श्रृंखला है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता है। शहादत की इसी विरल श्रृंखला वाले ‘गांधी परिवार’ के विरासतदार हैं, ‘अभय मुद्रा’ में सफलतापूर्वक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ संपन्न करने वाले राहुल गांधी।

राहुल गांधी ने सब से पहले खुद को कहा होगा, खुद के कहे को सुना होगा कि ‘डरो मत, डराओ मत’। फिर भारत के लोगों ने दुहराना शुरू किया होगा, ‘डरो मत, डराओ मत’। ‘डरो मत, डराओ मत’ को दुहराते हुए मतदाताओं ने मतपेटी तक की यात्रा की होगी। आम जनता की ‘डरो मत, डराओ मत’ की आवाज ने ‘अबकी बार, चार सौ पार’ की सत्ता की आवाज को बहुत हद तक निष्प्रभव कर दिया और मामला ‘दो सौ चालीस’ पर सिमटकर रह गया।

भारत-विचार और भारत-व्यवस्था का टकराव भारतीय समाज का मूल टकराव है। हिंसा और अ-हिंसा का, पक्ष और प्रतिपक्ष का, तथा वर्चस्व और वर्चस्व-विरोध का असर भारत-जीवन के मूल में है। भारत की विभिन्न समस्याओं का संबंध भारत-जीवन की इसी जड़ में है। संविधान भारत-विचार को प्रमुखता देता है, जबकि लोकतांत्रिक सरकारें भारत-व्यवस्था का रास्ता अपनाती रही है। कहा जा सकता है कि भारत में अ-हिंसा का आग्रह चाहे जितना भी हो किंतु रास्ता वह हिंसा का ही पकड़ी रहती है। दोहराव के जोखिम पर ध्यान न देकर कहना जरूरी है कि वर्ण-व्यवस्था में अंतर्निहित घृणा आंख पर पट्टी बांधकर भारत-विचार को भी हिंसा की घाटी में ले जाती है। वर्ण-व्यवस्था में अंतर्निहित घृणा का उपचार संविधान में तो है, लेकिन समाज में इस उपचार का असर बहुत धीमा है।

समाज में इस उपचार के असर को तेज करने का काम ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस के जिम्मे था। देर-सबेर यह काम कांग्रेस पार्टी को ही करना था, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने इस काम को शुरू करने में बहुत देर कर दी। इस का राजनीतिक नतीजा यह निकला कि कांग्रेस अपने राजनीतिक मूलाधार से कटते-कटते पूरी तरह कट गई और भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति में सहिष्णुता की भावना और सह-अस्तित्व की निष्कपट संभावना संकट से घिर गई।

सत्ता से हासिल होनेवाली सुख-सुविधा को प्राप्त करने के लिए सत्ता-लोलुप लोगों को कांग्रेस में न सिर्फ प्रश्रय मिलता रहा, बल्कि सत्ता-लोलुप लोग ‘गांधी परिवार’ को गुमराह करते हुए अंदर से कांग्रेस के कर्ता-धर्ता बनने में भी कामयाब रहे। राहुल गांधी का वास्तविक राजनीतिक सफर अब बदलती हुई कांग्रेस पार्टी के साथ बिल्कुल नई राजनीतिक शैली में, नये सिरे से शुरू हुआ है।

ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी बहुत पीछे छूट गये अपने ऐतिहासिक काम को पूरा करने के लिए राहुल गांधी के नेतृत्व में तत्पर हो रही है। नेता प्रतिपक्ष, ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी तो इस पीछे छूट गये काम को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे हैं; चुनौती कांग्रेस को इस काम में जुटाने की है। जो भी हो, राहुल गांधी की नई राजनीतिक शैली में उम्मीद की रोशनी नजर तो आती है, देखा जाये इस रोशनी में भारत क्या-क्या देख पाने में कामयाब होता है।

चलते-चलते, यह कहना जरूरी है कि अभी तो देश की टकटकी संसद में पेश किये जानेवाले संघ सरकार के बजट और उस पर प्रतिपक्ष के रुख पर लगी हुई है। दुनिया राजनीतिक करवट ले रही है, भारत के आगे रास्ता क्या है!

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