पुष्पा गुप्ता
जब भी समाज किसी संकट से गुज़रता है तो षड्यंत्र सिद्धान्तों की बाढ़-सी आ जाती है। नयी सहस्राब्दी की शुरुआत उस संकट के अभूतपूर्व रूप से गहराने के साथ हुई, जोकि 1970 के दशक से ही जारी था। 2008 में वैश्विक आर्थिक संकट के साथ यह लम्बी महामन्दी एक ऐसे मुक़ाम पर पहुँच गयी, जोकि 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे गम्भीर संकट साबित हुई।
कुछ मामलों में यह संकट 1930 की महामन्दी से ज़्यादा ढाँचागत और गम्भीर था क्योंकि पूँजीवाद लम्बे समय से किसी समृद्धि (बूम) के दौर का साक्षी नहीं बना था और युद्ध जैसी किसी घटना के ज़रिये बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों के विनाश के बिना इस संकट से उबरने के कोई आसार भी नहीं दिख रहे हैं। लेकिन आज के समय में ऐसे बहुत सारे राजनीतिक व सामरिक कारक हैं जो किसी विश्वयुद्ध या किसी बड़े महाद्वीपीय युद्ध को बेहद मुश्किल बना देते हैं।
ऐसे में मुनाफ़े के संकट से तात्कालिक तौर पर निजात पाने का भी केवल एक ही रास्ता बचता है: मज़दूरों व मेहनतकशों के शोषण को उनकी औसत मज़दूरी/वेतन को कम करना, शोषण की दर को बढ़ाना और उनसे हर प्रकार के श्रम व जनवादी अधिकार छीनना। लेकिन यह ऐसे क़दम हैं जो समाज में राजनीतिक व सामाजिक संकट को जन्म देते हैं। ऐसे में शासक वर्गों को यह ज़रूरत होती है कि धुर प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपंथी व फासीवादी ताक़तें सत्ता में हों ताकि प्रतिरोध के हर स्वर को कुचला जा सके।
2008 के बाद से ही पूरी दुनिया में अलग-अलग देशों में धुर दक्षिणपंथी व फासीवादी ताक़तों का उभार कोई संयोग नहीं था, बल्कि इसी महामन्दी के सामाजिक व राजनीतिक संकट में तब्दील होने का नतीजा था।
इसी दौर में, जबकि जनसंघर्षों को प्रतिक्रियावादी सत्ताओं द्वारा कुचला जा रहा है, नये-नये दमनकारी क़ानून बनाए जा रहे हैं, पर्यावरणीय विनाश अपने आपको भयंकरतम रूपों में पेश कर रहा है, दुनिया कोरोना महामारी के रूप में एक ऐसे स्वास्थ्य संकट का सामना कर रही है, जोकि मौजूदा मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था ने ही अपनी सहज गति से पैदा किया है, बेरोज़गारी और ग़रीबी नये रिकॉर्ड तोड़ रही है और सामाजिक व आर्थिक अनिश्चितता अपने चरम पर है; तो हम षड्यंत्र सिद्धान्तों के उभार को भी देख रहे हैं।
ऐसे समय में जब लोगों को लगता है कि वे अपने सामाजिक व आर्थिक अस्तित्व के तमाम पहलुओं पर नियंत्रण खो चुके हैं या खोते जा रहे हैं, उसी समय ऐसे सिद्धान्त पैदा होते हैं। इसके स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं कि नयी सहस्राब्दी की शुरुआत और विशेष तौर पर 2007-8 के बाद से षड्यंत्र सिद्धान्त के मशरूम बड़े पैमाने पर उग रहे हैं। कई अध्ययन इस बात को दिखला चुके हैं।
*षड्यंत्र सिद्धान्तों का भौतिक आधार :*
कई लोग षड्यंत्र सिद्धान्तों को केवल कुछ व्यक्तियों की मूर्खता का नतीजा मानते हैं। यह सच है कि षड्यंत्र सिद्धान्त मूर्खता से पैदा होते हैं। लेकिन इस मूर्खता का भी एक वर्ग चरित्र और भौतिक आधार होता है।
ये षड्यंत्र सिद्धान्त हार, निराशा, विपर्यय के ऐसे दौर में टटपुँजिया वर्गों के बुद्धिजीवियों में पैदा होते हैं, जब वर्ग संघर्ष में सर्वहारा वर्ग व प्रगतिशील ताक़तें हार रही होती हैं या हार चुकी होती हैं, प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ हावी होती हैं, और संकट का कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा होता है। ऐसे मौकों पर विशेष तौर पर टटपुँजिया बौद्धिकों की जमात में यह प्रवृत्ति पैदा होती है।
इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों को लगता है कि कुछ शक्तिशाली और बुरी ताक़तें दुनिया को नियंत्रित कर रही हैं, यथार्थ को नियंत्रित कर रही हैं; दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है वह उनकी योजनाओं का अंग है; इतिहास में संयोग या आकस्मिकता का कोई स्थान नहीं होता है, सबकुछ पूरी तरह से सुनियोजित है और पूरी तरह से शक्तिशाली बुरी ताक़तों की इच्छा से संचालित होता है।
नतीजतन, कोविड-19 तानाशाह सरकारों, फार्मा कम्पनियों, विशालकाय कार्पोरेशंस का षड्यंत्र बन जाता है, जिसके तहत ये कम्पनियां अपने उत्पादों को बेचना चाहती हैं, वैक्सीनेशन करके लोगों के शरीर में कोई चिप डालना चाहती हैं ताकि उन्हें ट्रैक किया जा सके और नियंत्रित किया जा सके, या ये सरकारें लोगों पर दमनकारी कानून थोपना चाहती हैं, एक वैश्विक सर्वसत्तावादी तंत्र बनाना चाहती हैं, जिसमें किसी भी प्रकार का प्रतिरोध न हो, और सत्ता को किसी भी प्रकार की कोई चुनौती न हो।
जिस दौर में लोगों के अन्दर अपने जीवन के यथार्थ के किसी भी पहलू पर नियंत्रण का पूरा बोध ही समाप्त हो रहा हो, उस समय ऐसे सिद्धान्तों की अपील काफ़ी बढ़ जाती है।
*क्या करते हैं षड्यंत्र सिद्धान्त?*
ऐसे सिद्धान्त प्रतीतिगत तौर पर जो कुछ हो रहा होता है, उसकी व्याख्या करते प्रतीत होते हैं। लेकिन वास्तव में वे किसी भी प्रकार की वास्तविक व्याख्या का रास्ता बन्द कर देते हैं। उनका असर कुछ वैसा ही होता है जैसाकि एक मरीज़ पर प्लेसीबो पिल का होता है। उसके अन्दर कोई औषधि होती ही नहीं है, लेकिन मरीज़ को लगता है कि इस प्लेसीबो पिल ने उसकी समस्या का समाधान कर दिया है।
इस रूप में षड्यंत्र सिद्धान्त न सिर्फ़ वास्तविकता की कोई व्याख्या नहीं पेश करते हैं, बल्कि वे ऐसी किसी भी ढाँचागत व वैज्ञानिक व्याख्या का रास्ता पहले ही बन्द कर देते हैं।
लेकिन ये षड्यंत्र सिद्धान्त केवल भ्रान्पिूर्ण या मूर्खतापूर्ण चिन्तन का नतीजा नहीं है। निश्चित तौर पर, यह भ्रान्तिपूर्ण और मूर्खतापूर्ण तो होता ही है। लेकिन जब ऐसी मूर्खता बड़े पैमाने पर हो रही हो, तो इसका भी हमें ढाँचागत विश्लेषण करना होगा।
क्या दुनिया में षड्यंत्र होते हैं? हाँ, होते हैं! लेकिन अपने आप में और अपने द्वारा वे किसी भी परिघटना की कोई व्याख्या नहीं करते हैं। उल्टे इन षड्यंत्रों की व्याख्या की जानी होती है कि आखिर वे किसी ख़ास बिन्दु पर ख़ास लोगों द्वारा क्यों किये गये।
जो इन षड्यंत्रों को ही तमाम परिवर्तनों का बुनियादी कारण मानते हैं, उन्हें ही हम षड्यंत्र सिद्धान्तकार कहते हैं। इनकी ख़ासियत यह होती है कि वे यथार्थ के पीछे के ढाँचागत कारकों की कोई पहचान नहीं करते हैं, बल्कि तमाम परिवर्तनों या घटनाओं को कुछ शक्तिशाली व्यक्तियों, या कॉरपोरेशनों, या सरकारों, सीक्रेट सोसायटी आदि के बुरे, शैतानी इरादों में अपचयित कर देते हैं।
षड्यंत्र सिद्धान्तकारों की यह ख़ासियत होती है कि वे अपने षड्यंत्र सिद्धान्त को कभी ठोस प्रमाण पर परखने की ज़हमत नहीं उठाते हैं क्योंकि अपने स्वभाव से ही ये सिद्धान्त किसी भी प्रकार के प्रमाणन या सत्यापन के प्रति निरोधक क्षमता रखते हैं।
मिसाल के तौर पर, ये बुरे, शक्तिशाली लोग, या कारपोरेशन या सरकारें, कोई सबूत नहीं छोड़ती हैं और लोगों को वह सोचने पर बाध्य कर देती हैं, जैसा कि वे चाहती हैं कि वे सोचें! नतीजतन, कोई ठोस और सुसंगत प्रमाण मांगना ही निषिद्ध है। नतीजतन, कुछ बिखरे तथ्यों और बातों को ये षड्यंत्र सिद्धान्तकार अपनी तरीके से एकत्र करते हैं, उनके बीच मनोगत तरीके से कुछ सम्बन्ध स्थापित करते हैं और बस एक षड्यंत्र सिद्धान्त तैयार हो जाता है।
ऐसे सिद्धान्तों की एक अस्पष्ट सी अपील होती है क्योंकि उसमें प्रमाणों, सम्बन्धों, आलोचनात्मक चिन्तन आदि पर आधारित किसी वास्तविक विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं होती है, जोकि एक वर्ग समाज में हर परिघटना के पीछे काम करने वाले वर्गीय राजनीतिक ढाँचागत कारकों को अनावृत्त कर सकें।
*षड्यंत्र सिद्धान्तों का वर्ग-चरित्र और उनकी विचारधारात्मक प्रकृति :*
यह बौद्धिक तौर पर टटपुँजिया वर्गों के राजनीतिक बौनेपन की अभिव्यक्ति होती है। यह भी एक प्रकार की विचारधारा (ideology) है। मार्क्स व एंगेल्स ने विचारधारा का चरित्र बेहद स्पष्ट तौर पर समझाया। यह विचारों की एक ऐसी व्यवस्था होती है, जो कि एक वर्ग समाज के फेटिश चरित्र के कारण पैदा होती है, एक छद्म चेतना को जन्म देती है, जिसके ज़रिये या यूँ कहें कि जिसके प्रिज़्म के ज़रिये लोग यथार्थ को देखते और व्याख्यायित करते हैं।
फे़टिश को यदि आप मार्क्सवादी अर्थ में समझना चाहते हैं तो वह है कोई भी ऐसी चीज़ जो आपको वास्तविकता को देखने से रोके या जो वास्तविकता पर पर्दा डाले। मार्क्स के शब्दों में दुनिया की जो छवि विचारधारा हमारे मस्तिष्क पर निर्मित करती है, वह भ्रामक होती है, सही नहीं होती, उल्टी या इन्वर्टेड होती है। लेकिन मार्क्स बताते हैं कि एक वर्ग समाज में शोषण के सम्बन्ध वास्तविकता को छिपाते हैं, और पूँजीवादी समाज में यह चीज़ अपने चरम पर पहुँच जाती है क्योंकि यहाँ आर्थिक सम्बन्धों का चरित्र ही फ़ेटिशिस्टिक होता है।
क्योंकि श्रमशक्ति के माल बन जाने के साथ पूँजीवादी शोषण का क्षुद्र, घृणित रहस्य छिप जाता है।
मार्क्स के अनुसार, विचारधारा को महज़ बौद्धिक आलोचना के ज़रिये ख़त्म करना सम्भव नहीं है। चूँकि भौतिक यथार्थ का चरित्र ही फेटिशिस्टिक है, इसलिए इस यथार्थ को बदले बग़ैर वैचारिक आलोचना के ज़रिये आप विचारधारा को ख़त्म नहीं कर सकते हैं। जब मनुष्यों के बीच सम्बन्धों का चरित्र फ़ेटिशिस्टिक नहीं रह जायेगा, तो विचारधारा के अस्तित्व का भौतिक आधार भी समाप्त हो जायेगा। इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि धर्म-विरोधी प्रचार के ज़रिये धर्म को समाप्त करने की फन्तासियाँ स्वयं विचारधारात्मक हैं क्योंकि धर्म को आलोचना के ज़रिये समाप्त नहीं किया जा सकता है, बल्कि भौतिक समाज में उसकी जड़ों को समाप्त करके ही समाप्त किया जा सकता है, यानी उसे मनुष्यों द्वारा मनुष्यों के शोषण को समाप्त करके ही ख़त्म किया जा सकता है।
षड्यंत्र सिद्धान्तों को भी महज़ कुछ लोगों की मूर्खता का नतीजा नहीं मानना चाहिए। निश्चित तौर पर, मूर्खता और अर्धपागलपन भी है, लेकिन इसका एक सामाजिक वर्गीय आधार है और यह महज़ कोई अव्यवस्थात्मक विसंगति (asystemic anomaly) नहीं है, जो कुछ व्यक्तियों में संयोग से पैदा हो गयी हो। इसका एक भौतिक आधार है।
*पराजय और विपर्यय के दौर के टटपुँजिया बौने सिद्धान्त :*
षड्यंत्र सिद्धान्तों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या होती है? पराजय, निराशा और वर्ग संघर्ष में विपर्यय और हार के दौरों में, विशेष तौर पर, टटपुँजिया वर्गीय बौद्धिकों के बीच (मगर केवल उन सीमित नहीं) यह प्रवृत्ति पैदा होती है। इसके तहत वे समाज में शासक वर्गों के प्रभुत्व को, जिसे फिलहाल कोई व्यापक सामाजिक चुनौती नहीं मिल रही होती है, शासित वर्गों के जीवन में मौजूद शोषण और दमन को (जिसके ख़िलाफ़ फ़िलहाल कोई आवाज़ उठती नज़र नहीं आ रही होती है) कुछ शक्तिशाली व्यक्तियों, कम्पनियों, तानाशाहों, आदि की इच्छा का परिणाम मानते हैं। यह सबकुछ उनकी गुप्त योजनाओं का परिणाम होता है!
चूँकि समाज में वर्ग संघर्ष में प्रगतिशील शक्तियाँ शासक वर्गों को अर्थपूर्ण रूप से कोई चुनौती देती नज़र नहीं आती हैं, इसलिए वर्ग संघर्ष का ढाँचागत कारक परिवर्तन की प्रेरक शक्ति के रूप में स्वत: स्पष्ट नहीं होता और नेपथ्य में चला जाता है।
नतीजतन, इतिहास ढाँचागत वर्गीय शक्तियों के अन्तरविरोध की अभिव्यक्ति की बजाय शक्तिशाली, बुरे लोगों, कारपोरेशनों, आदि की इच्छा का परिणाम नज़र आता है, जिनका हर चीज़ पर नियंत्रण होता है। यथार्थ का कोई भी पहलू उनके नियंत्रण से बाहर नहीं होता है।
सच यह है कि एक पूँजीवादी व्यवस्था में आर्थिक जगत से लेकर सामाजिक व राजनीतिक जगत तक में सबकुछ स्वयं पूँजीपति वर्ग के भी नियंत्रण में नहीं होता है। यह आर्थिकेतर उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्था नहीं होती है (हालाँकि आर्थिकेतर उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्थाओं में भी शासक वर्ग का जीवन के हर पहलू पर पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है), बल्कि बाज़ार की शक्तियों पर आधारित एक व्यवस्था होती है जिसकी पहचान मार्क्स के शब्दों में प्रतिसन्तुलनकारी असन्तुलनों (turbulent equibration या disturbances that balance each other) से होती है और ठीक इसीलिए स्वयं पूँजीपति वर्ग भी पूँजी की गति से संचालित और नियंत्रित होता है और पूँजीवादी समाज के हर पहलू पर उसका पूर्ण नियंत्रण नहीं होता है, हालाँकि अपनी राज्यसत्ता के द्वारा वह लगातार इन्हें नियंत्रित करने का प्रयास ज़रूर करता है।
जब हम पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद इन ढाँचागत शक्तिशाली कारकों की सही पहचान और विश्लेषण नहीं कर पाते हैं, तो हम आदिम तरीके से बल का सिद्धान्त लगाते हैं। यानी ठीक उसी प्रकार जैसे आदिम कबीले प्राकृतिक परिघटनाओं पर बल का सिद्धान्त लगाते थे, हालाँकि वे इस सिद्धान्त के अस्तित्व में प्रति सचेत नहीं थे।
वे जब कोई भी प्राकृतिक परिघटना देखते थे, तो उसके पीछे किसी व्यक्ति की कल्पना करते थे जो अतिशक्तिशाली था। इसकी वजह यह थी कि वह प्रकृति में सक्रिय संरचनात्मक शक्तियों की अन्तर्क्रिया के प्रति अनजान थे। यह अज्ञान ही ऐसे देवताओं व अन्त में ईश्वर की रचना की तरफ गया जिसकी इच्छा प्रकृति को संचालित करती थी। उसी प्रकार आज के टटपुँजिया षड्यंत्र सिद्धान्तकार पूँजीवादी समाज में होने वाली परिघटनाओं या परिवर्तनों के पीछे सक्रिय ढाँचागत कारकों को नहीं समझते हैं और उस पर बल का सिद्धान्त लगाते हैं!
परिणामस्वरूप वे इस नतीजे पर पहुँच ते हैं कि कोई तो यह सब कर रहा है, संयोग तो कुछ भी नहीं होता। इसलिए जब कोविड-19 जैसी कोई महामारी फैलती है तो वह तुरन्त चीख़ उठते हैं: “यह अचानक कैसे हो गया! इसके पीछे ज़रूर इज़ारेदार वैश्विक कारपोरेशनों और उनके इशारों पर काम करने वाली तानाशाह सरकारों व राज्यसत्ताओं की ‘डीप स्टेट’ के षड्यंत्र हैं!” इसलिए षड्यंत्र सिद्धान्तकारों के बारे में कहा जा सकता है कि समझदारी की बात करें, तो वे आदिम कबीलों के आदिम मनुष्य की तर्क-क्षमता के स्तर पर ही रह गये हैं, हालाँकि अपनी मूर्खताओं का प्रचार वे आधुनिकतम माध्यमों से करते हैं!
पूँजीवादी समाज के संकट के पीछे जटिल ढाँचागत कारक मौजूद होते हैं। एक टटपुँजिया फ़िलिस्टाइन बुद्धिजीवी के पास न तो यह क्षमता होती है और न ही उसका ऐसा रुझान होता है कि वह इन जटिल कारकों के अन्तर्सम्बन्धों का सावधानी के साथ वैज्ञानिक विश्लेषण करे। इसके विपरीत, समूचे संकट को ही एक षड्यंत्र बता देना ज़्यादा आसान और आकर्षक प्रतीत होता है।
*षड्यंत्र सिद्धान्तों के प्रति जन आकर्षण का भौतिक आधार :*
अपने जीवन के रोज़मर्रा के ऊबाऊ रूटीनी काम में लगी आम मध्यवर्गीय आबादी के एक हिस्से को और यहाँ तक कि रोज़ी-रोटी की जद्दोजहद में लगी मेहनतकश आबादी के एक हिस्से को भी ये सिद्धान्त अपील करते हैं। उन्हें भी अपने सामने मौजूद जटिल, संश्लिष्ट सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक परिघटनाओं को समझना होता है जो कि बेहद भ्रामक नज़र आती हैं।
उन्हें अपने जीवन का संकट भी बेहद भ्रामक दिखता है और यह सहज स्पष्ट नहीं होता कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है! ऐसे लोगों को भी एक व्याख्या की आवश्यकता होती है। जैसा कि हमने पहले इंगित किया था, षड्यंत्र सिद्धान्त ऐसे लोगों के लिए वही काम करता है, जो कि मरीज़ों के लिए एक प्लेसीबो पिल करती है।
वह उन्हें एक छद्म व्याख्या देती है, जो कि वास्तव में व्याख्या है ही नहीं बल्कि मूर्खतापूर्ण अटकलबाजियों का एक समुच्चय है।
षड्यंत्र सिद्धान्त इसलिए भी ख़तरनाक होते हैं कि वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे तथ्यों व प्रमाणों पर आधारित हों, हालाँकि वास्तव में वह कुछ बिखरे तथ्यों व प्रमाणों, जिन्हें कि मनोगत तरीक़े से चुना गया होता है, का समुच्चय होते हैं, जिन्हें फ़ैण्टास्टिक तरीके से जोड़कर कुछ अटकलबाजियाँ की जाती हैं। इनके मुताबिक़, सारी वैक्सीनें वास्तव में साज़िश हैं, कोरोना साज़िश है, 5जी साज़िश है, बिल गेट्स दुनिया के लोगों के शरीर में चिप डालकर उन्हें नियंत्रित करना चाहता है, संकट भी एक साज़िश है जो जॉर्ज सोरोस जैसे अतिशक्तिशाली, अतिधनाढ्य सट्टेबाज़ आदि अंजाम देते हैं, इत्यादि।
षड्यंत्र सिद्धान्तों की अपील का एक कारण यह भी होता है कि वे यह मानते हैं कि दुनिया असमान सत्ता सम्बन्धों पर आधारित है, कि दुनिया में कुछ शक्तिशाली लोग हैं जो अपने हितों के लिए काम करते हैं और आम लोगों के ख़िलाफ़ काम करते हैं। वे मानते हैं कि मानव इतिहास में शुरू से ही कुछ शक्तिशाली लोग रहे हैं और बाकी अज्ञानी जनता रही है।
कुछ शक्तिशाली लोगों का गिरोह सारी चीज़ें नियंत्रित करता है, उन्हें तय करता है और जनता को इसके बारे में भनक नहीं लगने देता जोकि यह भी नहीं जान पाती है कि वह क्या नहीं जानती है! नतीजतन, सारे अन्तरविरोध को इस घटाकर इस बाइनरी (जोड़े) में समेट दिया जाता है: ‘1 प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत’। यानी, शक्तिशाली और कमज़ोर में अन्तरविरोध की बात होती है और इसलिए ये षड्यंत्र सिद्धान्त आकर्षक होते हैं लेकिन वास्तविक ढाँचागत अन्तरविरोध की पहचान करने की बजाय, यानी ऐतिहासिक, राजनीतिक व सामाजिक शक्तियों के बीच ढाँचागत वर्गीय अन्तरविरोध की प्रेरक शक्ति के रूप में पहचान करने की बजाय, षड्यंत्र सिद्धान्त इसे कुछ बुरे, शैतानी, शक्तिशाली लोगों, कारपोरेशनों, तानाशाहों, सरकारों तथा बाकी अज्ञानी जनता के अन्तरविरोध में अपचयित कर देते हैं।
नतीजतन, अन्तरविरोध बन जाता है बिल गेट्स बनाम ‘जनता’, जॉर्ज सोरोस बनाम ‘जनता’, ‘फ़ार्मा कम्पनियाँ’ बनाम ‘जनता’, ‘डीप स्टेट’ बनाम ‘जनता’, ‘बैंक्स’ बनाम ‘जनता’, इत्यादि।
षड्यंत्र सिद्धान्त की टटपुँजिया बुद्धिजीवियों और टटपुँजिया जनसमुदायों की बीच अपील होने का एक कारण यह भी है कि उनके भीतर बुर्जुआ व्यक्तिवाद व कल्ट की विचारधारा गहराई से जड़ जमाए होती है।
उनकी सहज वर्ग प्रवृत्ति होती है कि वे संरचनात्मक वर्गीय शक्तियों के बीच अन्तरविरोध को देखने की बजाय, इतिहास को कुछ शक्तिशाली व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों तथा ‘जनता’ के बीच अन्तरविरोध के तौर पर देखते हैं, जिसमें कि ‘जनता’ इन शक्तिशाली व्यक्तियों की साज़िश का शिकार होती है और वह यह जानती तक नहीं है कि वह साज़िश की शिकार है! यह तो कुछ षड्यंत्र सिद्धान्तकार होते हैं जो इस सच्चाई को समझ जाते हैं!
*आज षड्यंत्र सिद्धान्त और उसकी कुछ विशिष्टताएँ :*
षड्यंत्र सिद्धान्तों के इतिहास में काम करने वाले तमाम अध्येताओं ने दिखलाया है कि षड्यंत्र सिद्धान्तों का स्वर्ण युग पूँजीवाद के साथ शुरू होता है, हालाँकि इनके इतिहास को हम मध्ययुग से ही देख सकते हैं। आरम्भिक मध्ययुग में ही ‘नाइट्स टेम्प्लार’, यहूदियों, ‘इल्यूमिनाटी’, फ्रीमेसनरी आदि को लेकर बहुत से षड्यंत्र सिद्धान्त अस्तित्व में आने लगे थे, जिन सबके पीछे ठोस सामाजिक अन्तरविरोध मौजूद थे।
इसके पूरे इतिहास को जानने के लिए आप डेनियल पाइप्स के शोध को पढ़ सकते हैं, क्योंकि हम यहाँ इसके विस्तार में नहीं जा सकते हैं। लेकिन अपने समकालीन पूँजीवादी विश्व में हम तमाम षड्यंत्र सिद्धान्तों को देख सकते हैं।
जब ब्रेक्जि़ट के लिए जनमत संग्रह हो रहा था तो 28 प्रतिशत लोगों को लगता था कि ब्रिटेन का ‘डीप स्टेट’ इस जनमत संग्रह में घोटाला कर देगी और ब्रेक्जि़ट नहीं होगा। बताने की आवश्यकता नहीं है कि इसमें से अधिकांश दक्षिणपंथी टटपुँजिया आबादी थी, जोकि वहां की दक्षिणपंथी पार्टी यूकेआईपी (UKIP) के समर्थक थे।
26 प्रतिशत लोगों का मानना था कि वे दावे से नहीं कह सकते कि जनमत संग्रह में घोटाला होगा या नहीं। यानी ‘डीप स्टेट’ एक षड्यंत्र के ज़रिये इस प्लेबिसाइट में गड़बड़ करने वाली थी। अभी भी कई लोगों का मानना है कि गड़बड़ की गयी थी। हालाँकि यह बात सिद्ध हो चुकी है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था। ब्रेक्जि़ट के पूरे प्रकरण में जो हुआ, उसे वर्ग शक्तियों के सन्तुलन से समझाया जा सकता है, उसके लिए किसी षड्यंत्र सिद्धान्त का सहारा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।
इसी प्रकार शार्ली एब्दो गोलीकाण्ड को मोसाद व सीआईए की साज़िश बताया गया था। कुछ षड्यंत्र सिद्धान्तकारों को मानना है कि चाँद पर कभी मनुष्य उतरा ही नहीं है और अमेरिका ने वह दृश्य हॉलीवुड में बनाया था। इसी प्रकार, बहुत-से षड्यंत्र सिद्धान्त हैं जो कि आज की दुनिया में प्रचलित हैं।
फिलहाल, कोरोना को षड्यंत्र बताने वाले बहुत से लोग षड्यंत्र सिद्धान्तों के बाज़ार में अपनी-अपनी फेरी लगाकर बैठे हुए हैं! मज़ेदार बात यह है कि इनमें से कई “मार्क्सवादी” होने का दावा भी करते हैं!
जो बातें सभी षड्यंत्र सिद्धान्तों में साझा दिखती हैं वे इस प्रकार हैं:
ये इस अन्तरविरोध पर केन्द्रित करते हैं: मुट्ठी भर बुरे, शैतानी, कुलीन अति धनाढ्य लोग बनाम ‘जनता’। दूसरा, कारपोरेशनों व उनके इशारों पर काम करने वाले ‘डीप स्टेट’ का रहस्यमयी हस्तक्षेप। तीसरा, ‘जनता’ भेड़ों के समान इन षड्यंत्रकारियों द्वारा ठगी जाती रहती है और ये तो केवल कुछ प्रबुद्ध षड्यंत्र सिद्धान्तकार हैं, जो वह सच्चाई देख लेते हैं, जिन्हें देखने की आज्ञा ‘जनता’ को नहीं होती है।
जिस देश में आम तौर पर मेहनतकश वर्गों का अज्ञान जितना अधिक गम्भीर होता है, वहाँ पर इन सिद्धान्तों में भरोसा करने वाले उतने ज़्यादा होते हैं। मसलन, अमेरिका में 2.2 करोड़ लोग मानते हैं कि चाँद पर उतरना वास्तव में नकली था; 16 करोड़ लोगों का मानना है कि जॉन एफ़. केनेडी को ‘डीप स्टेट’ ने मारा था; 37 प्रतिशत अमेरिकी मानते हैं कि ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ एक फ़र्ज़ी बात है और 28 प्रतिशत लोग मानते हैं कि कोई गोपनीय सत्ताधारी वैश्विक कुलीन वर्ग है जो कि एक वैश्विक षड्यंत्र के ज़रिये पूरी दुनिया में एक सर्वसत्तावादी सरकार बनाना चाहता है।
*क्या दुनिया भर में साज़िशें होती हैं?*
ज़ाहिरा तौर पर, दुनिया में वास्तविक साज़िशें भी हुई हैं। मिसाल के तौर पर 1964 की ‘गल्फ़ ऑफ टोंकिन’ घटना जिसने अमेरिका को वियतनाम युद्ध में सीधे हस्तक्षेप का मौक़ा दिया; 1931 की मुकदेन घटना जिसने जापान को मंचूरिया पर हमले का अवसर दिया; 1939 की ‘ग्लाइविट्ज़ घटना’ जिसने नात्सियों को पोलैण्ड पर हमला करने का अवसर दिया। लेकिन ये षड्यंत्र अपने आप में कुछ भी व्याख्यायित नहीं करते।
उल्टे इनकी व्याख्या व्यक्तियों के इरादों के आधार पर नहीं की जा सकती है बल्कि उन ढाँचागत कारकों के आधार पर की जा सकती है, जिसे हम राजनीतिक वर्ग संघर्ष का नाम देते हैं। वर्ग अन्तरविरोधों के तीव्र होते जाने के साथ एक ऐसी मंजिल आती है जबकि उनका समाधान करने के लिए किसी उथल-पुथल की आवश्यकता होती है, जो युद्ध या क्रान्ति या गृहयुद्ध हो सकता है।
ऐसे में, कई बार आकस्मिक घटनाएँ वे ‘टिपिंग प्वाइण्ट’ या ‘ट्रिगर’ साबित होती हैं, जो इस प्रकार की उथल-पुथल को शुरू कर देती हैं, जैसे कि हंगरी के राजकुमार की हत्या जिसने पहले विश्वयुद्ध की शुरुआत कर दी।
लेकिन कई बार ऐसी कोई आकस्मिक घटना घटित नहीं होती है, जिस सूरत में जो वर्ग राजनीतिक रूप से ज़्यादा संगठित होता है, वह केवल तात्कालिक ट्रिगर के तौर पर कोई साज़िश भी रच सकता है। लेकिन दोनों ही सूरत में साज़िश अपने आप में कुछ भी नहीं बताती या किसी भी ढाँचागत कारक की व्याख्या नहीं करती। उल्टे किसी विशेष बिन्दु पर कुछ विशेष व्यक्तियों या सरकारों ने कोई विशेष षड्यंत्र क्यों रचना, स्वयं इसकी व्याख्या ढाँचागत कारकों के द्वारा की जानी होती है।
अन्यथा हमारे पास एक ही रास्ता बचता है कि हम इनकी व्याख्या व्यक्तिगत प्रेरणाओं के आधार पर करें, जिसे सही अर्थों में हम विश्लेषण या व्याख्या कह भी नहीं सकते हैं!
षड्यंत्र सिद्धान्त वास्तव में वर्ग संघर्ष पर आधारित वैज्ञानिक विश्लेषण के अभाव में पैदा होते हैं। इस बात को तमाम उत्कृष्ट अध्येताओं ने इतिहास के तथ्यों व प्रमाणों समेत सिद्ध किया है कि जिन दौरों में शासक वर्गों के विरुद्ध प्रगतिशील व क्रान्तिकारी वर्ग शक्तियां पराजित हुई हैं, उन्हीं दौरों में षड्यंत्र सिद्धान्त इधर-उधर कुकुरमुत्ते की तरह बड़े पैमाने पर उग आते हैं।
उनकी लोकप्रियता ऐसे दौरों में इसलिए बढ़ती है क्योंकि लोगों के पास वास्तविक वैज्ञानिक विश्लेषण तक पहुँच नहीं होती है और वास्तविकता निराशाजनक और रहस्यमयी दिखती है। षड्यंत्र सिद्धान्त पराजय और विपर्यय के दौर में पैदा होने वाली एक फ़ेटिश के समान होती है। वर्ग संघर्षों के तीव्र होने के दौर में लोग उन वास्तविक कारकों व शक्तियों को देखने में समर्थ हो जाते हैं जिनके अन्तरविरोध के कारण इतिहास गतिमान होता है।
वे अपने जीवन और सामाजिक जीवन को भी बेहतर समझ पाते हैं और उनकी व्याख्या के लिए उन्हें किसी षड्यंत्र सिद्धान्त की आवश्यकता नहीं होती है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि कमज़ोरी और हार के दौरों में, सिद्धान्त और व्यवहार के बीच एक अन्तर पैदा हो जाता है।
*व्यवस्था के प्रति रोष, अलगाव और पराजयबोध की अवैज्ञानिक अभिव्यक्ति :*
षड्यंत्र सिद्धान्त राज्यसत्ता और पूँजी के प्रति कोई दयनीय स्वीकारोक्ति नहीं है, बल्कि यह उससे नफ़रत, शिकायत और उससे अलगाव की एक अभिव्यक्ति है, लेकिन विचारधारात्मक व विकृत रूप में, न कि वैज्ञानिक रूप में। वे वास्तविक वैज्ञानिक विश्लेषण के एक प्लेसीबो या स्थानापन्न के रूप में काम करती हैं, और आम जनसमुदायों द्वारा अपनी मौजूदा बेबसी या शक्तिहीनता को “समझने” या “व्याख्यायित” करने की एक कोशिश होते हैं।
चूँकि वे व्यवस्था-विरोधी दिखते हैं इसलिए आम लोगों के एक हिस्से को वे प्रभावित करते हैं, क्योंकि ऐसे लोग सत्ता के प्रति असन्तोष, ग़ुस्सा व नाराज़गी रखते हैं। लेकिन चूँकि ये सिद्धान्त सामाजिक यथार्थ से कटे होते हैं इसलिए उनके आधार पर कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता है।
यह एक प्रकार से सबवर्सिव रूप में टटपुँजिया वर्गों द्वारा हार का स्वीकार होते हैं; इस बात का स्वीकार कि हम यथार्थ को नहीं समझते, उसका वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं कर सकते, हालाँकि हम यथास्थिति से रुष्ट व असन्तुष्ट हैं।
षड्यंत्र सिद्धान्तों का नज़रिया एक ऐसी दुनिया का नज़रिया है जिसमें सबकुछ कुछ शक्तिशाली लोगों/गिरोहों द्वारा निर्धारित किया जाता है और किसी अन्य के पास कोई अभिकरण नहीं होता है। वास्तव में षड्यंत्र सिद्धान्त इस रूप में क्रान्तिकारी विज्ञान यानी मार्क्सवाद की एक घटिया पैरोडी होते हैं। ये क्रान्तिकारी सिद्धान्त से यह समानता रखते हैं कि ये मानते हैं कि दुनिया में असमानता और अन्याय का बोलबाला है। लेकिन वे पैरोडी हैं क्योंकि वे वर्गीय शक्तियों के बीच व्यापक पैमाने पर जारी संरचनात्मक अन्तरविरोध के जटिल यथार्थ का एक बचकाना, घटिया और मूर्खतापूर्ण सरलीकरण करके उसे कुछ लोगों/गिरोहों की इच्छा से संचालित कठपुतली बना देते हैं।
इस प्रस्तुति में राज्यसत्ता में बैठे शासक वर्ग के फ़ंक्शनरी स्वयं मनुष्य, कमज़ोर, त्रुटियाँ करने वाले या अयोग्य कभी नहीं नज़र आते बल्कि वे सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमान, त्रुटियों से परे और योग्यतम होते हैं। इस रूप में षड्यंत्र सिद्धान्त निराशा, अकर्मण्यता और पराजय के स्वीकार का तर्कपोषण भी बन जाते हैं।
वे शक्तिहीनता के अहसास को बढ़ावा देते हैं, लेकिन रोमांचक तरीके से! क्योंकि षड्यंत्र करने वाली शक्तियाँ इतनी शक्तिशाली और परफ़ेक्ट हैं कि दुनिया को बदलने का प्रयास भी करने का कोई तुक नहीं रह जाता है।
वजह यह है कि षड्यंत्र सिद्धान्त पूँजीवाद द्वारा ढाँचागत तौर पर अंजाम दी जाने वाली घटनाओं व परिघटनाओं को एक छोटे से गिरोह के सचेतन षड्यंत्र के रूप में देखते हैं। संकट के दौरों में व्यवस्था व शासक वर्गों के प्रति अविश्वास में आप वास्तविक विश्लेषण के अभाव, वर्ग संघर्ष में पराजय व विपर्यय को मिला दें, तो आपको नतीजे के तौर पर विविध प्रकार के षड्यंत्र सिद्धान्त प्राप्त होंगे।
*कोरोना षड्यंत्र सिद्धान्त के विषय में कुछ बातें :*
अन्त में, आज के दौर में सबसे ज़्यादा प्रचलित और सम्भवत: समकालीन पूँजीवादी विश्व के सबसे मूर्खतापूर्ण षड्यंत्र सिद्धान्तों में से एक पर संक्षिप्त चर्चा करना उपयोगी होगा। यह है कोरोना महामारी के एक षड्यंत्र होने का षड्यंत्र सिद्धान्त। मज़ेदार बात यह है कि कुछ अपढ़ “मार्क्सवादी” षड्यंत्र सिद्धान्त का खोमचा लगाये बैठे हैं!
दुनिया में कोरोना को होक्स व षड्यंत्र बताने वाले लोगों का 95 प्रतिशत हिस्सा दक्षिणपंथी व दक्षिणपंथी समर्थक समूह हैं। इनमें वैक्सीनेशन विरोधियों से लेकर, 5जी कोरोना सिद्धान्तकार और कोरोना को जेफ बेज़ोस, जॉर्ज सोरोस, बिल गेट्स आदि का षड्यंत्र बताने वाले मूर्ख और अवैज्ञानिक लोग भरे हुए हैं। ऐसे ही लोगों में हमारे देश के दक्षिणपंथी टटपुँजिया समूहों के अलावा कुछ तथाकथित वामपंथी व मार्क्सवादी भी शुमार हैं।
विदेशों में भी इस प्रकार के कुछ षड्यंत्र सिद्धान्तकार “मार्क्सवादी” जैसे कि चोसुदोव्स्की जैसे लोग मौजूद हैं। लेकिन पूरी दुनिया में ही जेनुइन मार्क्सवादी व्यक्ति, ग्रुप, संगठन व पार्टी इस प्रकार के दृष्टिकोण और दक्षिणपंथियों के ख़िलाफ़ खड़े हैं।
लेकिन कोरोना महामारी के षड्यंत्र सिद्धान्तों का भी एक भौतिक आधार है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि सभी षड्यंत्र सिद्धान्तों का एक भौतिक आधार होता है। जब कोरोना फैला तब से ही बहुत से लोगों में इस बीमारी के जानलेवा होने, इसके तेज़ी से फैलने और इसके मूल को लेकर तमाम सवाल पैदा हो गये थे। दुनिया भर में कई देशों के सरकारों द्वारा इस पर बेहद ढीली प्रतिक्रिया दिये जाने को लेकर भी लोग तरह-तरह की अटकलबाजियाँ कर रहे थे।
ऐसे में जो भ्रम की और नाराज़गी की पूरी स्थिति बनी, उसमें यह बिल्कुल भी ताज्जुब की बात नहीं थी कि कई ऐसे ‘सिद्धान्त’ पैदा हो गये, जोकि वैज्ञानिक ‘आम सहमति’ के विपरीत इस महामारी की कोई रोमांचक ‘व्याख्या’ पेश कर रहे थे। मीडिया और शासक वर्ग के अन्य प्रसारण माध्यमों के प्रति जनता का अविश्वास पुराना है। मसलन, 40 प्रतिशत से ज़्यादा ब्रिटिश लोग बीबीसी पर भरोसा नहीं करते, लगभग आधे अमेरिकन सीएनएन व फ़ॉक्स न्यूज़ आदि पर भरोसा नहीं करते। और ज़ाहिरा तौर पर इसकी वजह है क्योंकि ये पूँजीवादी माध्यम जनता को शासक वर्ग और व्यवस्था के बारे में प्रातिनिधिक सच्चाइयाँ नहीं बताते हैं और उसके पक्ष में अफ़वाहें फैलाने और गुमराह करने की हद तक जाते हैं।.
ऐसे में, कोरोना महामारी के विषय में भी तमाम षड्यंत्र सिद्धान्तों का पैदा होना स्वाभाविक ही था, विशेष तौर पर टटपुँजिया जनसमुदायों और उसमें भी दक्षिणपंथ के सामाजिक आधार के बीच में।
एक षड्यंत्र सिद्धान्त यह है कि यह फार्मा कम्पनियों की साज़िश थी कि वे कोरोना वायरस का होक्स पैदा करें और फिर अपने पीपीई किट्स, दवाएं और वैक्सीन बेचें। लेकिन आप स्वयं समझ सकते हैं कि यह कैसी बकवास बात है। दुनिया भर के तमाम देशों के पूँजीपति वर्ग में पहले तो वैश्विक पैमाने पर ऐसा कोई होक्स खड़ा करने के लिए एक अविश्वस्नीय स्तर की आम सहमति होनी चाहिए।
ऐसा कोई भी षड्यंत्र सिद्धान्त स्पष्ट तौर पर पूँजीवादी विश्व के चरित्र को बिल्कुल नहीं समझता है। दूसरी बात, समूचे पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से, यानी फ़ार्मा कम्पनियों को अतिलाभ पहुंचाने के लिए, समूचा पूँजीपति वर्ग अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगा? ज़ाहिर है कि कोरोना महामारी को पहले गम्भीरता से न लेने के बाद आनन-फानन में तमाम पूँजीवादी देशों को जिस प्रकार जनविरोधी तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हुए लॉकडाउन लागू करना पड़ा, उसने पहले से संकट के भंवर में फँसी विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया।
ऐसे में, समूची बुर्जुआजी और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली समस्त राज्यसत्ताओं में ऐसी आम सहमति कैसे बन सकती है? हर संकट कुछ मुट्ठी भर इज़ारेदारों और विशेष सेक्टरों के पूँजीपति वर्ग के लिए सौग़ात लेकर आता है। मौजूदा कोरोना महामारी से गहराए संकट ने भी आईटी सेक्टर, ऑनलाइन रीटेल सेक्टर, फार्मा सेक्टर के कुछ पूँजीपतियों की परिसम्पत्तियों में भारी बढ़ोत्तरी की। क्या इससे यह सिद्ध होता है कि कोरोना और लॉकडाउन इज़ारेदार पूँजीपतियों की साज़िश थी?
यह भी उतनी ही प्रचण्ड मूर्खतापूर्ण बात होगी। क्योंकि राज्यसत्ता कुछ पूँजीपतियों के वैयक्तिक हितों के लिए नहीं, बल्कि पूँजीपति वर्ग के एक वर्ग के तौर पर सामूहिक हितों की नुमाइन्दगी करती है, और इसी से पूँजीवादी राज्यसत्ता की सापेक्षिक स्वायत्तता का मार्क्सवादी सिद्धान्त भी पैदा होता है। वह कई बार कुछ वैयक्तिक पूँजीपतियों के हितों के विपरीत कदम भी उठा सकती है, यदि पूँजीपति वर्ग के सामूहिक वर्ग हितों की सेवा करने के लिए यह अनिवार्य हो जाये। कोरोना महामारी का विश्व पूँजीवाद पर क्या असर पड़ा है यह कुछ विशेष सेक्टरों के टॉप के 25 पूँजीपतियों की परिसम्पत्तियों में इज़ाफ़े से नहीं पता चलता है।
यह समूचे पूँजीपति वर्ग और समूची पूँजीवादी व्यवस्था पर पड़ने वाले असर से जाहिर होता है, यानी देश के स्तर पर राष्ट्रीय औसत मुनाफ़ा दर या वैश्विक औसत मुनाफ़ा दर। यदि आप इस मानक को देखें तो आप सीधे तौर पर देख सकते हैं कि कोरोना से पहले और उसके बाद विश्व अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा है।
*निष्कर्ष :*
इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण षड्यंत्र सिद्धान्त वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था को दोषमुक्त भी करते हैं क्योंकि इनके अनुसार मौजूदा संकट के लिए जेफ बेज़ोस, जॉर्ज सोरोस, बिल गेट्स, फ़ार्मा कम्पनियाँ आदि ज़िम्मेदार हैं और अगर इस कचड़े का सफ़ाया हो जाये तो व्यवस्था परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है। बेशक, हमारे मूर्ख षड्यंत्र सिद्धान्तकारों का अक्सर यह इरादा नहीं होता है। लेकिन उनके सिद्धान्तों का तार्किक नतीजा यही होता है।
कोई वजह है कि पूरी दुनिया में पूँजीवादी मीडिया ने ऐसे षड्यंत्र सिद्धान्तों को ख़ारिज करने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया है। वहीं यदि कोई ऐसा स्कैण्डल कभी सामने आता है जो वाकई पूँजीपति वर्ग और समूची पूँजीवादी व्यवस्था के चरित्र को उजागर करता है, तो उसको छिपाने या उसका खण्डन करने में पूरा मीडिया दिनों-रात लगा रहता है।
इसलिए सभी समझदार लोगों षड्यंत्र सिद्धान्तों से दूर ही रहना चाहिए। वर्ग समाज और पूँजीवादी व्यवस्था की मार्क्सवादी समझदारी के ज़रिये हम थोथे को उड़ा सकते हैं और काम की चीज़ों की पहचान कर सकते हैं। हम कोरोना षड्यंत्र, इल्युमिनाटी, नाइट्स टेम्प्लार, 5जी षड्यंत्र जैसे बकवास और बेमतलब की बातों को छाँट सकते हैं और उन वास्तविक तथ्यों की पहचान कर सकते हैं जो कि पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी को जनता के सामने उघाड़ कर रख सकते हैं।
जो दिखा सकते हैं कि सवाल कुछ शक्तिशाली बुरे लोगों, कारपोरेशनों आदि का नहीं है, बल्कि समूची व्यवस्था का है, जोकि इसी प्रकार बनी है कि व्यापक मेहनतकश अवाम का शोषण करे और चक्रीय संकट का शिकार हो, जो पर्यावरणीय तबाही पैदा करे, महामारियों को जन्म दे और मनुष्यता को बर्बरता की ओर धकेले।
यह कुछ बुरे, शैतानी, शक्तिशाली लोगों का षड्यंत्र नहीं है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो ढाँचागत तौर पर और अपने आन्तरिक तर्क से ही मेहनतकश वर्गों के आर्थिक शोषण, राजनीतिक व सामाजिक दमन व उत्पीड़न पर खड़ी है। यह किस प्रकार होता है यदि हम यह समझ जायेँ तो हमें षड्यंत्र सिद्धान्तों जैसे फ़ैण्टास्टिक और हास्यास्पद विचारों की कोई ज़रूरत नहीं होगी, जैसे सुनियोजित महामारी, नकली महामारी, इज़ारेदार कम्पनियों द्वारा खड़ा किया गया होक्स, इत्यादि।
मार्क्सवाद बिना किसी षड्यंत्र सिद्धान्त के यह दिखलाता है कि मौजूदा व्यवस्था की अराजकता, उथल-पुथल, आपदाएँ इस व्यवस्था की व्यवस्थागत परिणतियाँ हैं, किसी शक्तिशाली अल्पसंख्या का षड्यंत्र नहीं। मार्क्सवाद दिखलाता है कि किस प्रकार इस सारे गड्डमड्ड के पीछे एक सुसंगत तर्क है, मुनाफ़े का तर्क, मज़दूर वर्ग के शोषण का तर्क, माल उत्पादन और माल अन्धभक्ति का तर्क और पूँजीवादी बाज़ार का तर्क जो कि उथल-पुथल भरे समतलीकरण (turbulent equibration) पर आधारित है और एक ऐसी व्यवस्था से आप नियमित तौर पर पर्यावरणीय तबाही, महामारी, युद्ध, आपदाओं आदि की ही उम्मीद कर सकते हैं।
जो साज़िशें भी होती हैं, वे इसी प्रणाली का अंग होती हैं और अपने आप में किसी चीज़ की व्याख्या नहीं करती हैं और न ही किसी चीज़ का मूलभूत कारण होती हैं, बल्कि वे लक्षण होती हैं और उनकी व्याख्या की जानी होती हैं।
इसलिए हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, न कि षड्यंत्र सिद्धान्तों का शिकार होना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही हमें मौजूदा व्यवस्था और समाज की सही समझ भी दे सकता है और उन्हें बदलने का सही रास्ता भी दिखला सकता है।