क्या मोदी जी, देश के बुनियादी सवालों से भाग नहीं रहे हैं?क्या राहुल गांधी के चंद वाक्यों को लोकसभा की कार्रवाई से हटा देने भर से उनके द्वारा उठाये गए सवालों का समाधान हो जायेगा ? वे सवाल तो मीडिया और संसद की कार्रवाई के सीधे प्रसारण के माध्यम से जन-जन तक पहुंच चुके हैं।बल्कि, गांधी के शब्दों को लोकसभा की कार्रवाई से हटाने से मोदी सत्ता प्रतिष्ठान का ‘दोहरापन’ ही ज़ाहिर होगा; एक तरफ वे विपक्ष से सहयोग की बात करते हैं, दूसरी तरफ विपक्षी नेता को लतियाते हैं; एक तरफ वे संतुष्टीकरण का नारा उछालते हैं, वहीं वे शब्दों को हटाकर बहुसंख्यक समुदाय का परोक्ष तुष्टिकरण भी करते हैं! राहुल गाँधी ने सम्पूर्ण हिन्दू समाज को हिंसक नहीं कहा था। और यह है भी सच कि संघ और भाजपा सम्पूर्ण हिन्दू समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं । यदि ऐसा होता तो भाजपा गठबंधन 400 पार नहीं हो जाता!
रामशरण जोशी
दो जुलाई की हाथरस ट्रेजेडी ने ‘मोदी-शाह ब्रांड भाजपा, गुजरात विकास मॉडल और डबल इंजन सरकार का नैरेटिव’ के खोखलेपन को एक साथ उजागर कर दिया है। विडंबना यह है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कल लोकसभा ने अपने दस वर्षीय शासन काल की विकास उपलब्धियों का शब्द शंखनाद फूंक रहे और पूर्ववर्ती कांग्रेस शासन पर धुंआधार हमले कर रहे थे, ठीक उसी समय हाथरस ज़िले के गांव ‘पुलराई’ में आयोजित सत्संग के समापन के क्षणों में मची भगदड़ से मौत का ताण्डव शुरू हो चुका था। धीरे धीरे मौत और घायलों का आंकड़ा बढ़ता रहा और उसी रफ़्तार से मोदी जी पंचम स्वर में अपने विकास कीर्तिमानों का आत्ममुग्ध आलाप भरते जाते और पानी की घूंटे घूंटे पी पी कर हमले तेज़ करते रहे थे।
बेहद दुखद तो यह है कि निकटवर्ती सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सा की समुचित व्यवस्था ही लापता थी; न पर्याप्त डॉक्टर और न ही चिकित्सा उपकरण व दवाइयां उपलब्ध थे। इसीलिए, जीवित भक्तगण आक्रोशित थे और अधिकारियों पर सवाल बरसा रहे थे। यह कितनी बड़ी विडंबना, त्रासदी और विरोधाभास हैं मोदी -शासन के कालखण्ड के !
सवाल यह नहीं है कि हाथरस ट्रेजेडी में 116 से अधिक श्रद्धालुओं की मृत्यु और सैंकड़ों लोग हताहत हुए हैं। लगभग अस्सी हज़ार की भीड़ में अधिकतर अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े समाज की भक्त जनता थी। समाजविज्ञान की दृष्टि से भीड़ का यह चरित्र जहां चिंतनीय है, वहीं अध्ययनीय भी है। त्रासदीग्रस्त सत्संग में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और अन्य हिंदी प्रदेशों के श्रद्धालु गण शामिल थे। मूल सवाल यह है कि देश में किस चरित्र का विकास होता जा रहा है? क्या विकास सिर्फ ‘इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण, अरब -ख़रब पतियों की आबादी में इज़ाफ़ा, मंदिरों का निर्माण, विश्व गुरु-भ्रम निर्माण, धर्म रक्षा और सत्ता प्राप्ति’ है?
सवाल यह है कि नागरिकों में वास्तविक विकास के लिए विवेक संगत चेतना भी विकसित होती जा रही है या नहीं? क्या देश में हमारे शासकों ने जनता में ‘साइंटिफिक टेम्पर’ पैदा किया है? क्या कारण है कि ऊपरी विकास के साथ साथ धार्मिक अंधविश्वास भी बढ़ता जा रहा है; स्वयंभू साधु संतों और सत्संगियों की ज़मात भी बढ़ी है और विभिन्न संगीन अपराधों में आधे दर्ज़न से अधिक तथाकथित धार्मिक गुरु जेलों की हवा खा रहे हैं। फिर भी चुनावी मौसम में ऐसे गुरुओं के चरणों में नेतागण शीश नवाने आश्रम पहुँच जाते हैं। इस दृष्टि से हरियाणा के शासक कुख्यात या विख्यात होते जा रहे हैं। क्या यह सही नहीं है कि विगत चुनावों में मध्य प्रदेश में अचानक एक बाबा नमूदार होता है और उसके इर्द-गिर्द प्रदेश के नेता परिक्रमा करने लग जाते हैं। सत्ता प्राप्ति की नज़र से शासक दल मुनाफे में भी रहता है। मूलतः हाथरस ट्रेजेडी मानव निर्मित है और अंधविश्वास की चरम अवस्था !
सवाल यह भी पैदा होता है कि धार्मिक विभाजन से ऊपर उठकर क्या देश की जनता में वास्तविक विकास के प्रति चेतना पैदा के गई है? आखिर, भेड़चाल की शक्ल में लोग सत्संग में क्यों पहुँच जाते हैं ? हाथरस -सत्संग में जमा भक्तों की काया भाषा बतलाती है कि वे किस प्रकार अपने दुखों से त्राण पाने के लिए व्यग्र हैं। उनके कातर चेहरे उनकी लाचारी की गाथा बने हुए थे। उन्हें एक ऐसे मसीहा की तलाश है जो उनकी भौतिक पीर को हर ले। भौतिक दुखों से मुक्ति के लिए वे मंदिर,मस्ज़िद, सत्संग और पीर -पगार के यहां पहुँच जाते हैं। वे इसकी तलाश नहीं करते हैं कि उनकी बदहाली के लिए कौन लोग ज़िम्मेदार हैं?
हर पांचवें वर्ष लोकसभा, विधान वर्ग सभा और विभिन्न स्थानीय निकायों के चुनावों में वोट -शिकरत के बावज़ूद भक्तों के लिए बेरोज़गारी, साफ़ पानी, हवादार आवास, बच्चों के लिए शिक्षा और वांछित चिकित्सा की समस्या यथावत रहती है। आख़िर क्यों ? जब सदन में मोदी जी और उनके साथी विकास की डींगें हांकते हैं क्या वे जनता का उपहास या स्वयं का उपहास नहीं कर रहे होते हैं?मृतकों में 108 महिलाएं हैं। जब सत्ताधारी ‘महिला सशक्तिकरण’ का मंत्र जपने से थकते नहीं हैं, तब उन्हें विवेचनात्मक चेतना के मंत्र से लैस क्यों नहीं किया जाता है ?
उन्हें विवेकहीन आस्था और अंधविश्वास की खान में बदल दिया जाता है। हाशिये के समाजों में सवर्ण वर्ग में शामिल होने की लालसा पैदा की जाती है, जिसे समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास ने ‘संस्कृतीकरण’ से परिभाषित किया है। इस संस्कृतीकरण की डोर थामे वंचित-पीड़ित समाज ऐसे सत्संगों की शोभा बन जाते हैं और हाथरस जैसी त्रासदी से उनकी नियति बंध जाती है। यह वही हाथरस है, जहां दो-एक साल पहले दलित युवती के शव को अर्ध रात्रि में जला दिया गया था। देश भर में तहलका मचा था। आज हाथरस त्रासदी ने विकास के असली अर्थ पर विचार करने के लिए मज़बूर कर दिया है।
मोदी+शाह ब्रांड भाजपा ने अपनी शक्ति का काफी हिस्सा नेहरू -विरासत के विलोपीकरण और कांग्रेस को गरियाने में लगा दिया। कल भी लोकसभा में यही हुआ। प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्षी नेता राहुल गांधी की विलुप्त पप्पू छवि को बड़ी चतुराई के साथ नए शब्दों में उभारने की क़वायद की; बालक सुलभ गल्तियां जैसे शब्द का प्रयोग किया। एक दिन पहले राहुल गांधी के हमलों से मोदी- नेतृत्व तिलमिला उठा था। यहां तक कि गृह मंत्री अमित शाह ने अध्यक्ष से संरक्षण की गुहार लगाई थी। प्रधानमंत्री मोदी स्वयं तो-एक बार अपनी सीट से उठे और राहुल गांधी के शब्दों का प्रतिवाद किया था।
दिलचस्प यह है कि एक तरफ मोदी जी अपने शब्दों की कीमियागीरी से राहुल गांधी को ‘ बालक बुद्धि ‘ सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वे आधा घंटा से ज़्यादा कांग्रेस और राहुल को गरियाने में लगाते हैं। यदि राहुल गांधी अब भी अपरिपक्व या पप्पू का नया संस्करण है तब उन पर इतनी शक्ति क्यों खर्च की जा रही है ? सच्चाई यह है कि विपक्ष के नेता राहुल गाँधी द्वारा उठाये गए किसी भी सवाल का ज़वाब मोदी जी के पास नहीं था। अपने दो घंटे से ज़्यादा लम्बे भाषण में मोदी जी ने ‘बेरोज़गारी, दो करोड़ नौकरियों के सृजन, एमएसपी पर कानून, अधकचरे निर्माण व पुलों के गिरने, महंगाई, नोटबंदी, किसानों की ख़ुदकुशी, भाजपा का अल्पमत में आना ( 63 सीटों का हारना )’ जैसे मुद्दों पर ख़ामोशी का कवच पहने रखा। अलबत्ता पेपर लीक पर जरूर बोला और दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करने की बात की।
तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा ने भी जैसे ही बोलना शुरू किया था और बार बार ललकारा भी, लेकिन मोदी जी तुरंत ही सदन से उठ कर चले गए थे। मोइत्रा ने चुटकी भी ली थी ‘ मोदी जी डरिये नहीं। मुझे सुन तो लीजिए।‘ लेकिन, प्रधानमंत्री सदन में रुके नहीं थे। मोदी -सरकार के बीस से अधिक मंत्री क्यों हारे, भाजपा ने क्यों अयोध्या सहित आस-पास की सीटें हारीं, क्या राम ने मोदी जी को बिसरा दिया है ?, इन तमाम हमलों का सामना मोदी जी नहीं कर सके और न ही अपने भाषण में इसका जवाब दिया। वे अपनी हैटट्रिक में आत्ममुग्ध रहे।
मोदी जी यह बताना भी भूल गए कि नेहरू जी ने अपनी तीसरी पारी की शुरुआत पार्टी की 363 सीटों से की थी, जबकि वे तीसरी पारी की शुरुआत भाजपा की 240 सीटों के साथ कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में उनकी पार्टी अल्पमत में आ गयी है जबकि नेहरू नेतृत्व में कांग्रेस के पास 363 सीटों का प्रचंड बहुमत था। नेहरूजी ने तो संसद के भीतर या बाहर अपनी शेखी नहीं जतलाई थी! इसके विपरीत अल्पमत की पार्टी को लेकर मोदी जी इतराते फिर रहे हैं और विकलांग विकास को गुंजित कर रहे हैं।
जब वे दावा करते हैं कि 25 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से मुक्ति पा चुके हैं , तब उन्हें यह भी बताना चाहिए था कि देश में कितने ‘लोग बेरोज़गार हैं, कितनेछोटे कल -कारखाने -काम धंधे बंद हुए हैं, कितने खुदरा व्यापारी तबाह हुए हैं, कितने लोग भूख -बेकारी से मरे हैं ?’ उनके भाषण में इन बुनियादी सवालों का माकूल ज़वाब नहीं था। सिर्फ उन्होंने ‘सन्तुष्टिकरण‘ का शब्द उछाल कर अपनी कीर्ति पताका को लहराना चाहा। मोदी जी ने दावा किया कि उनका विकास ‘तुष्टिकरण’ के लिए नहीं है। वे सबके ‘संतुष्टीकरण’ के लिए समर्पित हैं। भ्रष्टाचार के लिए ‘जीरो टॉलरेंस‘ है। पर वे यह बताना भूल गए कि ‘चुनावी बांड’ के महाघपले को किस खाते में रखा जाना चाहिए। देश की आला अदालत इसे ‘अवैध’ कह चुकी है। संविधान से अनुच्छेद 370 को हटाने और आतंकवाद के सफाया के दावों के बावजूद भाजपा कश्मीर घाटी में चुनाव से भाग खड़ी हुई। क्यों ? इसका ज़वाब भी उनके पास नहीं था।
क्या राहुल गांधी के चंद वाक्यों को लोकसभा की कार्रवाई से हटा देने भर से उनके द्वारा उठाये गए सवालों का समाधान हो जायेगा ? वे सवाल तो मीडिया और संसद की कार्रवाई के सीधे प्रसारण के माध्यम से जन-जन तक पहुंच चुके हैं।बल्कि, गांधी के शब्दों को लोकसभा की कार्रवाई से हटाने से मोदी सत्ता प्रतिष्ठान का ‘दोहरापन’ ही ज़ाहिर होगा; एक तरफ वे विपक्ष से सहयोग की बात करते हैं, दूसरी तरफ विपक्षी नेता को लतियाते हैं; एक तरफ वे संतुष्टीकरण का नारा उछालते हैं, वहीं वे शब्दों को हटाकर बहुसंख्यक समुदाय का परोक्ष तुष्टिकरण भी करते हैं! राहुल गाँधी ने सम्पूर्ण हिन्दू समाज को हिंसक नहीं कहा था। और यह है भी सच कि संघ और भाजपा सम्पूर्ण हिन्दू समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं । यदि ऐसा होता तो भाजपा गठबंधन 400 पार नहीं हो जाता!
क्या अखिलेश यादव, शरद पवार, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, केजरीवाल जैसे नेता हिन्दू नहीं हैं? इस सवाल को दूसरे ढंग से समझते हैं। यदि कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां दावा करें कि वे ही धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद के एकमात्र प्रतिनिधि हैं, तो भी यह सरासर ग़लत होगा। हिन्दुओं का बड़ा वर्ग संघ और भाजपा की हिंदुत्व परिधि से आज़ाद है। भाजपा क्यों भूल जाती है कि उसे 38 प्रतिशत से अधिक मत नहीं मिले हैं। यदि वह एकमात्र प्रतिनिधि रही होती तो वह कभी का 50 प्रतिशत की रेखा पार कर लेती। दक्षिण भारत के हिंदू मतदाता उसका बहुमत से स्वागत करते।
1952 के प्रथम चुनावों के दौरान भी रामराज्य परिषद्, तत्कालीन जनसंघ, हिन्दू महा सभा जैसे संगठनों की निराशाजनक हार हुई थी। 1962 तक यह सिलसिला जारी रहा था।नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की दृष्टि की जीत होती रही। इसलिए कोई एक पार्टी हिन्दू, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद की ठेकेदारी का दावा नहीं कर सकती। यही बात अन्य धर्मों पर भी लागू होती है। यदि अकाली दल को सिख समाज का एकमात्र प्रतिनिधि माना जाता है तो क्या बात है कि कांग्रेस या आप दल की सरकारें पंजाब में बन जाती हैं। होना यह चाहिए की कांग्रेस रहे या भाजपा या कोई अन्य पार्टी, वह देश के नागरिकों की ‘संतुष्टि’ के सम्बन्ध में सोचे, न कि धार्मिक समुदाय के तुष्टिकरण की दृष्टि से। यदि मोदी जी की आस्था व संकल्प ‘संतुष्टीकरणं’ में है तो क्या वे एक सवाल का जवाब देंगे ‘ लोकसभा में भाजपा का एक भी सांसद मुस्लिम समाज से क्यों नहीं है और न ही मंत्री है ? ऐसा क्यों है ?’ क्या इस सवाल पर संघ और भाजपा के नेतृत्व आत्म मंथन करेंगे?
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं )