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ये कैसा व्यापार? सिर्फ़ 30 फ़ीसदी निवेश लेकिन संयंत्र पर माइक्रोन का 100% मिल्कियत…

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प्रधानमंत्री मोदी की हाल की अमेरिका यात्रा के दौरान हुई माइक्रोन डील ने तकनीकी के क्षेत्र में एक बहुत  बड़ी प्रगति और भारत के लिए एक नयी सुबह के रूप में, बहुत सुर्खियां बटोरी हैं।क़रीब 2.75 अरब डॉलर की अनुमानित लागत वाले संयंत्र पर माइक्रोन को 100 फ़ीसदी मिल्कियत हासिल होगी, जबकि इसके लिए उसे सिर्फ़ 30 फ़ीसदी यानी 0.825 अरब डॉलर का ही निवेश करना पड़ेगा।

प्रबीर पुरकायस्थ

वैसे माइक्रोन डील को लेकर इतना नाच-गाना होने के पीछे यह सचाई भी छुपी हुई है कि इलैक्ट्रोनिक चिप निर्माण तथा उससे जुड़ी की-टेक्नोलॉजी के मामले में, भारत की गाड़ी पूरी तरह से छूट ही चुकी है। इसके अलावा जो लोग टेक्नोलॉजी को समझते हैं, उन्हें यह अच्छी तरह से दिखाई दे रहा है कि यह माइक्रोन डील तो, चिपों तथा उनकी असेम्बलिंग और पैकेजिंग का ही सौदा है। ज़ाहिर है कि यह इलेक्ट्रोनिक्स उद्योग में अपेक्षाकृत निचली सीढ़ी की गतिविधि का ही मामला है। इस तरह की गतिविधियां तो, चिपों की डिज़ाइनिंग तथा उन्हें गढ़ने की कोर टेक्नोलॉजी को तो छूती तक नहीं हैं, फिर चिप निर्माण प्रौद्योगिकी की सबसे ऊंची सीढ़ियों यानी उन लिथोग्राफिक मशीनों तक पहुंच की तो बात ही क्या करना, जिन्हें चिप बनाने के संयंत्रों का ‘दिल’ माना जाता है।

अमेरिका-भारत रिश्ते एक ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर जा पहुंचे थे, जहां भारत ने रूस के ख़िलाफ़ पाबंदियां लगाने से और तथाकथित ‘नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ के लिए, पश्चिमी ताकतों तथा जी-7 के साथ जुड़ने से इनकार कर दिया था। आख़िर, उक्त ‘नियम आधारित’ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ के नियम तो, पश्चिम द्वारा ही तय किए जा रहे होंगे। बहरहाल, चूंकि प्रधानमंत्री मोदी तथा राष्ट्रपति बाइडेन, दोनों को ही निकट भविष्य में संभवतः मुश्किल साबित होने वाले चुनावों का सामना करना है, ऐसे में उन्हें इसकी बहुत ज़रूरत थी कि अमेरिका-भारत रिश्तों को बेहतर रास्ते पर लाएं। भारत को इसके लिए अति-उन्नत क्षेत्रों की तकनीकी हासिल करने और उसके बल पर एक नयी भोर का एलान करने के मौके की ज़रूरत थी और बाइडेन को जोखिम-मुक्त (डी-रिस्क) होने की कोशिश के लिए और अपने उद्योगों व बाज़ार को चीन से अलग करने की अपनी दीर्घावधि योजना के लिए, भारत के साथ की ज़रूरत थी।

इलेक्ट्रोनिक्स प्रौद्योगिकी के केंद्र में

भले ही देर हो चुकी है, फिर भी आख़िरकार मोदी सरकार की समझ में यह आने लगा है कि प्रौद्योगिकी कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि अगर आपकी जेब में पैसे हों तो आप कभी भी विश्व बाज़ार में जाकर खरीद लाएंगे। यह ऐसा ज्ञान है जिसे कंपनियों तथा देशों द्वारा सात तालों में बंद कर के रखा जाता है। ज़ाहिर है कि आज इलेक्ट्रोनिक्स का बोलाबाला है जो युद्घ के मैदान से लेकर कृत्रिम मेधा तक, हर चीज़ को संचालित करती है। मामूली कपड़ा धोने की मशीन से लेकर, सबसे महंगे लड़ाकू विमान तक, सब का संचालन इलेक्ट्रोनिक्स से ही होता है। जहां यूक्रेन युद्घ में काम आ रहे ड्रोन्स का दिल चंद डॉलर दाम के चिपों से संचालित होता है, तो वहीं सबसे महंगे विमानों तथा मिसाइलों का दिल, कुछ सौ डॉलर मूल्य की चिपों से धड़कता है। युद्घ के मैदान में तो टैंक और तोपखाने भी, मिसाइलों व ड्रोनों से ताल-मिलाकर ही आधुनिक यद्घ क्षेत्र बनाते हैं जहां राडार तथा उपग्रह, लड़ाइयों के संचालकों तक, पल-पल की ख़बर पहुंचाते हैं।

अगर भारत को वैश्विक मामलों में अपनी स्वायत्तता बनाए रखनी है, तो उसे अपने इलेक्ट्रोनिक्स उद्योग के भविष्य की चिंता करना शुरू कर देनी चाहिए। बता दें कि इलेक्ट्रोनिक्स उद्योग के केंद्र में है – आधुनिकतम चिप बनाने का सामर्थ्य। अगर आज नहीं तो कम से कम कल तो हमें इसमें समर्थ होना ही चाहिए और इस मामले में आज ही शुरूआत करनी होगी क्योंकि हमारी चिप-निर्माण की गाड़ी तो तभी पीछे छूट गयी थी जब मोहाली में जो चिप निर्माण संयंत्र शुरूआत में स्थापित किया गया था-सेमी कंडक्टर परिसर-उसे दोबारा खड़ा ही नहीं करने का फ़ैसला किया गया था। यह संयंत्र, जो इलेक्ट्रोनिक्स के क्षेत्र में हमारी आत्मनिर्भरता का बहुत ही महत्वपूर्ण घटक था, साल 1989 में रहस्यमय तरीके से आग की चपेट में आ गया था।

माइक्रोन सौदा क्या है और क्या नहीं?

माइक्रोन सौदे का क्या अर्थ है? माइक्रोन, मैमोरी चिप की एक बड़ी निर्माता कंपनी है और उसके कारोबार के इस क्षेत्र ने ही उसे सेमीकंडक्टर उद्योग की दुनिया की अग्रणी कंपनियों में से एक बना दिया है। अगर इस कंपनी ने भारत में अपना मैमोरी चिप निर्माण संयंत्र लगाने का फ़ैसला किया होता तो उसके पास ऐसा करने के लिए आवश्यक अनुभव है। यह स्थिति उस फॉक्सकॉन-वेदांता फेब्रिकेशन प्रस्ताव से बहुत अलग है, जिसका ढोल तो खूब बजाया गया था, लेकिन वास्तव में फॉक्सकॉन के पास इस प्रौद्योगिकी को गढ़ने का कोई अनुभव था ही नहीं। लेकिन, माइक्रोन भारत से जो पेशकश कर रहा है, वह कुछ और है। उसने पेशकश यह की है कि वह गुजरात में चिपों को, ‘एसेंबल, पैकेज तथा टैस्ट’ करने का ही, एक संयंत्र लगाने जा रहा है। ज़ाहिर है कि दूसरी जगहों पर माइक्रोन द्वारा बनाई गयी चिपों पर ही, इन प्रक्रियाओं को पूरा किया जाएगा। माइक्रोन के ऐसे चिप निर्माण संयंत्र अमेरिका में हैं और चीन में भी हैं और उनमें बनी चिपों की सिर्फ़ पैकेजिंग तथा टैस्टिंग भारत में होगी। इसलिए, अगर भारत चिप निर्माण का लक्ष्य लेकर चल रहा है, तो माइक्रोन डील से यह लक्ष्य हासिल होने वाला नहीं है।

इस सौदे से हमारे हिस्से में चिप निर्माण प्रौद्योगिकी के सबसे निचले पायदान का ही काम आएगा। यहां से हम चिप निर्माण के मामले में अमेरिका, चीन, दक्षिण कोरिया या जापान से प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे होंगे बल्कि मलेशिया जैसे देशों से ही प्रतिस्पर्धा कर रहे होंगे। मलेशिया भी इस मामले में हम से ठीक-ठाक आगे है क्योंकि उसके पास इस क्षेत्र में विश्व बाज़ार का 13 फ़ीसदी हिस्सा है। मलेशिया में और अब भारत में भी, इस तरह के संयंत्र लगाना, अमेरिकी कंपनियों की जोखिम-मुक्ति (डी-रिस्किंग) की रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत वे चिप उत्पादन की निचले पायदान की प्रक्रियाएं मलेशिया तथा भारत जैसे देशों में स्थानांतिरत कर देती हैं जबकि अमेरिका में चिप निर्माण की उपरी दर्जे की प्रक्रियाओं की सुविधाएं बढ़ाती हैं।

सब्सीडी की इंतिहा

आइए, अब इस पर भी नज़र डाल लें कि जो माइक्रोन संयंत्र लगाया जाने वाला है, उसमें कितना निवेश होने वाला है और कौन यह पैसा लगाने जा रहा है। प्रस्तावित संयंत्र की कुल लागत 2.75 अरब डॉलर रहने का अनुमान है। इसके लिए भारत सरकार 50 फ़ीसदी सब्सीडी देने जा रही है और गुजरात सरकार भी अपनी ओर से 20 फ़ीसदी और सब्सीडी देने जा रही है। इस तरह माइक्रोन को कुल लागत का सिर्फ़ 30 फ़ीसदी ही लगाना पड़ेगा। इसका मतलब यह है कि माइक्रोन को 2.75 अरब डॉलर के संयंत्र पर 100 फ़ीसदी मिल्कियत हासिल होगी, जबकि इसके लिए उसे सिर्फ़ 0.825 अरब डॉलर का ही निवेश करना पड़ेगा! ईईन्यूज़ यूरोप में इसे ‘सब्सीडी की अति’ कहा गया है।

दूसरे शब्दों में पीएम मोदी की छवि को चमकाने के लिए ही, जिसे कर्नाटक के चुनाव में भाजपा की हार और मणिपुर में लगातार जारी दंगों ने काफी बिगाड़ दिया है, यह पूरा छवि निर्माण का खेल है जिसमें उनकी टीम लगी हुई है। हम इस डील को नज़दीक से देखते हैं तो यही पाते हैं कि चिप असेम्बलिंग तथा टैस्टिंग की निचले स्तर की प्रौद्योगिकी का संयंत्र लगाने के लिए, हम अग्रणी अमेरिकी चिप निर्माण कंपनी को यह भारी सब्सीडी दे रहे हैं और इस सौदे से हमें मिलेगा क्या – अमेरिका तथा चीन में माइक्रोन की चिप निर्माण की शीर्ष प्रौद्योगिकी सुविधाओं में निर्मित चिपों की असेम्बलिंग तथा टेस्टिंग की प्रौद्योगिकी!

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए नियोजन की ज़रूरत

बेशक, भारत अकेला देश नहीं है जो प्रौद्योगिकी हासिल करने तथा संयंत्र लगाने के लिए सब्सीडी दे रहा है। अमेरिका और चीन भी इसके लिए सब्सीडी देते हैं। अमेरिका में, चिप निर्माण तथा दूसरी कोर गतिविधियों को सब्सीडाइज़ करने के लिए 52अरब डॉलर का सरकारी कोष है। चीन में इसके लिए एक राष्ट्रीय फंड है और आम तौर पर बिग फंड कहलाने वाला कोष है (नेशनल इंटीग्रेटेड सर्किट्स इंडस्ट्री डेवलपमेंट इन्वेस्टमेंट फंड) और वह इसमें 73 अरब डॉलर लगा रहा है। लेकिन, ये दोनों ही देश इलेक्ट्रोनिक्स प्रौद्योगिकी के शीर्ष पायदानों के लिए, उन्नत चिप निर्माण उपकरणों, सीएडी टूल्स आदि पर ख़र्च कर रहे हैं और चिपों को एसेंबल करने तथा उनकी टेस्टिंग की सुविधाएं खड़ी करने पर, शायद ही कोई पैसा ख़र्च कर रहे हैं। दूसरी ओर इस क्षेत्र में वे जब ख़र्च करते भी हैं तो बहुत कम ही ख़र्च करते हैं और यह ख़र्च उनके कुल निवेश का एक बहुत छोटा सा हिस्सा भर होता है। याहू फाइनेंस में साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट को उद्यृत करते हुए जो बताया गया है उसके अनुसार, चीन ने 190 फर्मों को 1.75अरब डॉलर की सब्सीडी दी है और चीन की अग्रणी चिप निर्माता कंपनी, एसएमआइसी को इस पूरी राशि में से, क़रीब 20 फ़ीसदी हिस्सा मिला है।

यह निर्विवाद है कि भारत जिसकी चिप निर्माण की गाड़ी पहले ही पीछे छूट चुकी है, उसे अपनी महत्वकांक्षा को बढ़ाने और चिप निर्माण उद्योग में अपना पांव जमाने की ज़रूरत है। लेकिन, कामयाबी के साथ यह करने के लिए भारत को एक योजना की ज़रूरत होगी; यह तय करने की ज़रूरत होगी कि कहां निवेश करें, कितना निवेश करें और कब निवेश करें। बेशक, भारत को पुरानी चाल के नियोजन पर लौटना होगा, जिसे भाजपा-आरएसएस के सिद्घांतकारों ने ‘समाजवाद’ बताकर खारिज कर दिया था। बेशक, हर एक देश अपनी विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की योजना लेकर चलता है कि इसके लिए जनशक्ति को कैसे विकसित किया जाए जो कि प्रौद्योगिकी के विकास की कुंजी है। सिर्फ़ इस चीज़ में दिलचस्पी रखने से काम नहीं चलता कि कौन सी कंपनियां आ रही हैं और वे क्या पेशकश कर रही हैं। इसके बजाए, इसकी योजना ज़रूरी है कि हमारा आगे बढ़ने का रास्ता क्या है और उसके लिए हमें क्या चाहिए? और एक अमेरिकी कंपनी को, संयंत्र पर 100 फ़ीसदी मिल्कियत हासिल करने के लिए, 70 फ़ीसदी सब्सीडी देना, अपनी ज़मीन देना, सस्ते श्रमिक देना और वह भी एक ऐसे क्षेत्र में संंयंत्र के लिए, जिसमें मलेशिया जैसे देश भी हमसे काफ़ी आगे हैं ऐसे में यह प्रौद्योगिकी में निवेश करना हर्गिज़ नहीं है बल्कि यह तो सीधे-सीधे, महामहिम की छवि संवारने की ही जद्दोजहद है।

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