केशव कृपाल महाराज
काशीविश्वनाथ मंदिर में क्या तोड़ा, क्या जोड़ा, क्या उजाड़ा, क्या सजाया यह बाबा विश्वनाथ ही जाने। इसपर बहुत कुछ कहा जा रहा है। इसलिए मुझे कुछ भी नहीं कहना।
लेकिन एक बात बहुत ही चुभती है कि इन कार्यक्रमों में देश के एक भी शंकराचार्य दिखाई नहीं देते। यही दृश्य राममंदिर शिलान्यास और आदि शंकराचार्य की प्रतिमा के अनावरण में देखा गया। किसी के घर विवाह हो और घर के मुखिया को ही छोड़कर रिश्तेदारों की बारात निकाली जाय, यह उचित है?
“अर्ध कुक्कुटी” न्याय से धर्म को आधा तिहाई बांटकर उसे जिंदा नहीं रखा जा सकता। मुर्गी को भला टुकड़े में बांटकर जीवित कैसे रखेंगे? फिर बात वही आ जाती है कि हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व अलग–अलग चीजें हैं।
अब चुभने वाली सब से बड़ी बात।
समारोह में सैकड़ों नामवर संत विद्वानों का समाहार हुआ जिन्हें अब लोग सरकारी संत भी पुकारने लगे हैं। इनमें जिनको मैंने पहचाना स्वामी रामभद्राचार्य, स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती, मोरारी बापू, अवधेशानंद गिरी, श्री श्री रविशंकर, बाबा रामदेव आदि नीचे कुर्सियों पर विराजमान दिखे। सतुआ बाबा के उत्तराधिकारी संतोष दास की तो बात ही क्या! वे परम संतोषी हैं और दास भी एक नंबर के।
माननीय प्रधानमंत्रीजी ने जेपी नड्डा से लेकर नीलकंठ शास्त्री तक राजनीतिक लोगों का चुन चुन कर नाम लिया लेकिन सामने बैठे किसी सम्मानित महात्मा का नाम से संबोधन नहीं किया। जब कि इनमें कुछ लोग पद्म पुरस्कार प्राप्त संत हैं। इसी तरह काशी के विलुब्ध विद्वानों और विभूतियों को भी संबोधन से बाहर रखा।लेकिन टेली प्रॉम्पटर बांचते हुए बनारसी बोली खूब बोली और काशी खंड तथा पुराणों के श्लोक भी एक पर एक सुनाए।
मैं पूछता हूं कि सिर्फ इस एक दिन के लिए दलगत अमले के नामों में कटौती कर संतो विद्वानों के दस–बारह नाम भी पढ़ दिए जाते तो यह मौके के कितना अनुकूल होता। ये संत भी कितने आह्लादित होते जो अपने को सरकारी सुनते–सुनते पक गए हैं।
इसी भाषण में औरंगजेब के समय वीर शिवाजी के उठ खड़े होने का रूपक प्रस्तुत करते हुए आपने स्वयं को शायद शिवाजी से जोड़नेबकी कोशिश की लेकिन काशी में औरंगजेब द्वारा विध्वस्त विश्वनाथ मंदिर के कलंक को मिटाने में न शिवाजी समर्थ हुए न आप।
यह भाषण सुनकर आप को किसी ने शिवाजी कहकर पुकारा या नहीं लेकिन कल शाम से ही संबित पात्रा सहित हजारों ट्रोल कंपनिया विपक्षी दलों को एकमुश्त औरंगज़ेब कह कर चिढ़ाने लगी हैं। आप ही बताइए कि सारे विपक्षी दलों के हिंदू यदि औरंगज़ेब हो जाएंगे तो इससे हिंदुत्व मजबूत होगा या कमजोर?
मेरी समझ से यह चिंता हिंदुत्ववादियों की प्राथमिकता है भी नहीं। अगर राजनीति धार्मिक प्रतीकों पर एकाधिकार दिखाएगी तो विरोधी धर्म के प्रति उदासीन ही नहीं प्रतिक्रियात्मक हो जाएंगे। उन्हें भगवान का वह नाम भी अस्वीकार होगा जिसे आप नारा बनाकर पेश करेंगे।
ध्रुवीकरण की लंबी उम्र नहीं होती। एक दिन सामान्य धरातल पर आना ही होगा। तब हमें धर्म का पक्षाघात बहुत कमजोर कर चुका होगा। याद है कि पहले कई भक्त ’सीताराम’ और ’राधेश्याम’ बोलने को लेकर आपस में झगड़ जाते थे। क्यों कि उनकी भक्ति में परस्पर भिन्नता घर कर गई थी।
मेरा अनुरोध यदि आपतक पहुंचे तो धर्म को धर्माचार्यों के हवाले वापस कर दीजिए। जगदगुरु शंकराचार्यों के नेतृत्व में राष्ट्रीय धर्म सभा हो जो अपना काम करे। धर्म के समावेश ने आपको अलभ्य लाभ पहुंचाया है। बहुत कुछ दिया जिसे आप दूसरी तरह से नहीं प्राप्त कर सकते थे।
धर्म के दोहन से अब धर्म की ऐसी क्षति हो रही है जिसे केवल इमारतें बनाकर रोका नहीं जा सकता। अगर हमारा धर्म ईंट पत्थर में अंटका हुआ होता तो रामजन्मभूमि और विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस के बाद समाप्त ही हो जाता। अब राजधर्म की प्राण–प्रतिष्ठा की भी सोचिए। वैसे भी अभिमान–शून्य और आपा–रहित धर्म ही सच्चा धर्म होता है।
‘दंभं विना यः क्रियते से धर्मः’
—केशव कृपाल महाराज