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यदि गडकरी जी प्रधानमंत्री बने तो क्या बदलेगा?

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       केंद्रीय मंत्रिमंडल में नितिन गडकरी जी को बेस्ट फरफार्मर माना जाता है। अपनी कार्य प्रणाली व व्यवहार से वे पक्ष व विपक्ष दोनों का विश्वास अर्जित करने में सफल रहे हैं। अंधभक्तों को छोड़कर शेष जनता यह मानती है कि यदि गडकरी जी को भाजपा संसदीय दल का नेता चुना जाता तो वे न सिर्फ मोदीजी से बेहतर सरकार चलाते, अपितु देश में आज जैसा अफरातफरी, अनिश्चितता  व तनावपूर्ण माहौल न होता।

       यहां तक तो सब ठीक-ठाक है, लेकिन जब हमारे जेहन में यह सवाल कौंधता है कि,”हम दो हमारे दो” शैली के क्रोनी कैपटिलिज्म नियंत्रित शासन प्रणाली के बरक्स गडकरी का राज क्या कुछ अलग होता? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए गडकरी जी की वैचारिकी व अतीत पर बारीक नजर डालने पर हम पाते हैं कि उनके चिंतन व चिंता के केंद्र में भारत के निर्धन व निम्न मध्यवर्गीय लोग न होकर बड़े औद्योगिक घराने,पूंजीपति और उच्च वर्ग ही पाए जाएंगे।

      देश ने भूतल परिवहन मंत्री के रूप में उनको चहुंओर सड़कों का संजाल बनाते देखा है, अपने अक्सर वायरल होने वाले चर्चित वक्तव्यों में वे बार-बार यह कहते हैं कि सड़कों के निर्माण के लिए उनके पास फंड की कोई कमी नहीं है,वे प्रायः बीओटी माडल की चर्चा करते हैं, प्रायवेट बिल्डर सरकार की गारंटी पर बैंकों से उधार लेकर सड़क बनाते हैं और टोल नाके लगाकर जनता से पैसे वसूलते हैं। इस टोल में बड़े झोल हैं। कहते हैं कि सड़क निर्माण के नाम पर बाजार व बैंकों से लिए गए कर्ज का आकार अर्थात देनदारी लगातार बढ़ती जा रही है,यह आगे आने वाली सरकारों की कमर तोड़ सकती है। 

      यह बात समझ से परे है कि सड़क निर्माण के नाम पर डीजल पर लगने वाले सेस के रूप में अच्छी खासी रकम खजाने में आने के बाद भी बीओटी पर सड़क निर्माण की जरूरत क्यों पड़ रही है ? जब सड़क पर वाहन चलाने पर टोल वसूला जा रहा है,तो फिर वाहन खरीदते समय रोड टैक्स की एकमुश्त वसूली क्यों की जा रही है? सरकार रोड टैक्स किस बात के लिए लेती है? बैंकों की उधारी चुकाने का भार भी अंततः घूम-फिरकर आम जन पर ही पड़ेगा? टोल नाकों के ठेके लेने में भी लेन-देन के बड़े खेल होते हैं, मिल-बांटकर खाने के इस खेल से गडकरी जी वाकिफ न हों,यह कौन मानेगा?

       सबसे पहला सवाल यह उत्पन्न होता है कि अटलजी के समय सड़क निर्माण फंड के लिए डीजल/ पेट्रोल पर प्रति लीटर एक रूपए वसूले जाने की शुरुआत हुई थी,उस समय इसी फंड से पूरे देश में विश्वस्तरीय राष्ट्रीय राजमार्ग बनने शुरू हुए थे? अब इस फंड के आकार व उपयोग की चर्चा क्यों नहीं होती है? क्या सभी सड़कें बीओटी माडल पर बनती हैं या सरकार खुद भी फंडिंग करती है? जब सड़क निर्माण का प्रोजेक्ट बनता है,उस समय टोल वसूली के आशय से अगले दस या बीस सालों तक उस सड़क से गुजरने वाले वाहनों की संख्या का अनुमान लगाकर टोल की दरें निर्धारित कर दी जाती हैं, हम सब देख रहे हैं कि साल दर साल चार पहिया वाहनों की बिक्री में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, अर्थात प्रारंभिक आकलन से कहीं ज्यादा वाहन गुजर रहे हैं, फलस्वरूप पूर्वानुमान से अधिक टोल आ रहा है,फिर जब चाहे तब मनमाने तरीके से टोल की दरें बढ़ाने का क्या औचित्य है? कहीं टोल की झोल झाल में बहुत बड़ा खेल तो नहीं चल रहा है? 

     टोल की दरों में मनमानी वृद्धि से भारी माल वाहनों का भाड़ा बढ़ता जा रहा है, जिसका परोक्ष रूप से प्रभाव जरूरी वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि या मंहगाई के रूप में सामने आता है। विधायकों, सांसदों, केंद्र व राज्य के दर्जा प्राप्त मंत्रियों व वास्तविक मंत्रियों, न्यायाधीशों व वरिष्ठ अधिकारियों के वाहन टोल फ्री श्रेणी में आते हैं। धनाढ्य वर्ग को भी टोल की अधिक दरों से कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन बैंक लोन से नवीन या कार का सपना पूरा करने के लिए सेकेंड हैंड छोटी कार खरीदने वालों के दिल से पूछिए कि उन्हें नेशनल या स्टेट हाईवे पर कार चलाना कैसा लगता है? टोल नाकों पर तैनात दादा पहलवान टाइप कर्मचारियों द्वारा की जाने वाली गुंडागर्दी पर कुछ कहना ही फिजूल है।

        टोल की बेतुकी दरों ने मध्यवर्ग को पूरी तरह दु:खी कर दिया है।प्रति किलोमीटर डीजल व पेट्रोल की खपत पर चुकाए जाने वाले मूल्य और टोल में अधिक अंतर नहीं बचा है, कहीं कहीं तो टोल आगे निकल जाता है। गडकरी जी को इस पीड़ा का तनिक भी एहसास होता तो वे ऐसा ज़ुल्म न करते। जो आदमी एक महकमा पाकर कमजोर आर्थिक स्थिति वालों की लूट पर खुश हो सकता है, यदि पूरी सरकार की कमान मिल जाए तो उनसे किसी तरह की संवेदनशीलता, दया या करूणा की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हांडी के एक चावल से पता लग जाता है कि चावल पक गया या नहीं? टोल टैक्स की मनमानी लूट खसोट से यह साफ निष्कर्ष निकलता है कि गडकरी जी यदि प्रधानमंत्री बने तो अडानी अंबानी की जगह कोई दूसरे धनपति ले लेंगे, क्रोनी कैपटिलिज्म का दबदबा बदस्तूर जारी रहेगा, गडकरी जी मोदीजी की तुलना में थोड़ा मीठा बोल सकते हैं, नीतियों व उनके क्रियान्वयन में किसी तरह के आमूलचूल बदलाव की कल्पना नहीं करनी चाहिए। 

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