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तेरा क्या होगा कालिया…!

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रजनीश भारती

श्रीलंका दीवालिया हो गया। श्रीलंका का क्षेत्रफल 65610 वर्ग किलोमीटर, जनसंख्या 2.2 करोड़, जनसंख्या घनत्व 335 आदमी प्रति वर्ग किलोमीटर, जीडीपी 613370 करोड़ रूपये, प्रतिव्यक्ति आय 3602 डालर, 51 अरब डालर यानी 387600 करोड़ रूपये कर्ज है। और श्रीलंका दिवालिया हो गया।

भारत की जनसंख्या तकरीबन 140 करोड़, क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर, जनसंख्या घनत्व 426 आदमी प्रति वर्ग किलोमीटर, जीडीपी 199.1 लाख करोड़ रूपये, कुल कर्ज 128.41 लाख करोड़ रूपये (2021 तक का आंकड़ा है यह और आज तक का कर्ज देखेंगे तो तकरीबन 140 लाख करोड़ रुपये से ऊपर हो गया होगा) जिसमें 614 अरब डालर यानी 46.4 लाख करोड़ रूपये विदेशी कर्ज है। इसके अतिरिक्त 82 लाख करोड़ रूपये बाजार से लिया है। प्रतिव्यक्ति आय 2313 डालर जो श्रीलंका से भी कम है।

श्रीलंका पर जीडीपी का 111.4% कर्ज और भारत अपनी जीडीपी का 90.6% कर्ज है मगर भारत की आबादी श्रीलंका से 64 गुना बड़ी है जब कि जीडीपी सिर्फ 32 गुना बड़ी। प्रतिव्यक्ति जीडीपी के आधार पर भारत में प्रति व्यक्ति कर्ज श्रीलंका से अधिक है। इस तरह देखा जाए तो भारत श्रीलंका से भी अधिक दयनीय स्थिति में है। जिस तरह श्रीलंका से विदेशी पूंजी एकाएक भागने लगी थी उसी तरह भारत से भी विदेशी पूंजी भाग रही है। एनआरआई तेजी से अपना धन निकाल रहे‌ हैं। बीते दो महीने में सिर्फ कर्नाटक से 317 कम्पनियां छोड़कर चली गईं।

सन् 2006 में हमारे देश पर विदेशी कर्ज 10 लाख करोड़ था, जो 2013 में बढ़कर 31 लाख करोड़ हुआ। यानी, 7 साल में 21 लाख करोड़ रुपए विदेशी कर्ज बढ़ा। 2014 से 2021 तक 31 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 46.4 लाख करोड़, यानी भारत ने साढ़े सात साल में विदेशों से साढ़े पंद्रह लाख करोड़ का विदेशी कर्ज लिया है। यदि इतना कर्ज न लिया होता तो श्रीलंका से पहले भारत कभी का डूब गया होता।

इसके पहले सन 1991 में भारत दिवालिया होते-होते बचा। सन 1998 में रूस दिवालिया हो गया, 2000 से 2020 के बीच अर्जेंटीना दो बार दिवालिया हुआ, सन् 2001 में इक्वेडोर, सन 2003 में उरुग्वे, सन् 2005 में डोमिनिकन रिपब्लिक, सन् 2012 में यूनान (ग्रीस) दिवालिया हो गए। और अब श्रीलंका दिवालिया हो गया।

कारण क्या बताया जा रहा है?

भारत की अमेरिकापरस्त पूंजीवादी दो कारण बता कर रही है-

1– पूंजीवादी मीडिया पहला कारण यह बता रही है कि- चीन ने श्रीलंका को भारी कर्ज के जाल में फंसा लिया है, जिससे श्रीलंका बर्बाद हो रहा है।

इस आरोप के पीछे सच्चाई यह है कि श्रीलंका ने बाजार से 47%, एशियन डेवलेपमेंट बैंक से 13%, वर्ल्ड बैंक से 10%, जापान से 10%, भारत से 2 % तथा अन्य स्रोतों से 3%, चीन से सिर्फ 15%, कर्ज लिया है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि चीन को छोड़कर सबने भारी-भरकम सूद और कठिन शर्तों पर कर्ज दिया है जब कि चीन मामूली शर्त पर सूद विहीन कर्ज देता है। अत: चीन के कर्ज से श्रीलंका के बर्बाद होने का तो सवाल ही नहीं उठता। दूसरी बात यह है कि श्रीलंका के ट्रेज़री सेक्रेटरी महिन्द्रा सिरीवर्धने ने खुद ही खुलाशा किया है कि आईएमएफ से बेलआउट पैकेज न मिलने से श्रीलंका कर्ज की किस्तें नहीं अदा कर पा रहा है। अर्थात दिवालिया हो गया है।

मगर यह नौबत ही क्यों आईं? क्या सिस्टम में ही खोट तो नहीं? इन सवालों की पड़ताल हम आगे करेंगे। मगर जहां तक आईएमएफ से बेलआउट पैकेज का सवाल है, आईएमएफ अमेरिका के कण्ट्रोल में है। जब कि चीन और श्रीलंका की नजदीकियों से अमेरिका चिढ़ा हुआ है, इस कारण उसने श्रीलंका को बेलआउट पैकेज दिए जाने में टांग अड़ाया। अत: श्रीलंका को डुबोने में बड़ी भूमिका अमेरिकी साम्राज्यवाद की है।

2– पूंजीवादी मीडिया दूसरा कारण यह बता रही है
श्रीलंका की सरकार जो फ्री वाली योजनायें चलाकर जनता को राशन, पेंशन, आवास, नमक, तेल, लैपटाप, सायकिल, बिजली आदि मुफ्त में बांट रही थी, उसी के कारण श्रीलंका तबाह होता जा रहा है। चूंकि भारत में भी कई मुफ्त की योजनाएं चलायी जा रही हैं, इसलिए भारत में भी श्रीलंका जैसे हालात पैदा होने वाले हैं।

मगर इसके पीछे सच्चाई क्या है?

दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था में थोड़े से लोगों द्वारा थोड़े से लोगों के लिए थोड़ा सा ही उत्पादन हो सकता है। चूंकि थोड़े से लोगों के मुनाफे के लिए होता है इसलिये थोड़े से लोग ही इस व्यवस्था में खुशहाल रहते हैं। चूंकि थोड़े से मजदूर लोगों द्वारा ही उत्पादन होता है इसलिए बहुसंख्यक जनता बेरोजगार रहती है। चूंकि थोड़ा सा ही उत्पादन होता है इसलिए मंहगाई बढ़ाकर थोड़े ग्राहकों से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाते हैं।

इस व्यवस्था में जो मालिक होते हैं वे काम नहीं करते मगर सारा उत्पादन वही लोग हड़प जाते हैं और जो काम करता है उसे उतना ही दिया जाता है कि वह बमुश्किल जिन्दा रह सके। इस कारण पूंजीवादी व्यवस्था कुछ समयान्तराल पर मंदी की चपेट में आ जाती है। सन् 2008 से ही पूरी दुनियां की पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था भयानक महामंदी की चपेट में फंसी हुई है। उसकी महामंदी अब अन्तहीन महामंदी की चपेट में आ गयी है। बिना विश्वयुद्ध के इस महामन्दी से निकलना मुश्किल है। मगर विश्वयुद्ध लड़ना भी अब पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों के सरगना अमेरिका के बूते से बाहर होता जा रहा है। शक्ति संतुलन उसके पक्ष में नहीं रह गया है।

काश पूंजीवादी व्यवस्था रोजगार देने में सक्षम होती तो यह मंदी की समस्या नहीं आती। चूंकि रोजगार दे नहीं पाते इसलिए जनता की क्रयशक्ति नहीं बढ़ पाती, जनता खरीददारी नहीं कर पाती जिससे बाजार में माल ठसाठस भर जाता है, तब जनता की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए कर्ज देते हैं और विदेशों से भी कर्ज लेते हैं। जिससे बाजार तो चल निकलता है मगर कर्ज और सूदखोरी से जनता और अधिक तबाह हो जाती है। फिर बाजार ठंडा होने लगता है, तब सरकारें घाटे का बजट बनाती हैं और बजट घाटे को पूरा करने के लिए अतिरिक्त नोट छापती हैं। मगर नोट छापने से मुद्रास्फीति बढ़ जाती है जिससे मंहगाई बढ़ जाती है। सरकारें मंहगाई पर कोई नियंत्रण नहीं कर पाती हैं अत: कमजोर देश की सरकारें विदेशी कर्ज लेकर और अमेरिका जैसे मजबूत देशों की सरकारें कमजोर देशों को लूटकर मुफ्त की योजनाएं चलाती हैं। मुफ्त की योजनाओं से जनता को थोड़ी सांस लेने की फुर्सत मिल जाती है मगर मंहगाई उनका गला घोंटने लगती है। मंदी के संकट के दौरान बड़े पूंजीपति लोग बैंकों का दिवाला मारकर बैठ जाते हैं। विदेशी कर्ज की किस्तें अदा नहीं हो पाती हैं। घरेलू कर्ज की किस्तें भी अदा नहीं हो पाती हैं तो बैंक डूबने लगते हैं। तब किसानों आदि के कर्ज माफी के नाम पर सरकारी खजाने से बैंकों को भरा जाता है, मगर इससे भी ज्यादा समय तक राहत नहीं मिल पाती। तब बैंकों को बेलआउट पैकेज दिया जाता है। जब कोई जरिया नहीं बचता तब सरकारी संस्थाओं को बेचना पड़ता है। इससे भी पूरी समस्या हल नहीं हो पाती। नोटबंदी करनी पड़ती है।

सरकारें सबको योग्यतानुसार काम और काम के अनुसार दाम दे देतीं तो निश्चित तौर पर ऐसे संकट आ ही नहीं सकते, मगर मौजूदा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी और अर्धसामन्ती व्यवस्था से ऐसी उम्मीद करना आसमान के तारे तोड़ने की उम्मीद करने जैसा है। मगर सम्मानजनक सुरक्षित रोजगार देना मौजूदा व्यवस्था के वश की बात नहीं।

अत: देश की बरबादी तो मौजूदा व्यवस्था में हो रहे जघन्य शोषण के कारण है, मगर कहा जा रहा है कि फ्री की योजनाओं के कारण है। इस प्रकार बड़े पूंजीपतियों, अर्धसामन्तों और विदेशी साम्राज्यवादियों के कुकर्मों का सारा दोष 80 करोड़ भूमिहीन व गरीब किसानों, गरीब मजदूरों व गरीब बुनकरों पर मढ़ा जा रहा है। ऐसा करके वे कल्याणकारी राज्य के नाम पर मिलने वाली थोड़ी मोड़ी रियायतों को खत्म करना चाहते हैं। मतलब साफ है- वे चाहते हैं कि भारत में राशन कोटे पर राशन, वृद्धावस्था, विकलांग पेंशन, अस्पताल में फ्री दवाई आदि योजनायें बन्द कर दी जाएं। जबकि मौजूदा सरकार 40 लाख करोड़ के बजट में से कल्याणकारी योजनाओं पर बमुश्किल तीन लाख करोड़ रूपये खर्च करती है जबकि इसका तीन गुना से ज्यादा मुट्ठी भर पूंजीपतियों को लुटा दिया जाता है। जब कि कल्याणकारी योजनाएं डूबते को तिनके का सहारा बनी हुई हैं। इसी की वजह से बाजार की थोड़ी मोड़ी रौनक बनी हुई है।

भारत और श्रीलंका की अर्थनीति में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है, सामाजिक ढांचा भी वैसा ही है। श्रीलंका की तरह भारत में बेरोजगारी चरम अवस्था में है, अब भारत सरकार में भी कल्याणकारी योजनायें चलाने की क्षमता नहीं रह गयी है। उसमें कटौती शुरू हो चुकी है। भारत भी श्रीलंका बन चुका है, सरकार के खिलाफ जनता सड़कों पर न उतरे इसके लिए कालेधन की ताकत झोंककर धर्म के नाम पर दंगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। भारतीय इतिहास में रमजान के दिनों में रामनवमी पर कभी दंगे नहीं हुए थे, मगर अब कराए जा रहे हैं। इस रामनवमी पर पूरे देश में दंगे तो सिर्फ 6 राज्यों पर हुए मगर अन्दर ही अन्दर पूरा देश जल रहा है। अपने कुकर्मों को छिपाने के लिए एक धर्म विशेष के खिलाफ नफरत फैलायी जा रही है। जेएनयू में वामपंथी छात्रों पर हमले इसलिए हो रहे हैं कि वह केन्द्र में है। वहां जो घटना घटेगी पूरा देश उसे देखेगा। इसी बहाने देशभर के बुद्धिजीवियों में वामपंथ के विरुद्ध नफरत पैदा करने की कोशिश होती रही है।

इन्हीं परिस्थितियों में हमारे देश से जब विदेशी पूंजी भाग रही है, तो अमेरिकी साम्राज्यवाद जिसने श्रीलंका को डूबने के लिए छोड़ दिया था, वह 56 ईंची सरकार से पूछ रहा है- तेरा क्या होगा कालिया? तो इधर से कालिया गिड़गिड़ा रहा है- हुजूर हमने आप के इशारे पर बहुत दंगे कराये हैं, फूट डाला है, जनता को जनता से लड़ाने में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी है। किसानों के खिलाफ तीन काले कानून लागू करने की भरसक कोशिश किया, किसानों को रौंदा, कोई रोजगार नहीं दिया, बेरोजगारी बढ़ाया, बेरोजगार छात्रों नौजवानों को बेरहमी से पिटवाया, मजदूरविरोधी कानून लागू किया, संविदाकर्मियों को औकात में लाया, हमने लेमोआ, कामकाशा, सिस्मोआ, बेका जैसे कई असमान समझौते करके अपना देश आपके हाथों गिरवीं रख दिया है, हम नाटो का सहयोगी देश बनने को राजी हो गये हैं। हमने अफगानिस्तान में फंसी आपकी सेना को बाहर निकलवाने, चीन को घेरने, लद्दाख में आप की मध्यम दूरी की मिसाइलें तैनात करने के लिए कश्मीर से 370 हटाने के नाम पर कश्मीर में भारी फोर्स तैनात कर दिया था। आप ही के इशारे पर हम सारे पड़ोसी देशों से दुश्मनी कर बैठे हैं, आपका मुनाफा बढ़ाने के लिए हमने बेशुमार मंहगाई बढ़ाई है, हमने आप की हर नीति का पालन किया है, हुजूर हमने आपका कर्ज खाया है। हुजूर हमें बचा लो।

देखिये, बूढ़ा बीमार गब्बर इस बार क्या करता है।

रजनीश भारती
राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा

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