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तमिलनाडु में जो कुछ हो रहा है, वह अवांछित, गवर्नर फंसे विवाद में

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राज कुमार सिंह

देश में राज्यपालों की भूमिका पर विवाद नए नहीं हैं, लेकिन तमिलनाडु में जो कुछ हो रहा है, वह अवांछित है। बिहार के मूल निवासी और केरल काडर के आईपीएस अधिकारी रहे रवींद्र नारायण रवि तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में जिन विवादों का कारण बन रहे हैं, उनसे किसी सकारात्मक परिणाम की उम्मीद नहीं। लंबे समय तक हमने पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच टकराव देखा तो केरल भी बीच-बीच में इसी वजह से सुर्खियों में रहा। केंद्रशासित क्षेत्र दिल्ली में तो सरकार और उप-राज्यपाल के बीच टकराव स्थायी भाव बन चुका है। यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि इसके मूल में राजनीति ही है। केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों के राजनीतिक हित न सिर्फ अलग-अलग, बल्कि अक्सर परस्पर विरोधी भी होते हैं। फिर भी तमिलनाडु का मामला ज्यादा गंभीर है।

विवाद टल सकता था

केंद्र से अलग दल की राज्य सरकारों को राज्यपाल पहले भी असहज करते रहे हैं। राज्य सरकारों ने भी प्रत्युत्तर में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार करने में संकोच नहीं किया, लेकिन तमिलनाडु में जो कुछ हो रहा है, उससे बचा जा सकता था। रवि पुलिस से सेवानिवृत्ति के बाद भी कुछ कार्य-दायित्वों में खरे उतरे हैं, लेकिन तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में वह जो कर रहे हैं, वह अवांछित लगता है।

ध्यान रखना जरूरी है कि तमिलनाडु के मतदाताओं ने जनादेश दे कर डीएमके को सत्ता सौंपी है। राज्यपाल वहां राष्ट्रपति के प्रतिनिधि और संविधान के संरक्षक हैं। अगर दोनों संविधान के दायरे में अपनी भूमिकाओं का निर्वाह करें तो किसी टकराव की गुंजाइश ही नहीं।

आमंत्रण की भाषा

रवि की कथनी-करनी से उठा दूसरा विवाद तो और भी अवांछित है। पोंगल के अवसर पर राजभवन में आयोजित कार्यक्रम के लिए भेजे निमंत्रणपत्र पर उनके लिए तमिलनाडु के राज्यपाल के बजाय तमिझगा आलुनार (तमिझगम के राज्यपाल) शब्द का उपयोग किया गया। साथ ही प्रतीक चिह्न भी बदल दिया गया। स्वाभाविक ही इस पर राज्य में तीव्र प्रतिक्रिया हुई है। सत्तारूढ़ डीएमके ही नहीं, विपक्षी एआईएडीएमके तक ने इस पर विरोध जताया है। इस पर राज्यपाल रवि ने तो अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, पर आश्चर्यजनक रूप से तमिलनाडु बीजेपी की ओर से सफाई आई कि निमंत्रणपत्र की भाषा का फैसला राज्यपाल नहीं करते, न ही उन्हें प्रकाशन से पूर्व उसका प्रूफ दिखाया जाता है। इसका क्या अर्थ निकलता है? आलोचकों का मानना है कि यह सब अनायास नहीं, बल्कि सुनियोजित है और इसका सीधा संबंध राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी की विचारधारा से है। ऐसा मानने की वजह भी है।

शब्दों की व्याख्या भाषाविज्ञानियों का काम है। पता नहीं राज्यपाल को यह काम अपने हाथ में लेना क्यों जरूरी लगा। टकराव के नए-नए बिंदु खोज कर प्रदेश-देश का भला नहीं किया जा सकता। फिर राज्य के तमिलनाडु नामकरण के लिए तो लंबे संघर्ष का इतिहास है।

अब 18 जुलाई को तमिलनाडु दिवस मनाने की डीएमके सरकार घोषणा उसकी क्षेत्रीय भावनात्मक मुद्दों की राजनीति के अनुरूप ही है। दक्षिण भारतीय राज्यों, खासकर तमिलनाडु में क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति नई नहीं है। जब हम यह जानते हैं तो हमें उसमें उलझने के बजाय संभलकर ही चलना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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