रामकिशोर मेहता
आदमी निठल्ले पहले भी होते थे ।आजकल भी होते हैं । बल्कि आजकल तो कुछ ज्यादा ही होते हैं । पहले निठल्ले लोग अड्डेबाजी करते थे। आजकल के लोग अड्डेबाज नहीं होते । वे पढ़े लिखे होते हैं और वे लोग व्हाट्स एप्प समूह में रहते है। उनमें कुछ अड्डे ….. नहीं नहीं मेरा मतलब समूह ऐसे भी होते हैं जिनमें साहित्य होता है। और अड्डेबाज साहित्यकार होते हैं। जैसे पुराने जमाने में चौपालों में हुक्का गुड़गुड़ाया जाता था या फिर काफी हाउस में गोष्ठियाँ हो जाया करती थी , आज भी हो जाती हैं। लोग अपनी अपनी कविता सुनाते । कविता इसलिए सुनाते हैं क्योंकि कविताई सबसे आसान काम होता है।भला हो निराला जी का छंद विधान से ही छुट्टी करवा दी। अब तो कथ्य विधान से भी छुट्टी हो गई।आप कविता में अकविता तक चाहे जो लिख दो। लोग आपको अशोक बाजपेई की कैटेगरी में रख देंगे।अर्थ न समझ में आए तो और भी अच्छा । आप शमशेर, मुक्तिबोध समझे जाओगे। आपका अर्थ एक दम उल्टा भी निकले तो भी कोई बात नहीं लोग आपको आधुनिक कबीर कहेंगे। आपकी कविता उलटबांसी के कद की होगी।
लोग “हुआ हुआ …..नहीं नहीं वाह वाह वाह … कमाल है ….. क्या बात कहीं है” कहते रह जाएंगे।
अगर कविता पर विशेष चर्चा करवा कर कविता को अमर करना चाहते हो तो किसी अक्खड़ और अड़ियल कवि (उसका अक्खड़ और अड़ियल होना आवश्यक है और वह आदमी भी आपका अपना ही होना चाहिए) से उस कविता की आलोचना करवा दो। फिर सारे मूर्धन्य कवि कहानीकार समीक्षक आलोचक नमक का कर्ज अदा करने में जुट जायेंगे। और आपकी वह कविता आदम कद हो जायेगी।