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जब अखबार अपने ग्राहक के दुख में भागीदार नहीं बनें तो फिर ग्राहक भी क्यों  

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पत्रकारिता की दाढ़ में लगा बिजनेस का खून !

कीर्ति राणा 

आज सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला ‘दैनिक भास्कर’ देखा, कभी इंदौर का पर्याय रहा ‘नईदुनिया’ देखा और इन से आगे निकलने की दौड़ में शामिल ‘पत्रिका’ भी देखा। तीनों अखबार शहर की नब्ज जानने और सामाजिक सरोकार का दावा करते हैं लेकिन तीनों ही अखबारों में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी-इंदौर के एडीएम, निगमायुक्त रहे कैप्टन प्रकाशचंद गुप्ता के निधन का समाचार गायब है। क्या इसे मान लिया जाए कि जो शवयात्रा-उठावना-शोक बैठक का विज्ञापन (बिजनेस) देगा उसी से संबंधित समाचार-सूचना प्रकाशित की जाएगी। 

कैप्टन गुप्ता का निधन सुबह हुआ, सोशल मीडिया पर निधन और शवयात्रा के मैसेज चल पड़े थे।सामाजिक सरोकार का दावा करने वाले तीनों अखबारों में निधन का समाचार नदारद । क्या इसे यह मानें कि अखबारों के संपादकों का बाहरी होना, शहर के प्रमुखजनों की जानकारी नहीं होने से ऐसी चूक हुई? 

हर अखबार में रिपोर्टरों की बीट तय है, प्रशासनिक खबरें लिखने वाले रिपोर्टर को कैप्टन गुप्ता के नाम-पद आदि की जानकारी नहीं थी? रिपोर्टर में स्पार्क की कमी मान ली जाए कि सोशल मीडिया पर चल रहे निधन के समाचार से भी उसे नहीं लगा कि कंफर्म कर के अंतिम संस्कार सम्पन्न जितना चार लाईन का सिंगल कॉलम समाचार बना ले। 

सुबह एक-दो घंटे चलने वाली मार्निंग मीटिंग में भी इस तरह की मिसिंग न्यूज पर जवाब-तलब भी नहीं होता ? 

भास्कर ने जब इंदौर में शुरुआत की थी तब शवयात्रा-उठावने की सूचना निशुल्क छापने की घोषणा की थी। आज जितनी राशि में मृत व्यक्ति के दाह संस्कार की रसीद कटती है उससे दोगुनी राशि तो एक कॉलम पांच सेमी के शवयात्रा-उठावने के विज्ञापन के लग जाते हैं। 

मुझे लगता है गिद्ध जिस तरह शव नोचते हैं वही हालत अखबारों में ऐसी सूचनाओं के प्रकाशन को लेकर हो गई है। 

आखिर फिर हल क्या है- 

यही कि चौबीस घंटे जब वॉटसएप, फेसबुक पर सूचनाएं चलती रहती हैं तो क्यों नहीं अखबारों में शवयात्रा उठावने के विज्ञापन का मोह छोड़ कर सोशल मीडिया में चैन सिस्टम से ऐसी दुखद सूचनाओं को वॉयरल करने की दिशा में सोचा जाए। 

अखबारों पर दबाव डाला जाए कि कम से कम शवयात्रा (एक-पांच साइज) के विज्ञापन की न्यूनतम राशि सारे अखबारों में एक समान रखी जाए। 

बहिष्कार करें: शहर के सभी ग्राहक  तीनों अखबार खरीद कर ही अखबार पढ़ रहे हैं जब अखबार अपने ग्राहक के दुख में भागीदार नहीं बनें तो फिर ग्राहक भी क्यों अखबार लें, बहिष्कार क्यों न करें।माना कि अखबार के लिये विज्ञापन जरूरी है लेकिन यह क्या बात हुई कि जिसका विज्ञापन मिलेगा उसी के निधन की खबर भी छपेगी। 

शहर से भर भर कर कमाने वालों कुछ तो अपना सामाजिक सरोकार निभाओ।अखबारों की दाढ़ में खून ऐसा भी ना लगे कि ‘मिसिंग’ वाला विज्ञापन छाप कर हंसी का पात्र बन जाएं।अफलातून रिपोर्टर लिफाफा कल्चर वाला जर्नलिज्म खूब करें लेकिन इस शहर की पहचान बने व्यक्तियों, समाजो, संगठनों के प्रति कुछ अपना सामाजिक दायित्व भी समझें। 

जिन्हें बुरा लगा हो मुझे गालियां दे सकते हैं।

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