मनीष सिंह
बंगले में कुछ धडधडाती बूटों की आवाज आई. गोलियां चली. दरवाजा बजने लगा. पीएम ने खोला, तो कुछ युवा फौजी सामने थे. पीएम ने पूछा.
एक बोला – तुम्हें मारने आये हैं.
पीएम बोले – बैठो, बात करते हैं.
सब बैठ गए. फ़ौजी बोले – ‘आप चीन पर अटैक नहीं करने दे रहे हो. आपको जीने का हक नहीं.
पीएम ने गहरी सांस ली, कहा- देश युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं है.
इतने में सैनिकों का अफसर कमरे में घुसा. सबको बैठे देख उसके गुस्से का पारावार न रहा. चीखा – अब कोई बातचीत नहीं होगी. पिस्टल निकाली, पीएम को गोली मार दी.
उसी शाम विदेशमंत्री को भी एक धार्मिक पंथ के दो युवाओं ने सड़क पर गोली मार दी. 1932 की इस शाम, जापान में प्रजातन्त्र खत्म हो गया.
अगर 1857 की क्रांति सफल हो गई होती. मेरठ से दिल्ली पहुंचे सिपाहियों ने, अंग्रेजों को हराकर, मुगल वंश रिस्टोर कर दिया होता. गवर्मेंट नाना साहब पेशवा, लक्ष्मीबाई वगैरह सम्हाल लेते और सेना, लगभग ऑटोनोमस, मंगल पांडे, बख्त खां जैसे सेनापतियों के अंडर चलती, तो ऐसा ही कुछ जापान में हुआ. 1868 में विदेशियों को भगाकर, मेजी वंश पुनर्स्थापित किया गया. उस स्वतंत्रता युद्ध का नारा था- ‘हमारे राजा को वापस लाओ.’
पर नई गवर्मेंट में राजा, बस नाम का था. सत्ता कुछ एलीट्स के हाथ में थी, सेना पर उनका भी कंट्रोल न था. दिखाने को एक संसद बनी. इसमें रजवाड़ों की ताकतवर राज्यसभा थी. एक ठगवा लोकसभा भी, जिसके चुनाव में वोटिंग, बमुश्किल 1% जनता करती.
राज्यसभा से ही प्रधानमंत्री चुना जाता. जब 1918 में हारा तकाशी पीएम बने, वे लोकसभा से पीएम बनने वाले पहले आम आदमी थे. उसने विद्युत गति से राजनीतिक व्यवस्था बदल दी. वोटिंग राइट लगभग 40% जनता को दिया. लोकसभा में सदस्य बढा दिए.
सरकार में सिर्फ लोकसभा से मंत्री बनाया जाता. वे सेना, इंडस्ट्रीज, और दूसरी एजेंसियों पर हुक्म चलाने लगे. मिलिट्री नाराज, ब्यूरोक्रेसी नाराज, इंडस्ट्री नाराज. तो तकाशी का 1921 में मर्डर हो गया. पर सुधार रुके नहीं. लोकतंत्र खिल रहा था. 1930 का दशक, उथल पुथल का रहा.
लालच बुरी बला. नए नए नेता, सब बड़ा आदमी बनने की हड़बड़ी में थे. सांसदों, मंत्रियों ने जमकर करप्शन किया. बार बार सरकारें गिरती, दुश्मन मिलकर सरकार बना लेते. चुनावों में सत्ता पक्ष धांधली करवाता. बड़ा घटिया चुनावी कैम्पेन, एक दूसरे पर चारित्रिक आरोप.
रिश्वत स्कैण्डल, सेक्स, पतन, रोज एक नया खुलासा. इस लुटेरे लोकतंत्र से जनता जल्द ऊब गयी. उसे लगा- हमने अपने पवित्र राजा, याने मेजी वंश को जो सत्ता दी थी, इन लोगों ने उनसे सत्ता छीन ली है. तो देश के गद्दार नेताओं को हटाना होगा. फिर से राजा को सत्ता दिलानी पड़ेगी. जापान में राजा की गरिमा स्थापित करना, सबसे बड़ी देशभक्ति थी.
नीसो नाम के बुद्धिस्ट साधु ने घूम घूमकर भड़काऊ प्रवचन दिए. जापान भर में उसकी बड़ी फॉलोइंग बनी. उसे मिल्ट्री का फ़ंड, और समर्थन भी था. जनता में देशभक्ति, और नेताओं के खिलाफ नफरत भरी गई..
तो जहां तहां नेताओ की हत्या होने लगी. 1932 की उस शाम, विदेशमंत्री की हत्या में इस साधु के ही फॉलोवर पकड़े गए. और प्रधानमंत्री को, सैनिकों ने मार डाला. अभी सब कुछ न बिगड़ा था.
ज्यूडिशियरी का बिगड़ना बाकी था.
तो जब हत्यारों पर मुकदमा चला, जज साहब ने अपराधियों की कड़ी निंदा की. कहा- हत्या की सजा मौत है. पर ये देशभक्त हैं. राजा की गरिमा बढाने के लिए मर्डर किये हैं.
जज ने सिर्फ कैद दी और नए प्रधानमंत्री ने, सजा चटपट कम्यूट कर दी. अब कातिलों का स्वागत, फूल मालाओं से हुआ. मर्डर, देशभक्ति का नया मार्ग था. बस, राजा की जय बोलकर मारना है. नए पीएम, राज्यसभा से थे, वे भी मारे गए. उनके बाद वाले ने मौत के डर से इस्तीफा दे दिया. अंततः मिलिट्री ने टेकओवर किया. जनरल तोजो नए प्रधानमंत्री हुए.
ये मिलिट्री फासिस्ट सरकार थी. फौज ने फटाफट कण्ट्रोल कर लिया. दरअसल सारा रायता…चुपके उसी ने तो फैलाया था.
दुनिया के लिए दूसरा विश्वयुद्ध 1939 में शुरू हुआ. पर जापान 1930 से लगातार लड़ रहा था, जब उसने चीन के मंचूरिया पर कब्जा किया. अब राजा का साम्राज्य और बढाना था. तोजो ने फटाफट जर्मनी-इटली से समझौता किया, एक्सिस पॉवर का जन्म हुआ.
फिर तो तोजो ने खूब साम्राज्य बढाया. पूरे एशिया में कत्लेआम किये. अंत हिरोशिमा-नागासाकी से हुआ. सरेंडर के बाद, पूरी गवर्मेंट पर मानव अपराधों का मुकदमा चला. तोजो, और सीनियर कैबिनेट मेम्बर्स…फांसी चढ़े.
देश को नया प्रशासक मिला. एक विदेशी जनरल- डगलस मैकआर्थर. जापान 1952 तक अमेरिकी जूतों के तले रहा. इस हश्र की शुरुआत 1932 में हो चुकी थी. जब कोई चिल्लाया था…अब कोई बात नहीं होगी !!