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होठों पर सच्चाई कब थी?

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– मंजुल भारद्वाज 

होठों पर सच्चाई कब थी?
पूरब वालों को इंसान की
कद्र कब थी?

जहां जन्म सबकी
तक़दीर तय करता हो
जहां वर्णवाद
रग रग में बसा हो
जहां छुआछूत
समाज का संस्कार हो
धर्मांधता खून में दौड़ती हो
जहां वर्णवादी क्रूरता
मनुष्य को मनुष्य नहीं समझती हो
वो पूरब वाले इंसान की
क़ीमत जानते हैं?

गंगा कब पावन थी ?
गंगा स्नान से किसके पाप धुले?
वर्णवादी कारबार
धर्मांधता
पाप – पुण्य
स्वर्ग – नरक की
अंधी गह्वर है गंगा !

सदियों से गुरबत में
लोग मर रहे हों
दाने दाने को मोहताज़
बच्चे हों
बलात्कार की चीख
आसमान का कलेजा चीरती हो
वो पूरब कब से
इंसान और स्वाभिमान का
ख़ैर-ख़्वाह है ?

कवि जब सच के बजाए
झूठ लिखे
उसका व्यापार करे
तब बदलाव मर जाता है !

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