सूफ़ी कवि हज़रत अमीर खुसरो होली के सम्बंध में लिखते है;
“आज रंग है, ऐ माँ रंग है री!
अरे अल्लाह तू है हर मेरे महबूब के घर, रंग है री।
आज रंग है..“
गीत के बोल और शब्द सामान्य है। बेहतरी से आपके जेहन में उतर आएंगे। समझिए। ये 1200 के शताब्दी की बात है।
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मुग़लो के काल में होली को “ईद-ए-गुलाबी” कह कर पुकारा जाता।
लाल किले किले के पीछे महफ़िल सजाई जाती थी। धूम धाम से ‘ईद-ए-गुलाबी’ यानी कि होली मनाई जाती थी।
19वीं सदी मध्य के इतिहासकार मुंशी जकाउल्लाह ने अपनी किताब तारीख-ए-हिंदुस्तानी में लिखा कि किस तरह से अकबर अपने नहाने के कुंड को फूलों से तैयार किए गए खास किस्म के रंगों से भरवाया करते थे। इन रंगों से बाद में होली खेली जाती थी। मुगल शासन में होली के अलग रंग तैयार होते। होली में अकबर अपने किले से बाहर आते और सबके साथ होली खेला करते थे।
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अपनी किताब आईना-ए-अकबरी में अबुल फजल लिखते हैं कि बादशाह अकबर को होली खेलने का इतना ज्यादा शौक था कि वह साल भर ऐसी चीजें जमा करते थे, जिनसे रंगों का छिड़काव दूर तक किया जा सके। होली के जश्न का वह पूरे साल इत्मीनान से इंतजार किया करते थे।
इतना ही नहीं शाहजहां ने तो होली को शाही त्यौहार से नवाजा था। आज जहाँ महात्मा गांधी का समाधि स्थल है उस राजघाट पर होली के जश्न का जमघट लगता था मुगलिया काल में।
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मुगल काल के अंतिम शासक शाह जफर ने तो होली को होरी नाम देकर बकायदे गीत लिखा था।
“क्यों मोपे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी।”
उर्दू अखबार जाम-ए-जहांनुमा ने साल 1844 में लिखा कि होली पर जफर के काल में खूब इंतजाम होते थे। टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता और राजा-बेगमें-प्रजा सब फूलों का रंग खेलते थे।
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस अकबर काल में ही लिखा गया था, बहुत से पाठक इस बात से अंजान होंगे। पाठक तो इस बात से भी अंजान होंगे कि अकबर ने बकायदे रामायण और महाभारत का फ़ारसी में अनुवाद भी कराया था। उसका सबसे विश्वसनीय सेनापति एक हिन्दू ही था।
आज की सियासत के अनुसार मुगलिया दौर हिंदुओ के लिए सबसे क्रूर दौर था और विगत 10 वर्षों से हम अमृतकाल में जी रहें है। ऐसा अमृतकाल जहाँ किताबें छपने नहीं दी जाती है और गलती से गर छप गयी तो बिकने नहीं दी जाती है। यकीन न हो तो विपक्ष के नेता राहुल गांधी पर दयाशंकर मिश्रा की लिखी किताब का हस्र उनके मुजुबानी सुन लीजिए। खैर फिर से टॉपिक पर आते है।
दीपावली को भी जश्न-ए-चराँगा का नाम मिला था मुगल काल में। अकबर हिन्दू त्यौहारों को भी बेहद ही धूम धाम से मनाया करता था।
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खैर बाबर और हुमायूं की बात तो नहीं करूंगा मैं पर अकबर के आने के बाद से गंगा जमुनी तहजीब की बिसात बिछनी शुरू हो चुकी थी। हालांकि बाबर भी मजहब से ज्यादा कुर्सी को लेकर ही पजेशिव था वरना इब्राहिम खान लोधी से क्यों जंग लड़ता और उसकी हत्या करता।
अकबर, शाहजहां से लेकर अंतिम मुगलिया एम्पायर शाह ज़फ़र तक को ले लीजिए, सब के सब गंगा जमुनी तहजीब के पैरोकार थे। अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने तो कत्थक नृत्य सीखा था जो हिंदुइज्म की बेहद ही महीन छाप छोड़ता है। नवाब वाजिद अली बेहद ही तल्लीनता के साथ कृष्णलीला का मंचीय प्रस्तुति करते थे।
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रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहेब, तात्या टोपे, बेगम हज़रत महल, कुंवर सिंह, जनरल बख्त खान। इन सारे के सारे क्रांतिकारियों ने एक साथ मिलकर 1857 में अंग्रेजो से लोहा लिया था। आपस में किसी का मज़हब नहीं देखा था। सबने शाह जफर की कमाण्डरशिप में अंग्रेजो से जंग लड़ी थी।
राजाओं और बादशाहों के थिंक टैंक से देखे तो मुग़लिया एम्पायर के दौरान हिन्दू धर्म के साथ तो सब ठीक ही चल था। अगर नहीं भी चल रहा होगा तो भी ऊपर लिखे उदाहरण बताते है कि उस हद की कट्टरता नहीं थी जिस हद की नफ़रत हमें परोसी गयी है।
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एक राजा के चरित्र का अनुसरण उसकी प्रजा करती है। राजा सेक्युलर है तो उसकी प्रजा भी सेक्युलर रहेगी वहीं अगर राजा ही कट्टर निकला तो प्रजा आततायी हो जाएगी।
इतना तो तय था कि चाहे वो मुगलिया सल्तनत के दरमियान हो या अंग्रेजी हुकूमत के दरमियाँ। युद्ध केवल कुर्सी के ही खातिर लड़े गए। वरना न अकबर हिन्दू सेनापति रखते न महाराणा प्रताप के मुस्लिम सेनापति रहते। लेकिन सवाल अभी भी जिंदा है। इतनी कट्टरता, इतनी नफ़रत आई कहाँ से?
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ब्रिटिश सरकार में पदस्थ ए ओ ह्यूम ने अपनी हुकूमत के तत्कालीन वायसराय डफरिन को अपनी एक रिपोर्ट में खुलकर क्रिटिसाइज किया। उन्हें 1857 की बगावत का जिम्मेदार ठहराते हुए खुल कर अत्याचारी बताया। अंजाम तय था। पहले हुकूमत ने उन्हें डिमोशन दिया। बाद में ह्यूम ने खुद रेजिग्नेशन दिया।
सन 1885, एलन ऑक्टोविन ह्यूम ने अपने ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत छेड़कर कांग्रेस की स्थापना करने का निर्णय लिया। आज़ादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारियों साथ जोड़ा। कांग्रेस की स्थापना पूर्ण हुई। शुरुआती तौर पे तो कांग्रेस को ब्रिटिशर्स ने सीरियस ही नहीं लिया। पर जब बाद में कांग्रेस की सभाओं में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ, युद्ध स्तर के खिलाफत की बू आने लगी तो उन्होंने अपनी डिवाइड एंड रूल की पॉलिसी अपनाई।
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सन 1887, भारतीय मूल के ही अपने वफादार सैय्यद अहमद खान को एंटी कांग्रेस मूवमेंट चलाने के लिए उतार दिया। जी हाँ वही सैय्यद अहमद खान जिसने 1875 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी।
एक तरफ कांग्रेस चाहती थी कि इंडियन सिविल सर्विसेज की परीक्षा भारत मे कराई जाए तो दूसरी तरफ सैय्यद अहमद खान अपनी कम्युनिटी यानि मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रहने की हिदायत देने लगे और टू नेशन थ्योरी की नींव रख दी। उन्होंने मुस्लिमो को ये कहकर भड़काना शुरू कर दिया कि ब्रिटिशर्स यदि चले गए तो मुस्लिम खतरे में आ जाएंगे। आने वाले वक्त में जर्मन, फ्रांसीसी और पुर्तगाली आकर भारतीयों पे अत्याचार करेंगे। इसलिए बेहतर यही है कि मुस्लिम एकजुट रहे। ब्रिटिशर्स के नियमो से ही चले।
अंजाम ये हुआ कि उन्होंने 1906 में इंडियन मुस्लिम लीग की स्थापना की और देश में पनप रही नफरत का पहला बुनियादी ढांचे की नींव रखी गयी। ये ढांचा सैय्यद अहमद खान के भड़काऊ भाषणों से बनकर तैयार हुआ था।
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इंडियन मुस्लिम लीग ने नफ़रत को हवा देने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। अंग्रेजी हुकूमत का समर्थन भी उसे इसीलिए मिला हुआ था क्योंकि इंडियन मुस्लिम लीग कांग्रेस के विरोध में बनाई गई पार्टी थी। एक कट्टरपंथी विचारधारा से लबरेज राजनीतिक संगठन।
वायसराय मिंटो के आगे मुस्लिम लीग ने अजीबो गरीब फरमान रखा। मुसलमानों के लिए सेपरेट इलेक्टोरेट की मांग की गई मुस्लिम लीग द्वारा। आपको यकीन नहीं होगा कि मोहम्मद अली जिन्ना तब कांग्रेस के समर्थन और मुस्लिम लीग के विरोध में उतर आया था। सरोजनी नायडू तो जिन्ना को हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्य का आइडल मानने लगी थी। जिन्ना समेत पूरी कांग्रेस का यही मानना था कि मुस्लिमो के लिए सेपरेट इलेक्टोरेट पूरे देश को दो हिस्से में बाँट देगा।
पर अंग्रेज तो अंग्रेज थे। उनको तो फूट डालना था। अंजाम ये हुआ कि मुस्लिम लीग के प्रस्ताव को ब्रिटिशर्स ने कुबूल कर लिया जिससे नफ़रत की चिंगारी के आगे फर्राटा चल गया। मुसलमान अब कट्टर होना शुरू हो चुके थे। एक तलवार के आगे दूसरी तलवार का उठना बाकी था बस।
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दूसरी तलवार उठी 1923 और 1925 से। जब हिन्दू महासभा और आरएसएस की उत्पत्ति हुई। सावरकर और हेडगेवार जो निर्माता थे उनके वैचारिक हाल चाल हिंदुओ के लिए भी ठीक वैसी ही थी जैसी सैय्यद अहमद खान की मुसलमानों के लिए। पहली तलवार का दूसरी तलवार स टकराव शुरू हो चुका था। अबकी बार हिंदुओ को खतरे का एहसास कराया जा रहा था। उनके मन में मुसलमानों के खिलाफ नफरत के बीज रोपे जा रहे थे। प्रक्रिया वही थी। ब्रिटिश हुकूमत की चाटुकारी और पैरोकारी।
ब्रिटिश हुकूमत की डिवाइड एंड रूल पॉलिसी ने कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ मजहबी कट्टरवाद के एजेंट खड़े किए थे। मुस्लिम लीग हो या संघ-हिन्दू महासभा, उन्होंने आज़ादी के लिए लड़े जा रहे कांग्रेस के हर आंदोलनों से दूरी बनाकर उसका विरोध किया। जब 1942 भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी अंग्रेजी वायसरायों से आंदोलन रोकने की युक्तियों का डिस्कस कर रहे थे। सावरकर ब्रिटिश सेना में भारतीयों की भर्तियां कर रहें थे। उनकी कलई तब भी खुली जब बंगाल में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने गठबन्धन कर के चुनाव लड़ लिया। टू नेशन थ्योरी के विचार सावरकर ने भी सैय्यद अहमद खान के जैसे ही ब्रिटिश हुकूमत को दे रखा था।
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इतने लंबे चौड़े पोस्ट का यही यथार्थ है कि कांग्रेस की विचारधारा के विरोध में जो भी दल खड़ा हुआ उसका लक्ष्य नफ़रत की बुनियाद पर सत्ता हासिल करने का था। दक्षिणपंथी विचारधारा के लहर से निकला एक एक नेतृत्व मजहबी कट्टरता को हवा देने का काम किया। आप इतिहास उठा के देख लीजिए कि सावरकर ने तिरंगे का विरोध किया वो भी इसलिए कि उसको देश मे भगवा ध्वज चाहिए था। संघ ने 2002 तक अपने दफ्तर में कभी तिरंगा नहीं लहराया।
वर्तमान का नेतृत्व भी मजहबी कट्टरता को आधार बनाकर विगत 10 सालों से सत्ता पर काबिज है। नफ़रत को बुनियाद बनाकर अपना विशाल साम्राज्य खड़ा किया हुआ है। देश का हस्र आप सब देख ही रहे है।
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सावरकर और संघ की विचारधारा के पैरोकार अपने मज़हब के हितैषी जरूर होंगे पर कभी मुल्क के हितैषी नहीं हो सकते। औवेसी जैसों ने मुस्लिमो में कट्टरता भरने से कभी खुद को पीछे नहीं रखा। दोनों के की ही सामाजिक सोच इस हिंदुस्तान के सरजमीं में अमन के लिए बहुत बड़ा खतरा है। दोनों ही समाज अपनी हैशियत के अनुसार कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ है। ज्यादा डीटेल में अब और नहीं लेकर जाऊंगा। उम्मीद है इतना समझने के लिए काफ़ी है कि इस अमनपसंद मुल्क की तासीर में;
ये नफरत आई किधर से ?
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