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जीडीपी : कहाँ जाती है 75% वृद्धि?

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सुधा सिंह

अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी ने पूछा है :
सकल घरेलू उत्पादन में 7.5 प्रतिशत वृद्धि की क्या उपयोगिता है, जब 75 प्रतिशत वृद्धि हमारी आबादी के एक प्रतिशत हिस्से के पास चली जाती है?
इस पर तीन साल पहले की अपनी एक टिप्पणी का ध्यान आया है :
धनकुबेरों के बिना दुनिया बेहतर होगी :
‘द इकोनॉमिस्ट’ के रेयान एवेंट ने ‘द वेल्थ ऑफ़ ह्यूमंस’ में लिखा है कि बिल गेट्स की प्रतिभा और प्रयास के बिना बिल गेट्स की संपत्ति की कल्पना असंभव है, लेकिन यह कल्पना करना बहुत आसान है कि आधुनिक अमेरिकी समाज में बिल गेट्स के अलावा कोई और उनकी ही तरह संपत्ति पैदा कर ले, और इसकी तुलना में यह कल्पना करना तो बहुत मुश्किल ही है कि बिल गेट्स किसी और देश-काल में बिल गेट्स जैसी संपत्ति अर्जित कर लें, मसलन- 17वीं सदी के फ़्रांस में या आज के सेंट्रल अफ़्रिकन रिपब्लिक में.
प्रधानमंत्री मोदी का अनुरोध है कि ‘वेल्थ क्रिएटरों’ को शंका की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए. कुछ आँकड़ों को देखते हैं. ऑक्सफ़ैम के मुताबिक 2017 में पैदा हुए धन में से देश के एक फ़ीसदी शीर्ष के धनिकों के पास 73 फ़ीसदी गया, जबकि आबादी के आधे (कमाई के हिसाब से निचले 50%) हिस्से यानी क़रीब 67 करोड़ की संपत्ति में सिर्फ़ एक फ़ीसदी की बढ़त हुई.
सबसे धनी एक फ़ीसदी के पास देश की संपत्ति का 58 फ़ीसदी है. एक बड़े कपड़ा कंपनी के बड़े अधिकारी की सालभर की कमाई के बराबर कमाने में एक ग्रामीण मज़दूर को 941 साल लगेंगे. ऑक्सफ़ैम की प्रमुख निशा अग्रवाल का कहना है कि अरबपतियों की संख्या में तेज़ बढ़त बढ़ती अर्थव्यवस्था का सूचक नहीं है, बल्कि एक असफल होते आर्थिक तंत्र का लक्षण है.

इस चर्चा में सार्वजनिक बैंकों के क़र्ज़ लेकर बैठने, नियमों की धज्जियाँ उड़ाने, नैतिकता को ताक पर रखने की धनकुबेरों की ख़ासियतों को छोड़ देते हैं. यह भी छोड़ देते हैं कि कंपनी घाटे में हो, तब भी उनकी संपत्ति बढ़ जाती है, तबाह कंपनी नीलाम हो, तब भी उनकी माली हालत पर असर नहीं होता और उनकी एक कंपनी की गड़बड़ी का असर उनकी उनकी दूसरी कंपनी पर नहीं होता.
भारत के साथ सबसे भारी लोकतंत्र होने का दावा करनेवाले अमेरिका में तीन सबसे धनी लोगों के पास वहाँ की निचली 50 फ़ीसदी आबादी (क़रीब 16 करोड़) के बराबर धन है. अमेरिकी सेंसस ब्यूरो के अनुसार, 4.60 करोड़ यानी 15 फ़ीसदी अमेरिकी ग़रीबी रेखा से नीचे बसर करते हैं. हमारे देश में तो यह तय ही नहीं हो पाया है कि ग़रीबी रेखा क्या है.
नोमी प्रिंस ने एक लेख में लिखा है कि 21 सदी के गिल्डेड एज में विषमता के स्वरूप को समझने के लिए संपत्ति और आय के अंतर तथा इनमें से हरेक से पैदा होनेवाली विषमता को समझना होगा. इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉलिसी स्टडीज़ के फ़ेलो और ‘द केस फ़ॉर अ मैक्सिमम वेज’ के लेखक सैम पिज़्ज़ीगाटी के एक लेख का शीर्षक ही है- ‘धनिकों के बिना यह दुनिया एक बेहतर जगह होगी.’
इस लेख में उन्होंने धनिकों द्वारा दुनियाभर में ख़रीदे गए आलीशान भवनों (जो भूतहा मुहल्लों में बदल गए हैं), प्राइवेट जेटों (1970 से 2000 के बीच इनकी तादाद दस गुनी बढ़ी है), यॉटों और घरों के कार्बन उत्सर्जन तथा चैरेटी के तमाशे का विवरण दिया है.
फिट्ज़ेराल्ड के ‘द ग्रेट गैट्स्बी’ से अक्सर उद्धृत होनेवाली पंक्ति इस संदर्भ में बहुत अर्थपूर्ण है :
बहुत धनी लोगों के बारे में तुम्हें बताता हूँ. वे तुमसे और मुझसे अलग हैं.’

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