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संसद में महिलाओं की स्थिति- कहां पहुंची ?

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कुमुदिनी पति 

आज देश में महिला सशक्तिकरण का आलम यह है कि 18वीं लोक सभा में महिलाओं का प्रतिशत 78 यानी 14.4% से घटकर 74 यानी 13.6% रह गया है। दूसरे, महिलाओं ने इस बार पिछ्ले आम चुनाव की अपेक्षा वोट डालने में कम दिलचस्पी दिखाई है। 2019 में 67.2% महिलाओं ने वोट डाला था, और 2024 में यह घटकर 65.78% रह गया, जबकि पंजीकृत महिला वोटरों की संख्या 7.5% बढ़ी थी। इस बार के आम चुनाव 2024 में 8,360 प्रत्याशी अपना भाग्य आज़मा रहे थे, पर हैरानी की बात है कि 8 दशक होने को हैं, फिर भी महिला प्रत्याशियों की संख्या केवल 797 थी, यानी 10% से भी कम।

यह उस समय हुआ जब देश में महिलायें सबसे अधिक परेशानी झेल रही थीं, और उनपर सबसे ज़्यादा अत्याचार हो रहे थे। आखिर इसके पीछे क्या कारण है? यह आम तौर पर देखा गया है कि महिलाओं के जीतने की सम्भावना और संसद में उनके द्वारा प्रभावकारी हस्तक्षेप पर राजनीतिक दलों को शंका रहती ही है, जबतक वे किसी राजनेता की बेटी, बहू या पत्नी न हो, यानी कंट्रोल में न हों।और जब पक्ष-विपक्ष में कांटे की टक्कर होती, तो किसी दल को एक भी सीट गंवाना भी भारी लगता है। फिर, महिला वोटरों में भी एक किस्म की ऊब पैदा हो गयी कि “जो होना है होगा- हमें क्या लाभ?”

महिलाओं का राजनीतिकरण ज़रूरी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वोटरों को लुभाने में उन्होंने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी है- पासपोर्ट से लेकर वैक्सीन और चावल की बोरी तक, हर जगह उनका चमकता चेहरा कह रहा था- “सब मोदी की देन है”। सबसे बड़ा समूह, जिसको मोदी ने आसानी से अपने मज़बूत वोट बैंक में बदलने की सोची थी, वह था महिला वोटरों का समूह। हमारे देश में करीब 48% आबादी औरतों की है- लगभग आधी आबादी- और दुर्भाग्य से उनका बहुत कम राजनीतिकरण हुआ है, और उनकी ज़िंदगी के मसाइल भी राजनीति के केंद्र में नहीं रहे हैं; हम यह नहीं कह रहे कि वे अपने हकों को पाने के मामले में उदासीन हैं, बल्कि इस बात पर ज़ोर देना चाहते हैं कि उन्हें आज भी देश के कानून, देश की अर्थनीति, स्वास्थ्य नीति, शिक्षा नीति, पर्यावरण-सम्बंधी नीति, आदि के बारे में अनभिज्ञ या निरपेक्ष रखा गया है।

महिला आंदोलन ने उनके मुद्दों को उठाया तो है पर राजनीतिक सवाल बनाने के बजाए उन्हें सेक्श्नल मुद्दे बनाये रखा।उदाहरण के लिये 2023 में संयुक्त नारी आंदोलन के द्वारा महिला आरक्षण विधेयक पर एक अभियान शुरु किया गया, जिसे महुआ मोइत्रा और मालिनी भट्टाचार्या जैसे सांसदों का समर्थन भी मिला। निर्णय लिया गया कि सभी संसद सदस्यों से समर्थन मांगा जयेगा, और महिला संसदों से अभियान को सक्रिय समर्थन देने को कहा जायेगा।पर बीच राह में आंदोलन को ठप कर दिया गया।शायद पैरेंट रजनीतिक दलों की ओर से हरी झंडी नहीं मिली। नतीजा था कि भाजपा ने नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 को जैसे-तैसे पारित करवाकर आधी आबादी के भविष्य को अगले 7-8 वर्षों तक के लिये फ्रीज़ कर दिया। हम आलोचना ही करते रह गये।

कहां गुम हो जाते हैं औरतों के मुद्दे?

दूसरी ओर, महिलाओं के जीवन से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण सवाल किसी दल के द्वारा चुनाव से पहले या चुनाव अभियान में मज़बूती से नहीं उठाए गये…। सबसे अहं सवाल था संघर्षरत महिलाओं पर दमन और उनकी सुरक्षा का प्रश्न! फिर घरेलू बजट का पूरी तरह से बिगड़ जाने के चलते औरतों के पोषण में कमी पर अध्ययन कर उसे सामने लाना चाहिये था; यह न हो सका।आखिर जब दाल-तेल और सब्ज़ियों के दाम बढ़ेंगे तो औरतें ही अपने खाने में कमी करके बचत करेंगी। ऐसे में अनीमिया और अगली पीढ़ी में कुपोषण को कैसे रोका जा सकता है? सरकार इन पर काम करने का ढोंग आखिर क्यों करती है?

गरीबों के घर जो 5 किलो अनाज आता भी था उसको तौलने पर कम निकलता था। कई घरों में उसे बेचकर अन्य ज़रूरी सामान खरीदना पड़ता है। फिर वह भी अधिकार के तौर पर नहीं बल्कि खैरात के रूप में दिया जाता है-जब चाहे तब बंद कर दिया जायेगा।कोविड के समय की अव्यवस्था और वैक्सीन के कुप्रभाव पर भी कम चर्चा हुई, जबकि यह मानव जीवन से खिल्वाड़ की बात थी। मध्यम वर्ग तो आर्थिक रूप से अधिक तबाह हो रहा था।इसलिये, बिना किसी अभियान के भी, महिला वोटरों की नाराज़गी इस बार दिखी।एक प्रश्न रह जाता है।क्या औरतों की गोलबंदी करके उनको देश में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनाया गया होता तो भाजपा को 240 सीटें भी मिल पातीं? शायद नहीं! हम इस कार्यभार को क्यों नहीं उठाते?

शाहीन बाग से सीखें

अगर किसी आंदोलन की चर्चा की जानी चाहिये और उससे सीख लेनी चाहिये- जिसे औरतों ने चलाया था- और जिसने सत्ता की चूलें हिला कर रख दी थी, वह सीएए-एनआरसी के खिलाफ देश में चला 101 दिनों का आंदोलन था। उसने सरकार ही नहीं, बल्कि मर्दवादी समाज को भी झकझोर दिया था- पहली बार पर्दानशीन, बुज़ुर्ग घरेलू औरतें सारी-सारी रात सड़कों पर बैठीं और जवान लड़कियों ने बंदूकधारी पुलिस का डटकर मुकाबला किया। कई तो जेल भी पहली बार गयीं। सरकार के इरादों पर पहली बार इतनी सख्ती से सवाल उठे और औरतों ने अपने दम पर सत्ताधारियों की नींद हाराम कर दी- यह महिला ऐसर्शन की एक मिसाल थी-स्वत:स्फूर्त और दमदार! आश्चर्य की बात है कि पूरे चुनाव अभियान में उन औरतों के ऊपर ढाये गये ज़ुल्म की चर्चा तक न थी।

दूसरा महत्वपूर्ण आंदोलन जो 18 माह चला, और शुद्ध रूप से राजनीतिक आंदोलन था, वह महिला पहलवानों का संघर्ष था।क्योंकि उत्पीड़क भाजपा का सांसद और 38 अपराधिक मुकदमों में लिप्त बृजभूषण शरण सिंह था, जिसका 7 विधान सभा सीटों पर दबदबा बना हुआ था, और जिसे बचाने के लिये दमन के सारे हथकंडों का इस्तेमाल किया गया। पर आंदोलन को एक हद तक का प्रचार और आंशिक सफलता मिली।

यद्यपि सिंह को डब्लूएफआई के अध्यक्ष पद से हटाया गया, उसे कोर्ट से अंतरिम जमानत मिल गयी, और उसके बेटे को कैसरगंज से भाजपा का टिकट मिला; और उसे जीत भी हासिल हुई। सोचने की बात तो यह है कि कांग्रेस के अलावा किसी राजनीतिक दल ने इस पर कारगर हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? और बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों में से एक- बृजभूषण- के प्रभाव वाले क्षेत्र में व्यापक प्रचार अभियान क्यों नहीं चलाया गया? कैसरगंज, श्रावस्ती-बलरामपुर, बस्ती, अयोध्या, गोंडा, बहराइच में से कैसरगंज में उसका बेटा करण भूषण सिंह 1 लाख वोटों से अधिक मार्जिन से जीता, और गोंडा व बहराइच में भी भाजपा की जीत हुई। क्या इसे रोकने का प्रयास नहीं होना चाहिये था? कोई दमदार महिला प्रत्याशी को भी लड़ाने की बात सोची जा सकती थी।

भाजपा से रूठीं महिलायें

लगता है कि 2024 के आम चुनाव में आखिर औरतों का वोट भाजपा की ओर पहले की तरह नहीं गया? 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल महिला सांसदों (78) में से 41, यानी 53% भाजपा से थीं, जबकि 2024 की लोकसभा में कुल महिला सांसदों (74) में से केवल 31, यानी 42% भाजपा से हैं। ये अजीब बात है कि जबकि पिछ्ली बार भाजपा ने 56 महिला प्रत्याशियों को उतारा था, इस बार अधिक महिलाओं को, 69 को टिकट मिले थे।सबसे बड़ी बात तो यह कि भूतपूर्व और निवर्तमान महिला एवं बाल विकास मंत्री दोनों ही बुरी तरह चुनाव हार गयीं। इन्हें महिला समुदाय ने पूरी तरह खारिज कर दिया।

आधी आबादी को बेवकूफ बनाने के लिये लायी गयी उज्जवला योजना, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओं स्कीम, स्वच्छ भारत योजना के तहत शौचालय निर्माण, 6 माह का मातृत्व अवकाश, म.प्र लाडली बहना योजना, राम मंदिर निर्माण आदि, यहां तक कि मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति दिलाने का श्रेय भी सरकार ने बटोरना चाहा, क्योंकि यह अल्पसंख़्यकों के भी एक हिस्से को तोड़ने वाली रणनीती साबित हो सकती थी।पर कुछ भी काम नहीं आया।

इतना ही नहीं, भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में शामिल महिला योजनाओं के वायदों का भी असर नहीं पड़ा।लखपति दीदी से लेकर महिला शौचालयों, महिला हास्टल, क्रेच सुविधा, अनीमिया निवारण, ब्रेस्ट कैंसर, सर्वाइकल कैंसर व आस्टियोपोरोसिस का बेहतर उपचार, मार्केट तक औरतों की पहुंच बढ़ाना, शक्ति डेस्क और स्पोर्ट्स में महिलाओं को प्रोत्साहन की बातों को महिलाओं ने जुमलों के अलावा कुछ न समझा- ठीक वैसे ही जैसे वे उज्ज्वला स्कीम और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की सच्चाई को वे बेहतर समझ चुकी थीं। इस बार के वायदों में ये ज़रूर गायब था कि औरतों पर अत्याचार करने वालों के संग क्या सख्ती होगी।

राम मंदिर के नाम पर लाखों घरों में औरतों ने दिये ज़रूर जलाये थे, फिर भी अयोध्या के ‘रामलल्ला ने मोदी की पार्टी को अपना आशीर्वाद क्यों नहीं दिया?’ क्या आटा-दाल-तेल-गैस के भाव, बेटियों की सुरक्षा का सवाल और घर के बच्चों का नौकरी बिना दर-दर भटकना औरतों में सत्ताधारी दल के प्रति निराशा पैदा कर चुका था और मंदिर पर भारी पड़ गया? और क्या इस सर्वव्यापी निराशा ने भक्तों के घरों में भी औरतों में उदासीनता को जन्म दिया? क्या यह महसूस किया गया कि आखिर भाजपा की महिला नेता भी औरतों का दुख-दर्द क्यों नहीं समझ रही थीं-बल्कि पार्टी के नेताओं की हां में हां मिला रही थीं? क्या उन्हें सबक सिखाना ज़रूरी हो गया था?

महिलाओं को सबसे अधिक झेलना पड़ा

फिर, महिलाएं जिन सवालों को लेकर सबसे अधिक परेशान थीं, उनको हल करने में मोदी सरकार पूरी तरह विफल रही- चाहे वह औरतों पर बढ़ती हिंसा हो, खाद्य सामग्री के बढ़ते दाम हों, गैस की कीमत हो या फिर बच्चों की बेरोज़गारी। देश में औरतों पर हिंसा करने वालों का महिमामण्डन और संरक्षण ( कठुआ काण्ड, कुलदीप सिंह सेंगर केस, बिल्किस बानो केस के अपराधी, हाथरस काण्ड के अपराधी और दोषी पुलिस, बृजभूषण सिंह) देश भर की महिलाओं के बीच यह संदेश पहुंचा चुका था की अब सर के ऊपर से पानी जाने लगा है।उत्तर प्रदेश में लगातार दलित महिलाओं के साथ बढ़ता अत्याचार भी भारी पड़ रहा था, सो दलितों में आक्रोश था।

जब 2020 में हाथरस कांड हुआ, तब तक सारी हदें पार हो चुकी थीं- 2015-2020 के बीच दलित महिलाओं पर बलात्कार के मामलों में 45% इज़ाफा हो चुका था। किसान परिवार की औरतें भी देख चुकी थीं कि मोदी सरकार कैसे उनकी रीढ़ तोड़ने के लिये तीन कृषि कानून लाने के लिये उत्तवली थी। फिर, आदिवासी जनता के बीच, जहां औरतें मर्दों के संग श्रम में बराबर की भागीदार होती हैं, यह संदेश पहुंच गया था कि उनकी ज़मीन, जल और जंगलों को अपने मित्रों की बड़ी कम्पनियों और हवाई अड्डों के लिये उनसे छीना जाता रहेगा; और अब, जब अदालतें भी बिक चुकी है, उनके पास राहत पाने का कोई रास्ता भी बचा नहीं रह गया था।ये महिलाएं आखिर भाजपा को कैसे वोट देतीं?

साम्प्रदायिक प्रचार से निराशा का मुकाबला न कर सके

निराश औरतों के एक हिस्से के गुस्से को शांत कराने की कोशिश हुई- मध्यम वर्गीय औरतों को भजन मंडलियों में गोलबंद करके उनके विचारों को दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित किया गया। उनमें लगातार असुरक्षा का भाव पैदा किया जाता रहा।ऐसी महिलाएं ही दंगों में सक्रिय होती हैं, बाबाओं की शरण में जाती हैं और सैकड़ों की संख्या में मोदी के दिया जलाओ-थाली बजाओ टीम की सदस्य बनती हैं। उन्हें ब्रेनवाश कर मुसलमान और दलित से घृणा करना भी सिखाया गया। कुछ हद तक इसका प्रभाव भी पड़ा और यह भी सच है कि जैसे-जैसे आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा बढ़ती जा रही है, बाबाओं और धर्म की बात करने वालों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। पर यह कब तक चल सकता है? बात करने पर मालूम होता है कि इस बार, लाख कोशिशों के बावजूद औरतों पर मोदी का पुराना मैजिक चला नहीं। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि अयोध्या से भाजपा हारी; बाद में हुए उपचुनाव में भी वह बद्रीनाथ में हार गयी।

संसद में महिलाओं की स्थिति-क्या करें?

नारी शक्ति की बात की जाये तो एआईटीएमसी ने एक मिसाल कयाम की है; उसने 12 महिलाओं को टिकट दिये और इनमें से 11 ने जीत हासिल की। संसद में इनकी 38% महिला सांसद हैं। और सांसद महुआ मोइत्रा ने संसदीय बहसों के मामले में नया किर्तिमान स्थापित किया। दलों की बात करें तो अभी कांग्रेस की महिला सांसदों की संख्या 6 से बढ़कर 13 हुई है। भाजपा की भी इतनी ही हैं। आम आदमी पार्टी ने एक भी महिला को टिकट नहीं दिया और उसका सांसद स्वाति मालीवाल के साथ व्यवहार किसी भी सूरत में सही नहीं था।

वाम दलों का इतिहास भी बहुत अच्छा नहीं रहा है। पिछ्ले 10 सालों में इनकी एक भी महिला सांसद जीत कर नहीं आयी।सीपीआई ने एक महिला नेता ऐनी राजा को लड़ाया भी तो वायनाड में राहुल गांधी के खिलाफ, जो इण्डिया गठबंधन के साथी हैं। इसका गलत संदेश गया। समाजवादी पार्टी से 12 में 4 महिला सांसद जीती हैं, डीएमके से 3/3, जेडीयू और एलजेपी से 2-2, आरजेडी, एनसीपी, टीडीपी आदि से 1-1 महिला सांसद, बीजेडी से 11 जीतकर आईं और सीपीएम, सीपीआई और सीपीआई (एमएल) से कोई महिला सांसद जीतकर नहीं आईं। जेएमएम से कल्पना सोरेन जीतकर आईं, जबकि उनके पति जेल में थे।इण्डिया ब्लाक को अब ज़रूर विचार करना होगा कि और अधिक महिलाओं को कैसे दल में जगह दें और अपने चुनाव क्षेत्र तैयार करने के लिये कैसे प्रोत्साहित करें, ताकि 2027 आते-आते वे महिला आरक्षण का पूरा लाभ उठाने की स्थिति में हों।(

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