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जजों की नियुक्ति का विवाद, कहां फंस रहा पेंच

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वेदप्रताप वैदिक

भारत की अदालतों में जजों की नियुक्ति को लेकर आजकल काफी विवाद चल पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के कलीजियम ने जिन नामों को सरकार के पास भेजा है, उनकी नियुक्ति पर मोहर लगाने के बजाय वह उन्हें दबाए बैठी है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लिए 20 प्रस्तावित नामों में से कई लगभग डेढ़ साल से अटके हुए हैं। लेकिन सरकार उन पर न तो ना बोल रही है, और न ही हां बोल रही है। वर्तमान कानून व्यवस्था में सरकार का कर्तव्य इतना ही है कि या तो वह प्रस्तावित नामों को न्यायाधीश की शपथ दिला दे, या कुछ नामों पर पुनर्विचार के लिए वापस भेज दे। सरकार ने 20 में से 19 नामों को वापस कर दिया है।

विवाद का नया संवाद
प्रस्तावित नामों पर मोहर लगाने में बहुत देरी न हो, इस दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल समय-सीमा भी बांध दी थी। प्रस्तावित नामों पर गोपनीय जांच, पुनर्विचार और उनकी शपथ भी तीन-चार माह तक पूरी हो जानी चाहिए। अगर कुछ नामों को सरकार पुनर्विचार के लिए वापस भेजती है और कलीजियम उन्हें दोबारा भेज देता है तो सरकार को उन्हें स्वीकार करना ही पड़ेगा, ऐसी व्यवस्था है। लेकिन इसके बावजूद सरकार कई नामों पर लंबे समय से खर्राटे भर रही है। जजों की कमी के कारण करोड़ों मामले हमारी अदालतों में वर्षों तक लटके रहते हैं। इसी गतिरोध पर कानून मंत्री किरेन रिजिजू और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एस.के. कौल के बीच काफी गर्म संवाद छिड़ गया है। रिजिजू ने कहा कि यह बोलना बिल्कुल गलत है कि सरकार प्रस्तावित नामों की फाइलों को दबाकर बैठ गई है। यदि आपको फाइल नहीं भेजना है तो मत भेजिए। आप खुद जजों को नियुक्त कर दीजिए। रिजिजू ने यह भी कह डाला कि कलीजियम सिस्टम संविधान सम्मत नहीं है। न्यायमूर्ति कौल ने जवाब में कहा कि किसी उच्च पदस्थ व्यक्ति के मुंह से ऐसी बात शोभा नहीं देती।

कलीजियम बनाम सरकार
वास्तव में कलीजियम सिस्टम की शुरुआत 1993 से हुई थी। उस समय यह तय हुआ था कि सर्वोच्च न्यायाधीश और अन्य चार वरिष्ठ न्यायाधीश मिलकर जिन्हें चुनेंगे, उन्हें सरकार सुप्रीम और हाई कोर्टों में न्यायाधीश की शपथ दिलाएगी। यह सिस्टम 2014 तक चलता रहा, लेकिन बीजेपी सरकार ने इस सिस्टम की कई कमियों को देखते हुए इसमें सुधार की कोशिश की। इस दृष्टि से उसने संविधान में 99वां संशोधन लाकर एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना की, ताकि जजों की नियुक्ति पारदर्शी ढंग से हो सके। कलीजियम सिस्टम में सारा फैसला सिर्फ पांच न्यायाधीश करते हैं, लेकिन इस आयोग में 6 सदस्य होने थे। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में बने इस आयोग में सुप्रीम कोर्ट के दो जज, कानून मंत्री और दो देश के महत्वपूर्ण व्यक्तियों को रखा जाना था। इन दो बाहरी लोगों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और सीजेआई को मिलकर करनी थी। लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की मान्यता थी कि इस नई व्यवस्था के जरिए कुल मिलाकर सरकार अपने मनपसंद कानूनविदों को उस पर थोपती रहेगी।

सुप्रीम कोर्ट को सरकार की मंशा पर जो शक है, वह बिल्कुल निराधार नहीं है। सरकारें अपने मनपसंद वकीलों को जज बनाने और अपने मनपसंद जजों को प्रमोशन दिलाने के लिए गुपचुप क्या-क्या नहीं करती हैं! कई बार जजों के फैसले ऐसे होते हैं कि जिन्हें सुनकर साधारण बुद्धि के लोग भी दंग रह जाते हैं। वे हत्यारों और बलात्कारियों को भी निर्दोष घोषित कर देते हैं। क्या हमने नहीं देखा है कि कई जज सेवा-निवृत्त होने के बाद राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, राज्यपाल, राजदूत, राज्यसभा का सदस्य आदि बनने की दौड़ में लगे रहते हैं। अगर जजों की नियुक्ति में सरकार का वर्चस्व हो गया तो न्यायपालिका का निष्पक्ष रहना बहुत कठिन हो सकता है। किसी भी लोकतंत्र की यह प्राणवायु है कि उसकी तीनों शाखाएं विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका स्वतंत्र और निर्बाध रूप से काम करती रहें।

लेकिन न्यायपालिका की सारी महत्वपूर्ण नियुक्तियां यदि पूरी तरह से उसके ही हाथ में होंगी तो उसके भी कई अवांछित पहलू सामने आते रहते हैं। राजनीति की तरह न्यायपालिका में भी भाई-भतीजावाद चल पड़ता है। अनेक अत्यंत प्रतिभाशाली वकीलों को सिर्फ इसलिए जज नहीं बनाया जाता कि वे सर्वथा निष्पक्ष और निडर होते हैं। यों भी अत्यंत सफल वकील इसलिए जज नहीं बनना चाहते, क्योंकि जज के वेतन के मुकाबले उनकी कमाई कई गुना ज्यादा होती है। अब वकीलों में यह डर भी पैदा हो गया है कि सरकार ने उनके नाम को यदि लटकाए रखा तो उनकी काफी बदनामी हो जाएगी।

अधिकार नहीं, सहयोग
इसलिए यह जरूरी है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति का निरंकुश अधिकार न तो सरकार के पास होना चाहिए और न ही सिर्फ न्यायमूर्तियों के पास! यदि सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया जाए तो क्या इसी तरह न्यायाधीशों को भी यह अधिकार नहीं देना होगा कि वे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री आदि की नियुक्ति में हाथ बटाएं? वास्तव में ये दोनों ही अतिवाद हैं। अमेरिका की तरह राष्ट्रपति द्वारा जजों को आजीवन नियुक्ति देना भारत के लिए श्रेयस्कर नहीं हो सकता है। भारत की न्यायिक नियुक्तियां योग्यता पर आधारित और निष्पक्ष हों, इसके लिए जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार परस्पर सहयोग करें। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के प्रस्ताव को पुनर्जीवित करने और उसमें आवश्यक सुधार करने के लिए सरकार और सुप्रीम कोर्ट, दोनों को देर नहीं करनी चाहिए। सरकार और सुप्रीम कोर्ट, दोनों से अपेक्षा है कि वे मध्यम मार्ग चुनें।

कलीजियम सिस्टम को हटाने के बजाय सुधारने का प्रयास ज्यादा कारगर

प्रतीक चड्ढा

देश की संवैधानिक अदालतों में जजों की नियुक्ति की मौजूदा प्रक्रिया से जुड़ी कोई भी बहस शुरू करने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि इसके इर्दगिर्द चलने वाली सारी बातचीत इस एक सवाल तक सीमित है कि कलीजियम सिस्टम को काम कैसे करना चाहिए। हम चाहे इस मुद्दे पर किसी भी तरफ खड़े हों, यह उस समय एक सचाई बन गई जब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की एक बेंच ने 2015 में नैशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट्स कमिशन (एनजेएसी) एक्ट पर फैसला देते हुए कह दिया कि संविधान में संशोधन करके कलीजिम सिस्टम को समाप्त करने का कोई भी प्रयास संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ होगा।

अनिश्चितता से नुकसान

यह मान भी लिया जाए कि इस फैसले को ज्यादा जजों की बेंच पलट सकती है, तो ऐसा होने में बरसों, बल्कि दशकों लग जाएंगे। ऐसे में आज की तारीख में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में किसी भी तरह के सुधार का तरीका यही हो सकता है कि मौजूदा कलीजियम सिस्टम में सुधार की गुंजाइश तलाशी जाए। चूंकि कलीजियम के जरिए सुप्रीम कोर्ट के जज खुद अपने उत्तराधिकारी तय करें, यह अवधारणा मूल संविधान से नहीं आई है, (यह 1993 में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच के फैसले से सामने आई), इसलिए कलीजियम के कामकाज से जुड़े नियम कहीं संहिताबद्ध नहीं किए गए हैं। ये समय-समय पर आए सुप्रीम कोर्ट के संबंधित फैसलों के व्यापक अध्ययन के जरिए ही समझे जा सकते हैं। मगर जिन कुछेक कानून के जानकारों ने यह अध्ययन किया है, उनमें भी अक्सर इस बात को लेकर मतभेद हो जाता है कि किसी प्रावधान का किन्हीं खास स्थितियों में वास्तव में अर्थ क्या होता है। स्वार्थी तत्व इन अनिश्चितताओं का अपने हिसाब से फायदा उठाने की कोशिश में लगे रहते हैं। इन अनिश्चितताओं को मुख्यतः दो श्रेणियों में डाला जा सकता है :

आज की तारीख में ऐसा कोई मानदंड सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है जिससे यह तय किया जा सके कि प्रत्याशियों का मूल्यांकन किस आधार पर हो। ऐसे में कलीजियम से बाहर के लोगों के लिए यह समझना अक्सर मुश्किल हो जाता है कि फलां को क्यों चुन लिया गया और ढिकां को क्यों नहीं चुना गया। यह स्थिति अक्सर कुछ नियुक्तियों के इर्दगिर्द अफवाहों और अटकलों का कारण बनती है। उदाहरण के लिए यही तथ्य लिया जाए कि विभिन्न अल्पसंख्यक समूहों जैसे अनुसूचित जाति (5/256), जनजाति (1/256), महिला, एलजीबीटीक्यू समुदाय, ओबीसी, दिव्यांग, धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय आदि से जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट का रेकॉर्ड बडा कमजोर रहा है। इसे हमारी राष्ट्रीय सामाजिक वास्तविकता के रूप में लेने के बजाय अक्सर कलीजियम के सदस्यों के जानबूझकर लिए जाने वाले फैसलों का परिणाम बताया जाता है। इससे इस पूरे संस्थान की आम लोगों के बीच छवि को खासा नुकसान होता है और इसके बारे में आम समझ ऐसी बनती है कि न्यायपालिका स्वार्थी लोगों का अड्डा बन गई है।

कानून में छेद

सिद्धांत रूप में भले ही कलीजियम को यह तय करने का संपूर्ण अधिकार हो कि किसे जज बनाना है, पर व्यवहार में ऐसा नहीं है। इस संबंध में कानून यह कहता है कि सरकार कलीजियम की सिफारिशों को पुनर्विचार के लिए एक बार लौटा सकती है लेकिन अगर कलीजियम दोबारा उन्हीं सिफारिशों की पुष्टि कर देता है तो फिर सरकार को उसे स्वीकार करना ही होगा। लेकिन कानून में यह स्पष्ट नहीं है कि विचार, पुनर्विचार और नियुक्ति की इस प्रक्रिया में कितना वक्त लगना चाहिए या अधिकतम कितने समय में यह पूरा काम संपन्न हो जाना चाहिए। नतीजतन, सरकार को यह गुंजाइश मिल गई है कि जो नाम उसकी पसंद के न हों उन्हें तब तक लटकाए रखा जाए जब तक कि नियुक्ति का सवाल बेमानी न हो जाए। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के सामने यह दुविधा आ जाती है कि वह सरकार को नापसंद (प्रायः इस समझ के चलते कि वे कुछ ज्यादा ही स्वतंत्र विचार वाले साबित होंगे) योग्य प्रत्याशियों के लिए अड़े कि पहले ही लंबित मुकदमों के बोझ से लदी व्यवस्था को चलायमान रखने लायक जजों की संख्या सुनिश्चित करे। कानून मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर महीने में स्थिति यह थी कि ऊपरी न्यायपालिका में जजों के 30 फीसदी पद रिक्त थे।

उपाय यही है कि विस्तृत मेमोरेंडम ऑफ प्रसीजर तैयार किया जाए जो कलीजियम सिस्टम के लिए रूलबुक का काम करे। हालांकि यह उपाय एनजेएसी केस में कोर्ट द्वारा ही सुझाया गया था। कोर्ट द्वारा तैयार इसका एक प्रारूप सात वर्षों से पड़ा हुआ है, फिर भी इस दिशा में कदम आगे नहीं बढ़ाया गया। शायद सरकार को लगता है कि इससे जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में उसकी भूमिका हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी। लेकिन चूंकि एनजेएसी केस के फैसले का बाकी हिस्सा आज भी लागू है जो कलीजियम सिस्टम को इस आधार पर संरक्षित करता है कि इसकी कमियां दूर कर ली जाएंगी। अब सरकार की मर्जी हो या न हो, फैसले में सुझाए गए प्रस्तावों के अनुरूप कलीजियम सिस्टम में सुधार की प्रक्रिया को जल्द से जल्द पूरा कर लेना हर तरह से उपयुक्त होगा। इससे न केवल मौजूदा सिस्टम की कई कमियां दूर होंगी, बल्कि न्यायपालिका में लोगों का विश्वास भी बढ़ेगा।

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