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सत्यान्वेषण : अंदर मतलब कहाँ?

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     ~ नीलम ज्योति 

अंतरमुखी बनो. बाहर कुछ नहीं, सबकुछ अंदर है. भीतर जाओ. भीतर मतलब क्या? 

   अंदर जाना मतलब कहाँ जाना भाव में, मन में, विचार में, शरीर में, या फिर उर्जा में, कहाँ?

  फ्रांसिसी कथा है : एक आदमी बहुत ही अमीर था. रोज़ शाम को अपनी प्रेमिका से मिलने उसके घर जाता था| ऐसा कई सालों से चल रहा था| निरपवादरूप से वह हर शाम प्रेमिका के घर जाता, उसके साथ कॉफ़ी पीता, और बातचीत करता| 

     उसकी प्रेमिका कई सालों तक इस बात का इंतजार करती रही कि एक दिन उसका प्रेमी उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखेगा.  इतना तो उसे पता था ही कि वह उससे प्रेम करता है. अभी तक शादी के लिए नहीं बोला है, यह सोच कर वह थोड़ा हैरान होती थी| 

      उसने कई माध्यमों से यह पता करने कि कोशिश की कि कहीं वह किसी और से तो प्रेम नहीं करता है|  ऐसा कुछ भी पता नहीं चला| अंत में इंतजार करते-करते जब वह बहुत थक गई, तो उससे ख़ुद ही एक शाम अपने प्रेमी के सामने शादी का प्रस्ताव रखा|

     प्रस्ताव सुनकर उसका प्रेमी बहुत खुश हुआ, लेकिन उसने जवाब देने के लिए एक दिन का समय माँगा| स्त्री थोड़ी आहत हुई, एक तो यही बहुत था कि जो काम पुरुष होने के नाते, उसके प्रेमी को करना चाहिए था, वह उसे ख़ुद ही करना पड़ा, और अब ‘हाँ’ बोलने के बजाय यह महानुभाव सोचने के लिए एक दिन का समय मांग रहे थे|

     खैर, एक दिन की बात थी, अगर इतने साल इंतज़ार किया तो एक दिन और सही| वह राज़ी हो गई| 

     24 घंटे के इंतजार के बाद, रोज़ की तरह, शाम को उसका प्रेमी उससे मिलने आया| स्त्री ने जवाब माँगा, उसके प्रेमी ने जो जवाब दिया वह विचारणीय है, उसने कहा-

     ‘यह सच है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, कई सालों से मैं तुमसे शादी करने का विचार कर रहा था, कल तुमने जब मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई, लेकिन मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता हूँ|’ 

    जवाब सुनकर का स्त्री सन्न रह गई, “लेकिन क्यों, जब प्रेम करते हो, तो शादी क्यूं नहीं कर सकते?”, अपने क्रोध पर काबू पाते हुए स्त्री ने पूछा|    

      वह आदमी थोड़ी देर गर्दन झुकाए बैठा रहा, फिर बोला, “मैं शादी नहीं कर सकता क्योंकि मुझे समझ नहीं आ रहा है कि अगर मैंने तुमसे शादी कर लिया, तो शाम किसके साथ बिताऊंगा|” 

     कथा कहती है कि उस स्त्री ने उसे बहुत समझाया कि जब हम शादी कर लेंगे तो साथ ही रहेंगे, फिर शाम अलग से बिताने की ज़रूरत क्या है? लेकिन वह आदमी नहीं माना| हमेशा कि तरह उसने शाम को आना जारी रखा, लेकिन शादी नहीं किया| 

      फ्रांस के लोग जब किसी को ‘अतिशय तर्क’ करते हुए देखते है, तो वे उसे यह कथा सुनाते हैं| अतिशय तर्क से बचिये, थोड़ा तर्क सहयोगी है, लेकिन अतिशय तर्क आपको घनचक्कर बना देगा| और एक बार अगर आप घनचक्कर बन गए, तो फिर कोई भी आपको नहीं समझा सकता है|

पूछा जाता है : “भीतर मतलब क्या? अंदर जाना मतलब कहाँ जाना भाव में, मन में, विचार में, शरीर में, या फिर उर्जा में, कहाँ जाएँ?”, न भीतर जाना है, न ही बाहर जाना है| 

    भीतर और बाहर में कोई भेद नहीं है| जगह और दिशा बदलने से आप नहीं बदल जाएँगे| कौन भीतर जाएगा? और कौन बाहर जाता है? वह कौन है जो कभी आपको भीतर, धन की यात्रा पर, तो कभी बाहर, धर्म की यात्रा पर, ले जाता है? 

     उसको जानिए| कहीं जाना नहीं है, जानना है| सब तरह की यात्राएं, भटकाव है| क्योंकि यात्रा के लिए ‘चाह’ चाहिए| अगर वासना नहीं है, आदमी ‘यात्रा’ करेगा क्यों? वो चाहे संसार की यात्रा हो, जिसको आप बाहर की यात्रा कह सकते हैं, या फिर भीतर की, जिसे लोग धर्म की यात्रा कहते हैं, सब के मूल में ‘वासना’ है, कहीं पहुँचने की कुछ पाने की…| 

     और वासना रोग है| आप क्या चाहते हैं, इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता है, ‘चाह’ मात्र रोग है| इसलिए बुद्ध कहते हैं, “ठहरों”, असली धर्म ठहरने में है, भीतर या बाहर जाने में नहीं| और ठहरना तभी संभव है, जब आप अपने को अपने विचारों से परे जान लेते हैं| 

अपने भीतर उठने वाले हर एक ‘मैं’ को लहर की तरह देखिये| और फिर उसको खोजिये, जो लहर से पहले है| सागर बिना लहर के भी हो सकता है, लेकिन लहर बिना सागर के नहीं हो सकती है| 

      उस सागर को खोजिये जिस पर ‘मैं’ की लहर उठती है| जब भी कोई चाह उठे (धर्म की या फिर संसार की), अपने से पूछिए, “यह कौन चाहता है”, भीतर से जवाब आएगा, “मैं चाहता हूँ”, फिर पूछिए, “मैं कौन हूँ”, और फिर ‘मैं’ को अपने शरीर, मन, प्राण, आत्मा, और उर्जा जहाँ भी ढूंढ सकते हैं, ढूँढिये.  तब तक ढूंढिए, तब तक कि ढूँढने वाला ख़ुद ही न खो जाए. हेरत-हेरत हे सखी रहा कबीर हेराय… खोजते-खोजते खो जाने का नाम ही धर्म है| 

      जब आप होंगे ही नहीं, फिर कैसा आनंद और कैसा दुःख? धर्मिक व्यक्ति न तो आनंदित होता है, और न ही दुखी, क्योंकि वह होता ही नहीं है|    

    कृष्णमूर्ति से किसी ने एक बार पूछा, “आप कौन हैं?”

   तो उन्होंने कहा, “मैं कोई भी नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ”| 

     व्यर्थ के सवालों, और तर्कों से बचिए. अध्यात्म न तो अंतरमन को बदलता है, और न ही बाहरीमन को| अध्यात्म का अर्थ है, इस बात का बोध की ‘मैं मन नहीं हूँ’, और जो आप हैं ही नहीं उसको बदलकर क्या होगा| ‘मैं शरीर हूँ, या फिर शरीर मेरा है, मैं मन हूँ, या फिर मन मेरा है’ यही भ्रम है| भ्रम को तोड़ा जाता है, बदला नहीं| आपका होना एक ‘सपना’ है, इसी सपने का टूटना धर्म है| सपने को बदलना मूढ़ता है|

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