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यूपी में 75 सीट जीतने का लक्ष्य पाने में परेशानी कहां है भाजपा को ?

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2024 के लोकसभा चुनाव की दौड़ में 80 सीटों वाला उत्तर प्रदेश सबसे अहम कड़ी है। ‘इंडिया’ गठबंधन को अगर सत्ता में वापसी करनी है तो हर हाल में यहां भाजपा को रोकना होगा। इधर भाजपा ने चार सौ पार का नारा दिया है। जिस तरह से पार्टी के पास संसाधन हैं, बड़े राज्यों में सत्ता है, और मंदिर-मस्जिद जैसे भावनात्मक नारे हैं, उसके मद्देनज़र यह दावा असंभव भी नहीं लगता है। मगर इसके लिए भाजपा को यूपी में 2019 से बेहतर प्रदर्शन करना पड़ेगा। लेकिन क्या भाजपा इस बार यूपी में 75 पार जा पाएगी? 

सैयद जैगम मुर्तजा

शायद हां, शायद नहीं। जिस तरह राज्य की राजनीति पल-पल करवटें बदल रही है, उससे स्थिति बेहद दिलचस्प हो गई है। भाजपा की सबसे बड़ी ताक़त ही इस चुनाव में सबसे बड़ी परेशानी का सबब बन सकती है। दरअसल, पार्टी फिर से मोदी के भरोसे है। इसमें नई बात नहीं है, क्योंकि 2014 और 2019 में भी भाजपा मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ी थी। नई बात यह है कि इस दौरान पार्टी की सदस्य संख्या में इज़ाफा ज़रुर हुआ है, लेकिन पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेता तक़रीबन ख़त्म हो चले हैं। जो बचे हैं, वे ख़ुद अपनी जीत के लिए मोदी के करिश्मे पर निर्भर हैं। पार्टी के नारों से, बैनर-पोस्टर से, और चुनावी वादों से पार्टी का नाम ग़ायब है। गारंटी, अबकी बार, फिर एक बार, सबकुछ मोदी के भरोसे है। 

ज़ाहिर है मोदी अब संगठन और यहां तक कि आरएसएस से भी बड़े हैं। तो फिर इसके बावजूद यूपी में 75 सीट जीतने का लक्ष्य पाने में परेशानी कहां है? 

यह बात सच है कि विपक्ष बहुत ज़्यादा ताक़तवर नज़र नहीं आ रहा है, लेकिन ज़मीन पर वह शायद इतना कमज़ोर भी नहीं है। इसकी तीन बड़ी वजहें हैं। एक तो स्थानीय सामाजिक समीकरण, दूसरा रोज़ी-रोटी, खेती-किसानी जैसे मूल मुद्दे, और तीसरा दलित, पिछड़ों और मुसलमानों के बीच असंतोष। इसे ऐसे समझिए कि लोकसभा चुनाव की घोषणा अगले आठ-दस दिनों के भीतर होने वाली है, लेकिन चुनाव को दिशा देने वाला नॅरेटिव अभी किसी तरफ से आता नहीं दिख रहा। भाजपा शायद राम मंदिर, और हिंदू-मुसलमान ध्रुवीकरण पर ही सारी उम्मीदें लगाए बैठी है। शायद मुफ्त राशन और लाभार्थी योजनाओं पर पार्टी को अति-आत्मविश्वास है। या शायद पार्टी को भरोसा है कि मोदी यूपी में आकर सबकुछ ठीक कर देंगे। 

भारतीय जनता पार्टी ने अभी तक जितने टिकटों का ऐलान किया है, उनमें कई को लेकर असंतोष है। बाराबंकी सुरक्षित सीट से पार्टी को घोषित उम्मीदवार और निवर्तमान सांसद उपेंद्र रावत इस आपसी खींचतान का पहला शिकार बने हैं। टिकटों का ऐलान होते ही उनका एक अश्लील वीडियो वायरल हुआ, जिसकी वजह से भाजपा को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी। हालांकि सांसद प्रतिनिधि ने वीडियों के फेक होने का दावा करते हुए एफआईआर कराई है, लेकिन टिकट तो चला ही गया। माना जा रहा है कि यह वीडियो टिकट की दावेदार रही पार्टी की ही किसी सदस्या ने लीक की है।

इधर अमरोहा सीट पर घोषित उम्मीदवार और पूर्व सांसद कंवर सिंह तंवर की राह भी आसान नहीं हैं। अमरोहा में भाजपा के टिकट के आधा दर्जन दावेदार थे। इनमें 2009 में राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) से सांसद रहे देवेंद्र नागपाल के अलावा बसपा से भाजपा में आए डा. सोरन सिंह भी शामिल हैं। अब टिकट कटने के बाद चर्चा है कि दोनों बसपा समेत दूसरे दलों से चुनाव लड़ने की संभावना तलाश रहे हैं। ज़ाहिर है कि अगर दोनों में से कोई एक भी मैदान में आता है तो तंवर की सीट का जाना तय है।

आरएलडी को भाजपा ने लड़ने के लिए दो सीटें दी है। जयंत ने अपने प्रत्याशियों का नाम फाइनल कर दिया है। बागपत से राजकुमार सांगवान और बिजनौर से चंदन चौहान उम्मीदवार होंगे। चंदन चौहान मीरापुर विधान सभा सीट से विधायक हैं। आरएलडी के लिए राह आसान नहीं है।। उसके मौजूदा विधायकों को दोनों ही लोकसभा क्षेत्रों में विरोध का सामना करना पड़ रहा है। पिछले विधान सभा चुनाव में राजपाल बालियान (बुढ़ाना), प्रसन्न चौधरी (शामली), चंदन चौहान (मीरापुर), अशरफ अली (थाना भवन), ग़ुलाम मुहम्मद (सिवाल ख़ास), और अनिल कुमार (पुरक़ाज़ी) मुसलमान बहुल सीटों से जीतकर आए थे। उपचुनाव में जीते मदन भैया (खतौली) की सीट भी मुसलमान बहुल है। भाजपा से गठबंधन के बाद इन तमाम नेताओं को अपने क्षेत्र में फज़ीहत उठानी पड़ रही है। हालांकि तमाम विधायक जयंत चौधरी के फैसले के साथ खड़े दिख रहे हैं लेकिन निजी बातचीत में सभी मान रहे हैं कि ग़लत हुआ।

अब कहा जा रहा है कि पार्टी महासचिव अमीर आलम ख़ां ने कैराना में अपना टिकट कटने की आशंका में आरएलडी का सपा से गठबंधन ख़त्म कराया। पहले यह कयास लगाया जा रहा था कि अब नए गठबंधन में अमीर आलम या उनके बेटे नवाज़िश के बिजनौर से उम्मीदवार बनने की संभावना है, लेकिन इस बारे में भाजपा के साथ-साथ आरएलडी में भी विरोध दिखा। ज़ाहिर है अमीर आलम का दावं उल्टा पड़ गया है। 

इसी क्रम में एक और नेता का राजनीतिक करियर दांव पर लग गया है। वह हैं आज़ाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर। उन्हें ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल करने की पैरवी जयंत चौधरी कर रहे थे। उन्होंने ही नगीना से चंद्रशेखर को टिकट दिलाने का शिग़ूफा छेड़ा था। अब जबकि जयंत गठबंधन से बाहर हैं तो चंद्रशेखर की स्थिति न इधर के न उधर के वाली हो रही है। हालांकि समाजवादी पार्टी अब भी उन्हें बुलंदशहर या आगरा सुरक्षित सीट पर लड़ा सकती है, लेकिन शर्त है कि चंद्रशेखर को यह चुनाव कांग्रेस या सपा के सिंबल पर लड़ना होगा। ख़बर है कि चंद्रशेखर ने जयंत के ज़रिए भाजपा में भी अपनी गोटी बैठाने की कोशिश की है, लेकिन वहां भी शर्त यही है कि आज़ाद समाज पार्टी के नेता भाजपा में शामिल हो जाएं।

इंडिया गठबंधन की एक और पूर्व सहयोगी पार्टी यूपी में भाजपा के साथ असहज महसूस कर रही है। नीतीश कुमार की जेडीयू से पूर्व सांसद धनंजय सिंह टिकट की उम्मीद लगाए बैठे थे। लेकिन नीतीश भाजपा के साथ चले गए तो पार्टी की यूपी इकाई एकदम अप्रासंगिक हो गई। भाजपा ने जौनपुर से पूर्व कांग्रेस नेता कृपाशंकर सिंह को टिकट दे दिया है। चर्चा है कि धनंजय अब बसपा में वापसी वर्ना किसी भी तरह कांग्रेस से टिकट पाने की जुगत में लगे हैं। उनके समर्थक कह रहे हैं किसी पार्टी से टिकट हो न हो, धनंजय चुनाव ज़ुरूर लड़ेंगे।

इस बीच स्वामी प्रसाद मौर्य ने साफ कर दिया है कि वह चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए ही प्रचार करेंगे। अखिलेश यादव के साथ किसी तरह के मतभेद से उन्होंने इंकार किया है। राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी नेता ने कहा है कि भाजपा को सत्ता से बाहर करना समय की ज़रूरत है। हाल ही में समाजवादी पार्टी छोड़कर गए स्वामी प्रसाद मौर्य का यह बयान अखिलेश यादव के लिए राहत भरी ख़बर है। कम से कब बदायूं में उनकी भूमिका पर सबकी नज़र होगी। बदायूं से उनकी बेटी संघमित्रा मौजूदा सांसद हैं, जबकि सपा ने यहां शिवपाल यादव को उम्मीदवार बनाया है। यह भी देखना अहम होगा कि संघमित्रा अभी भी भाजपा से चुनाव लड़ेंगी या पिता के साथ नई राह पकड़ेंगी।

कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि भाजपा के लिए 75 पार जाना किसी भी तरह आसान नहीं होगा। जिस तरह पार्टी के भीतर गुटबाज़ी और खींचतान उभर कर बाहर आ रही हैं, वह ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए मुफीद हैं। मगर ‘इंडिया’ गठबंधन इस खींचतान का फायदा उठा पाएगा, इसे लेकर भी तमाम तरह के सवाल हैं। 

बहरहाल, चुनावी नतीजे आने तक इस तरह की रोचक घटनाएं दिल बहलाने के लिए क्या ही बुरी हैं?

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