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अब आगे किस राह चलेंगे मुस्लिम? बदली चुनावी फिजा में उसके लिए सोचने का वक्त

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नई दिल्ली: यूपी में एक वक्त था जब मुसलमान सत्ता की दिशा और दशा तय करते थे। अगर वह दलितों के साथ जाते तो बसपा सरकार बनाने में कामयाब हो जाती। मुस्लिम+यादव यानी MY फैक्टर सफल होता तो सपा की साइकिल रफ्तार पकड़ लेती। उससे भी पहले मुसलमान कांग्रेस का परंपरागत वोटर बना रहा। 2014 के पहले यूपी की 19 फीसदी आबादी के लिए यही समीकरण बना बनाया रहता लेकिन अब यूपी की फिजा बदल चुकी है। ध्रुवीकरण की राजनीति पर भाजपा ने ऐसा प्रहार किया है कि ओबीसी (OBC) और MBC (सबसे ज्यादा पिछड़ा वर्ग) वोटर उसके साथ चिपक गए। ऐसे में यह अल्पसंख्यक समुदाय अपने आप ही अलग-थलग पड़ गया। यूपी में भाजपा फिर से सरकार बनाने जा रही है और अखिलेश यादव की लाख कोशिशों के बाद भी सपा 125 सीटों के आसपास सिकुड़ती दिख रही है।

आज के यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों से यह सवाल भी खड़ा हो गया है कि क्या प्रदेश के मुसलमानों के लिए नया विकल्प चुनने का वक्त आ गया है। चुनाव प्रचार का वक्त याद कीजिए जब असदुद्दीन ओवैसी ने सत्ता में मुसलमानों के भागीदारी की बात कही थी। भले ही ओवैसी कुछ कमाल नहीं दिखा पाए लेकिन मुसलमानों के लिए उनकी मांग निराधार नहीं है। आखिर कब तक मुसलमानों को वोट बैंक समझा जाता रहेगा।

चुनाव प्रचार का माहौल देखकर ही साफ हो गया था कि 2022 का विधानसभा चुनाव भाजपा और सपा के बीच फाइट होगी। 80 और 20 फीसदी के जुमले उछले तो कहा गया कि प्रदेश के मुसलमान भाजपा को हराने के लिए वोट करेगा। यानी एक बार फिर मुसलमानों का इस्तेमाल करने के बारे में ही सोचा गया। आजादी के 7 दशक बाद भी मुस्लिम समुदाय के हालात ज्यादा नहीं सुधरे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत के साथ ही भाजपा ने जब सबका साथ, सबका विकास का नारा बुलंद किया तभी साफ हो गया था कि अब क्षेत्रवाद, जातिवाद, तुष्टीकरण के दिन लदने वाले हैं। लेकिन इस चुनाव में भी मुस्लिम समुदाय सपा के साथ खड़ा दिखा और वह इसलिए क्योंकि उसे भाजपा को हराना था और उसे दूसरा बड़ा विपक्षी दल नहीं दिख रहा था।

यादव सपा के साथ, दलित बसपा के साथ…. वाले समीकरण पिछले 8 सालों में टूटते चले गए लेकिन मुसलमानों के लिए ऐंटी-बीजेपी वाली तस्वीर नहीं बदली। यूपी में आखिरी चरण तक कहा जा रहा था या कहें कहकर मुसलमानों को बरगलाया जा रहा था कि भाजपा उनके लिए हानिकारक है। जब एक बार फिर भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने जा रहा है तो मुस्लिम समुदाय के लिए भी सोचने का वक्त है कि क्या उन्हें भी सत्ता में शामिल होकर समुदाय के प्रतिनिधित्व के बारे में नहीं सोचना चाहिए?

जातीय समीकरण
ऐंटी-बीजेपी सेंटिमेंट के चक्कर में विपक्षी दल मुसलमानों का वोट तो खींच लेते हैं लेकिन यह समुदाय सत्ता से दूर होता चला जाता है। आज जब किसान आंदोलन, महंगाई, कोरोना प्रबंधन, यूक्रेन संकट और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर यूपी की जनता ने भाजपा को एक बार फिर सत्ता सौंपने का फैसला सुनाया है, तो कहीं न कहीं मुस्लिम समुदाय की तरफ से संदेश यही मिलता है कि उनका वोट बेकार गया। हालांकि भाजपा तीन तलाक के मुद्दे पर दावा करती है कि मुस्लिम महिलाओं ने उसे वोट किया है।

मुस्लिम समुदाय हर पार्टी की मंशा को बखूबी समझता है। शायद तभी ओवैसी के हैदराबाद से आकर पैर जमाने की कोशिशों को उसने महत्व नहीं दिया। बार-बार AIMIM ने मुसलमानों की नुमाइंदगी की बात कही लेकिन उसे एक प्रतिशत वोट भी नसीब होता नहीं दिखाई दे रहा है। अब वक्त आ गया है जब मुसलमान समुदाय खुद को जिताने यानी विकास की धारा में बढ़कर सत्ता में भागीदारी की तरफ सोचे। इससे न सिर्फ उनके लिए सरकार में संभावनाएं बढ़ेंगी बल्कि वे खुद अपना अलग अस्तित्व भी मजबूत कर पाएंगे। सेकुलर और सांप्रदायिक पार्टी जैसे नैरेटिव से बचते हुए उन्हें अपने वोट की वैल्यू समझनी होगी। अबतक यूपी के जो रुझान आ रहे हैं उसमें मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में भी भाजपा को बड़ी जीत मिलती दिख रही है।

यूपी में आजम खान, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद जैसे मुस्लिम नेता भी अपने समुदाय का रहनुमा नहीं बन सके। अपराध और भ्रष्टाचार के चलते उन्होंने मुसलमानों का नुकसान ही किया है। अब समाजवादी पार्टी के पक्ष में गया मुसलमानों का वोट भी बेकार ही रहा तो मुसलमानों को ऐंटी-बीजेपी का नारा छोड़ समुदाय हित के लिए फैसले लेने चाहिए। 403 विधानसभा सीटों में से 120 से ज्यादा पर मुसलमानों का प्रभाव है।

कई सीटों पर 40-50 प्रतिशत मुस्लिम आबादी
2017 के विधानसभा चुनाव में 25 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। जबकि 2012 में यह आंकड़ा 68 था। अब जनता और खासकर अल्पसंख्यक समुदाय को यह समझना होगा कि अगर ध्रुवीकरण होता है तो एक तरफ वोट कंसोलिडेशन भी होता है। अगर कई विधानसभा सीटों में 50 प्रतिशत तक आबादी मुसलमानों की हो फिर भी उनका प्रतिनिधित्व घट रहा हो तो यह सोचने की बात है। रामपुर में मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है। मुरादाबाद और संभल में यह 47 फीसदी है। बिजनौर, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली और अमरोहा में भी 40 प्रतिशत मुसलमान हैं। इसके अलावा पांच अन्य जिलों में मुसलमानों की आबादी 30 से 40 फीसदी के करीब है। 12 जिलों में 20 से 30 फीसदी मुसलमान हैं। 2014, 2017, 2019 और अब 2022 के चुनाव नतीजों को देखने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि मुस्लिम समुदाय सियासत की बदलती धारा की तरफ कदम बढ़ाएगा और खुद को ऐंटी बीजेपी की छवि से बाहर कर सत्ता में शामिल करने के बारे में सोचेगा।

इसी कदम से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व भाजपा में बढ़ेगा। अब जब बसपा की दलित-ब्राह्मण की रणनीति काम नहीं आई, यादव-मुस्लिम फैक्टर भी सफल नहीं रहा तो तीसरा विकल्प कोई और बचता भी नहीं है। अगर मुस्लिम समुदाय नई दिशा में बढ़ता है तो निश्चित है भाजपा भी खुद को मुसलमानों के और करीब ला सकेगी और उसे ‘सबका विश्वास’ के नारे को चरितार्थ करना होगा।

कब तक ‘झूलता’ रहेगा मुसलमान
– आजादी मिलने के बाद 80 के दशक तक यूपी के मुसलमान कांग्रेस के साथ रहे।
– 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उनका वोट बीजेपी को हराने के लिए जाने लगा।
– 90 के दशक से 2000 तक यूपी के मुसलमान सपाई रहे।
– 2007 विधानसभा चुनाव में बसपा उभरी तो वे उसके साथ हो गए।
– 2009 में कल्याण सिंह को सपा का समर्थन मिला तो मुस्लिम कांग्रेसी हो गए।
– 2012 में मुस्लिम वोट फिर से सपा की तरफ चला गया।
– 2014 में हिंदू वोट कंसोलिडेट हुआ तो मुस्लिम वोट बेअसर हो गया।

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