चंद्र प्रकाश झा
यह उल्लेख करना गैर-मुनासिब नहीं होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान 1998 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भरी विधान सभा में कहा था कि उन्होंने राज्य पुलिस को सारे अपराधियों को ‘लिक्विडेट’ (सफाया) करने के आदेश दे दिए हैं। विधान सभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने जो स्वयं अधिवक्ता रहे मुख्यमंत्री के इस कथन की संवैधानिक वैधता परखे बगैर सदन की कार्यवाही के लिखित रिकॉर्ड से नहीं हटाया।
भारत के संविधान के तहत जीवन का अधिकार मूलभूत अधिकार है जिसका कार्यपालिका और विधायिका हनन नहीं कर सकती है। संविधान के तहत सिर्फ न्यायपालिका को क़ानून की समुचित प्रक्रियाओं के बाद ही किसी भी नागरिक को दुर्लभतम आपराधिक मामले में किसी को उसके जीवन के अधिकार से वंचित कर मृत्युदंड देने का अधिकार है।
कल्याण सिंह सरकार के उक्त प्रकरण का मीडिया और अन्य ने समुचित संज्ञान नहीं लिया। लेकिन कुलदीप नायर सरीखे पत्रकार और मानवाधिकारवादियों के इसका विरोध करने के लिए लख़नऊ की सड़क पर उतरने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लखनऊ बेंच में पब्लिक इंटरेस्ट पिटिशन दाखिल की। पिटिशन में सदन को कार्यवाही के लिखित रिकार्ड के साथ -साथ सदन की पत्रकार दीर्घा में अपनी ड्यूटी के लिए उपस्थित मेरे नोटबुक की प्रति भी संलग्न की गई। पत्रकारों के ऐसे नोट्स अदालत में ‘मेटेरियल’ साक्ष्य के रूप में विचारार्थ दाखिल किये जा सकते है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ बेंच ने उस पिटिशन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि कल्याण सिंह को पता नहीं होगा कि ‘लिक्वीडेशन’ का विधिक अर्थ क्या होता है।
जिस बात पर चर्चा लगभग नहीं होती वह यह है कि सभी नागरिकों के कुछेक विधिक अधिकार भारत की स्वतंत्रता के पूर्व 26 जनवरी 1950 से पूर्ण बल से लागू संविधान के पहले, उसकी रचियता संविधान सभा के गठन के पहले और ब्रिटिश हुक्मरानी की सांविधिक राजतंत्र के करीब दो सौ वर्ष के औपनिवेशिक शासन में ही नहीं उसके पूर्ववर्ती मुग़ल बादशाहों के शासन और उनके भी पूर्व के सम्राटों, राजाओं-महाराजों आदि के भी राज में थे।
नागरिकों ने इनमें से जिसका सर्वाधिक आनंद लिया उसे मोटे तौर पर प्राकृतिक अधिकार कहा जा सकता है। इन अधिकारों का स्वामित्व किसी के पास नहीं है फिर भी वे भौगोलिक सीमाओं, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीयता, नस्ल, त्वचा के रंग, भाषा-बोली, शारीरिक कद- काठी, आयु, लैंगिक फर्क और अन्य किसी भी विभाज्यकारी मानदंडों के पार पूरे पृथ्वी के सभी जैव, प्राणियों, वनस्पतिओं और अजैव पदार्थों के लिए प्राकृतिक रूप से कमोबेश उपलब्ध है।
यह दीगर बात है कि पृथ्वी के पास प्राकृतिक प्रकाश का अपना स्रोत नहीं है। पृथ्वी के लोगों को प्राकृतिक प्रकाश अपने सौर मंडल से प्राप्त होता है। भारत जैसे भौगोलिक सीमाओं के भीतर सौर ऊर्जा-प्रकाश जितनी प्रचुरता से सहज, सरल, निःशुल्क उपलब्ध है वह उतनी प्रचुरता से सभी भौगोलिक सीमाओं के भीतर उपलब्ध नहीं है। इसलिए उन भौगोलिक सीमाओं के भीतर के लोगों को धूप के सेवन के लिए कुछ धन खर्च कर समुद्र तट पर जाना-रहना पड़ता है। लेकिन कोई भी राष्ट्र -राज्य, सौर ऊर्जा को हथिया नहीं सकता है, ना ही उसको उस तरह से बेचने या नीलाम कर सकता है जिस तरह से भारत समेत कई देशों की सरकारों ने अप्रचुर परिमाण में उपलब्ध ध्वनि तरंग दैर्घ्य (स्पेक्ट्रम) टेलिकॉम कंपनियों को बेचे या नीलाम किये है।
भारत का संविधान, नागरिकों के इन प्राकृतिक अधिकारों के प्रति स्वाभाविक रूप से साफ नहीं है। पर सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया और विभिन्न हाई कोर्ट ने भी 2जी, 3जी के घोटालों से सम्बंधित मामलों में ऐसे निर्णय दिए जो नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हैं। साफ है कि मानव सभ्यता की प्रौधोगिक प्रगति के फलस्वरूप, धूप, हवा और पानी जैसे इन प्राकृतिक अधिकारों के समुचित संरक्षण के लिए संविधान में समुचित संशोधन की आवश्यकता है। इन प्राकृतिक अधिकारों के अलावा नागरिकों के मानवाधिकार है जिनका सोर्स यूनाइटेड नेशन्स की जनरल असेंबली द्वारा 10 दिसंबर 1948 को पारित ‘सार्वभौमिक मानवाधिकार’ है। इस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत भी शामिल है। ये मानवाधिकार, सारे अधिकारों की जननी है।
भारत का संविधान नागरिकों के उन मूलभूत अधिकारों के प्रति साफ है जिनका राष्ट्र -राज्य और उसके नागरिकों के बीच जन्मदात्री और उसके शिशु के बीच नाभिनाल जैसा सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध और अनुबंध में कार्यपालिका ( सरकार) और न्यायपालिका तो क्या विधायिका भी संविधान से इतर की दखलंदाजी नहीं कर सकती है। ये मूलभूत अधिकार, भारत के संविधान के भाग -3 में आर्टिकल (धारा) 12 से आर्टिकल 35 तक में शामिल, परिभाषित और व्याख्यायित हैं।
इंदिरा गांधी सरकार के ने 25 जून 1975 को पूरे देश में लागू की गई इंटरनल इमरजेंसी के दौरान संसद में 1976 में 42वें संविधान संशोधन विधेयक को पास कर दिया था। इनके तहत कुछ मूलभूत अधिकारों में कटौती कर दी गई, विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकता- वैधता की समीक्षा करने के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की शक्ति पर अंकुश लगा दिए गए। प्रधानमंत्री कार्यालय को व्यापक अधिकार दे दिए गए। संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने के लिए प्राधिकृत कर यह प्रावधान कर दिया गया कि इसकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है।
जब 21 मार्च 1977 को इंटरनल इमरजेंसी समाप्त घोषित कर दी गई तब उसी वर्ष लोक सभा चुनावों के फलस्वरूप बनी मोरारजी देसाई सरकार ने भारत के संविधान को 42 वें संविधान संशोधन से पहले की स्थिति में लाने के जनता पार्टी के चुनावी घोषणापत्र में किये गए वादे के मुताबिक़ 43 वां और 44 वां संविधान संशोधन कर स्थिति बहुत हद तक दुरुस्त कर दी। बाद में 31 जुलाई 1980 को सुप्रीम कोर्ट ने रही- सही कसर पूरी कर 42 वे संविधान संशोधन के उन दो प्रावधानों को भी असंवैधानिक करार दे दिया जिसके अनुसार किसी भी संविधान संशोधन की किसी भी आधार पर न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण रोक लगा दी गई थी।
42 वें संविधान संशोधन की इस विलम्बित न्यायिक समीक्षा से निकला सन्देश स्पष्ट और जोरदार था कि अगर कार्यपालिका और विधायिका को नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में भी कटौती करनी है तब सिर्फ सविधान संशोधन अधिनियम बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें नया संविधान बनाना पड़ेगा।\
अब सवाल यह है कि भारत का नया संविधान कौन, कैसे बना सकता है। क्या यह मुमकिन है कि नरेंद मोदी सरकार न्यू इंडिया का संविधान रचने के लिए मौजूदा संसद को नई संविधान सभा में परिणत कर दे जिसमें सत्तारूढ़ मोर्चा को लोक सभा में बहुमत प्राप्त है और राज्य सभा में साफ बहुमत न होने के बाबजूद वह सूक्ष्म प्रबंधन कर सकती है। और यह नहीं तो वह नया संविधान बनाने के अपने किसी कदम को वित्त विधेयक के रूप में राज्य सभा की सहमति की आवश्यकता को ही ठीक उसी तरह दरकिनार कर दे जैसा उसने हाल में कई विधेयकों को वित्त विधेयक होने का दावा कर किया है।
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राजनीतिक अध्ययन केंद्र के पूर्व छात्र एवं रांची में बसे एक्टिविस्ट उपेंद्र प्रसाद सिंह (अब दिवंगत) के अनुसार इनमें से कोई भी उपाय असंवैधानिक होगा। उनका कहना था कि नया संविधान रचने के लिए भी मौजूदा संविधान में ही प्रावधानित जनमत संग्रह ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन स्वतंत्र भारत में किसी भी मुद्दे को लेकर जनमत संग्रह के प्रावधान का उपयोग गोवा को पुर्तगालियों के औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के सिवा आज तक नहीं किया गया है।
अब देखना यह है कि नरेंद मोदी अपने स्वप्न के न्यू इंडिया के संविधान के लिए जनमत-संग्रह से आगे बढ़ते है या फिर कुछ और ही अकल्पनीय कदम उठाते हैं। इतना तय है कि अगर वह न्यू इंडिया के लिए नया संविधान रचते है तो उसमें गणतंत्रवाद का निर्वाह आसान नहीं होगा।