~पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’
भारत के प्राचीन साहित्य ऋग्वेद आदि में मनु को मानवजाति का पिता अथवा आदिपुरुष माना गया है। वैवस्वत मनु को शतपथ ब्राह्मण में शासक भी कहा गया है ! ऋग्वेद में उल्लेख है कि मनु ने प्रकाश के लिये अग्नि की स्थापना की थी।
मनु की कथा जल-प्रलय से जुड़ी हुई है। उत्तरवैदिक साहित्य में यह कथा भिन्न-भिन्न प्रकार से कही गयी है। कहीं – कहीं तो यह कथा इस प्रकार से है कि देवराज के आदेश से मनु को नौका के द्वारा कहीं भेजा गया था , किन्तु इसी बीच जलप्लावन हुआ और अधिकांश धरती डूब गयी , जिसमें देव-सभ्यता जल में समा गयी।
मनु नाव में थे और एक मत्स्य के आघात से इनकी नौका हिमालय के नौबंधन नामक शिखर पर जाकर रुक गयी। यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि जलप्लावन की कथा केवल भारतीय-साहित्य में ही नहीं है।
यूनानी साहित्य में ड्यूक्लियन की कहानी यही है। बेबीलोनिया के साहित्य में जिसथ्रस की कहानी में ऐसा ही जलप्लावन है. बाइबिल में नूह की कहानी है ,जिसमें यह नाव अईट पर्वत पर जा कर रुकती है. कुरान में इस पर्वत का नाम जूदी है।
जलप्लावन की कथा किसी न किसी रूप में चीन , ब्रह्मा , असीरिया , न्यूगिनी आदि के पुरा साहित्य में भी है। दक्षिण एशिया की कहानियों में बहुत समानता है। ईसा से ३१०० वर्ष पूर्व जलप्रलय का अनुमान किया गया है।
इस कथा को लेकर जयशंकर प्रसाद ने कामायनी नामक महाकाव्य लिखा है। भारत के पुराणों में राजाओं की वंशावलियाँ मनु से ही प्रारंभ हुई हैं। लेकिन भारत के पुराणों में मनु एक वैवस्वत ही नहीं हैं।
चौदह मनुओं के नाम आते हैं, स्वायंभुव , स्वारोचिष , उत्तम , तामस . रैवत, चाक्षुष , सावर्णि आदि। भारतीय कालगणना में मन्वन्तर का बहुत महत्त्व है. एक मनु एक मन्वन्तर का आदिपुरुष है.
इनके अतिरिक्त प्राचेतसमनु भी हैं , जिन्होंने राजनीति पर एक ग्रन्थ लिखा था। एक मनु कृशाश्व ऋषि का पुत्र था। एक मनु लोमपाद राजा का बेटा था !यह यादव था.
वह कौन सा मनु था , जिस मनु ने स्मृति भी लिखी थी , जिसका उल्लेख निरुक्त में है और उसके अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। लेकिन यह स्मृति यास्क के पहले विद्यमान थी।
वर्तमान में उपलब्ध मनुस्मृति किसकी रचना है ? वाचिक परंपरा से इसने कब लिखित रूप ग्रहण किया ? इसमें प्रक्षिप्त अंश कब-कब जुड़ते रहे ? यह प्रामाणिक रूप में नहीं कहा जा सकता , क्योंकि इसमें बहुत बाद के संदर्भ [बुद्ध जिन आ्दि ] जुड़े हुए हैं ,यदि यह रचना प्राचीन होती तो ऐसे संदर्भ कहाँ से आ जाते ?
अनेक विद्वानों का मत तो यह है कि यह तीसरी शताब्दी के आसपास की रचना है , जिसमें यथासमय प्रक्षिप्त अंश भी जुड़ते रहे.
रांगेय राघव का मत है : “मनुस्मृति में जो नियम-व्यवस्था मिलती है , वह परवर्तीकाल के किसी मनु की नियम-व्यवस्था का और भी परवर्ती तथा परिवर्तित रूप है , वैवस्वत मनु के नियमों के लिये हमें वेद तथा पौराणिक-कथाओं में प्रतिबिंबित समाज को देखना चाहिये।”
साहित्य तो सहित के भाव का व्यंजक है किंतु दरबार की जो प्रवृत्ति स्वतंत्रता के बाद उभर कर आयी तो आश्रयदाता राजनेता के हित और विचार को केंद्र में रख कर साहित्य के राजनैतिक- भाष्य किये जाने लगे। प्राचीन साहित्य और परम्परा एक वर्ण की ही है, यह फतवा दिया जाने लगा।
कुत्सित व्याख्या की जाने लगी। यदि वे अपनी ही जाति की संस्कृति का सर्वेक्षण कर रहे होते तो उनको मनुष्य का साक्षात्कार भी हुआ होता। उनको ज्ञात होता कि, किसी भी जाति के जीवन की भौतिक परिस्थिति एक जैसी नहीं होती। प्रत्येक जाति में भिन्न -भिन्न जीवनस्तर होते हैं।
जाति की हितकामना तो समष्टि साधना होती है, ऐसा भी हुआ कि स्कूल, कालेज, अस्पताल के रूप में समष्टि- साधना फलीभूत हुई लेकिन इसमें राजनेता की रुचि नहीं थी, उसको तो वोटबैंक चाहिए था, इसलिए जातियों की गोलबंदी की जाने लगी। साहित्य के राजनीतिक भाष्य के बीच मनुवाद शब्द उभर कर आया।
“मनु” समस्त मानवता के एक उत्स की अवधारणा है, किंतु उसे एक शत्रुभाव की परिकल्पना से जोड़ दिया गया। समाज की समरसता पर प्रहार हुआ, समष्टि- साधना तिरोहित हो गयी। झगड़े कम नहीं हुए, निर्बल और अधिक निर्बल हुआ, निर्बल पर अत्याचार बढ़ा,द्वेष भाव बढ़ता चला गया।
यदि यह वर्ण -संघर्ष ही सत्य था तो फिर मनुवादी संघर्ष का नारा देने वाले वे ही लोग ब्राह्मण – सम्मेलन क्यों बुलाने लगे ? क्या मनुवाद का यह झोल असंगत नहीं है?
राजनेता तो अपनी सत्ता साधना कल भी कर रहा था, आज भी कर रहा है,यों नहीं तो यों सही. किंतु इससे साहित्य का वह व्याख्याता अविश्वसनीय हो गया है क्योंकि मनुवाद के वे ही प्रतिपादक ब्राह्मण-सम्मेलन बुलाने लगे.