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एचसीईएस रिपोर्ट के बड़े दावे: खुशहाली की खुशफहमी क्यों?

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सत्येंद्र रंजन

साल 2022-23 का घरेलू उपभोग खर्च सर्वेक्षण (एचसीईएस) रिपोर्ट जारी होने के बाद नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने इसको आधार बना कर कई बड़े दावे किए। मसलन,

इनके साथ ही सुब्रह्मण्यम ने इस बात की जरूरत भी बता दी उपभोक्ता महंगाई सूचकांक में खाद्य पदार्थों का वजन अब घटा दिया जाना चाहिए। उनकी दलील है कि चूंकि अब औसतन घरेलू खर्च में खाद्य का हिस्सा 53 से घटकर 46 प्रतिशत पर आ गया है, इसलिए उपभोक्ता महंगाई दर मापने में भी खाद्य का हिस्सा घटा दिया जाना चाहिए। ऐसा हुआ, तो आम उपभोक्ता महंगाई दर में काफी गिरावट आएगी, क्योंकि हाल के वर्षों में आम तौर पर खाद्य महंगाई की दर सीपीआई दर की तुलना में काफी ऊंची रही है।

सरकार की नजर से देखें तो महंगाई दर अगर कम दिखेगी, तो उसके दो फायदे होंगे। एक तो उससे सरकार की छवि बेहतर होगी, दूसरे उसे आधार बना कर ब्याज दरें गिराई जा सकेंगी, जो वित्तीय क्षेत्र की एक प्रमुख मांग है। बैंकों से सस्ता कर्ज मिलेगा, तो शेयर, बॉन्ड और ऋण मार्केट में निवेश के लिए अधिक रकम उपलब्ध होगी। उससे वित्तीय अर्थव्यवस्था और चमकदार दिखेगी।

दरअसल, यह अर्थव्यवस्था आज भी खासी चमकदार है। लेकिन उसके साथ दूसरी हकीकत यह है कि उत्पादन, वितरण,एवं उपभोग की अर्थव्यवस्था बदहाल रही है। उस वजह से रोजगार की हालत एवं बहुसंख्यक आबादी की रोजमर्रा की जिंदगी बिगड़ने की कहानियां चारों और मौजूद हैं। महंगाई और बेरोजगारी दो ऐसे मोर्चे पर हैं, जिन पर वर्तमान सरकार को नाकाम बताया जाता है।

ऐसे में नरेंद्र मोदी सरकार की पूरी जुगत ऐसे आंकड़े जुटाने में रही है, जिससे वह इन कहानियों पर परदा डाल सके। एचसीईएस की ताजा रिपोर्ट से सचमुच ऐसा होता है या नहीं, यह दीगर सवाल है। लेकिन नीति आयोग का तुरंत उसको लेकर उपरोक्त ऊंचे दावे कर डालना सरकार की उसी कोशिश की एक मिसाल माना जाएगा।    

वरना, इस रिपोर्ट से यह सामने नहीं आया है कि देश में चारों और खुशहाली फैली हुई है। इस रिपोर्ट से प्रथम दृष्टया यह धारणा जरूर बनती है (या कहा जाए कि जानबूझ कर इसे बनाया गया है) कि 2011-12 की तुलना में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आम उपभोग खर्च बढ़ा है। लेकिन ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि 2011-12 में सर्वेक्षण के लिए अपनाई गई विधि को 2022-23 में हुए सर्वे में बदल दिया गया। इसलिए तब की रिपोर्ट से वर्तमान रिपोर्ट की तुलना ना तो तार्किक है, और ना ही ऐसा करना उचित कहा जाएगा। ताजा सर्वे रिपोर्ट के बारे में सिर्फ यह कहा जा सकता है कि यह आज की हकीकत को बताती है।

ये बातें गौरतलब हैः

इस तथ्य को ध्यान में रखा जाए, तो नीति आयोग के सीईओ की यह दलील उचित मालूम नहीं पड़ती कि परिवारों के औसत खर्च में खाद्य खर्च का हिस्सा सचमुच घट गया है। बहरहाल, अगर सरकार सीपीआई में इसका वजन कम करना चाहती है, तो यह तभी उचित माना जाएगा जब मुफ्त राशन और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के तहत मिलने वाली अन्य नकदी को स्थायी कर दिया जाए। वरना, अगर भविष्य में सरकारें राजकोषीय अनुशासन के तर्क पर इन्हें वापस लेती हैं- या इनमें कटौती करती हैं, तो महंगाई मापने का प्रस्तावित नया तरीका आज की तुलना में यथार्थ से और भी ज्यादा कट जाएगा। 

वैसे भी अगर पूरे संदर्भ को ध्यान में रखें, तो कहा जा सकता है कि उपभोग खर्च का बढ़ना परिवारों की आम माली स्थिति सुधरने का ठोस संकेत नहीं है। परिवारों की बेहतर स्थिति का अंदाजा तब लगेगा, जब परिवारों की आमदनी की स्थिति भी सामने आए। कई बार परिवारों को अपनी बचत की रकम के जरिए या ऋण लेकर भी कुछ अनिवार्य उपभोग खर्च करने पड़ते हैं। ये खर्च भी एचसीईएस में शामिल हो जाता है।

चूंकि 2011-12 के सर्वे से ताजा सर्वे की तुलना उचित नहीं है, इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि वास्तव में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी जरूरी सेवाओं पर गुजरे दस वर्षों में कितना उपभोग खर्च बढ़ा। लेकिन अगर सर्वे रिपोर्टों को ध्यान में रख कर अनुमान लगाएं, तो ऐसा लगता है कि इसमें ठोस वृद्धि हुई है। ताजा सर्वे के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में परिवारों ने औसतन अपनी आमदनी का 24.15 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 22.78 प्रतिशत हिस्सा इन सेवाओं पर खर्च किया।

इस संदर्भ में ऋण संबंधी आंकड़ा महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अखबार द फाइनेंशियल टाइम्स ने कुछ रोज पहले इस बारे एक रिपोर्ट छापी थी। उसके मुताबिक 2011-12 की तुलना में 2023-24 की दूसरी तिमाही तक जीडीपी की तुलना में घरेलू ऋण बढ़ कर 26.7 से 38.3 प्रतिशत तक पहुंच गया। इस दौर आवासीय कर्ज में 14.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, जबकि गैर-आवासी ऋण में 21.5 प्रतिशत इजाफा हुआ। आखिर गैर-आवासीय कर्ज में इतनी बढ़ोतरी का राज़ क्या है? क्या यह स्वास्थ्य और शिक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए लिया गया? जिस समय ऐसी जरूरी सेवाओं का पूरा बाजारीकरण कर दिया गया है, इस सवाल का उत्तर समझना आसान है।

इन सबके बावजूद कुल सूरत यह उभरी है कि ग्रामीण इलाकों में सबसे धनी पांच प्रतिशत परिवार औसतन हर महीने 10,501 और शहरी इलाकों में 20,824 रुपये उपभोग खर्च कर सकने की स्थिति में पहुंचे हैं। टॉप 10 फीसदी ग्रामीण परिवारों को छोड़ दें, तो गांवों में बाकी 90 फीसदी परिवारों का औसत उस औसत खर्च (3,773 रु.) से काफी नीचे चला जाएगा, जो ताजा सर्वे से सामने आया है। क्या इसे खुशहाली की तस्वीर कहा जाएगा?

इसके बावजूद सरकारी एजेंसियां ताजा आंकड़ों लेकर खुशफहमी फैलाने में जुट गई हैँ। इस सिलसिले में यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि इसके ठीक पहले आखिरी सर्वे साल 2017-18 में हुआ था। लेकिन उसकी रिपोर्ट को सरकार ने जारी नहीं किया। बाद में एक बिजनेस न्यूजपेपर में वह रिपोर्ट लीक हो गई। उससे सामने आया कि आजादी के बाद पहली बार आम घरेलू उपभोग खर्च में गिरावट आई है। खास कर ग्रामीण इलाकों में यह गिरावट ज्यादा थी। जाहिर है, उस रिपोर्ट से सरकार की आर्थिक प्राथमिकताएं सवालों के घेरे में आतीं। तो वह रिपोर्ट जारी ही नहीं की गई। इस बीच सरकार की आर्थिक नीतियों और प्राथमिकताओं में कोई बदलाव नहीं आया है। संभवतः इसीलिए सर्वे की विधि बदल दी गई।

इसके बावजूद जो सामने या, वो यह है कि

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के कृषि सर्वे से यह सामने आया था कि देश में 50.2 प्रतिशत परिवार कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। अब ताजा सर्वे ने बताया है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के भीतर कृषि की हैसियत गिर रही है।

कृषि क्षेत्र में इस पर पूरी तरह निर्भर दिहाड़ी और खेतिहर मजदूरों को भी शामिल किया जाता है। ताजा रिपोर्ट में कृषि निर्भर परिवारों के उपभोग खर्च में आई गिरावट का एक कारण यह माना गया है कि कोरोना महामारी के दौरान शहरों से गांव लौटे मजदूरों में से अनेक वहीं रह गए हैं, जिससे श्रमिकों की अधिकता के कारण उनकी मजदूरी घट गई है।

कुल मिलाकर यह तस्वीर उभरती है कि खेती लगातार अलाभकारी होती जा रही है। इसका बड़ा कारण लागत में लगातार बढ़ोतरी और फसल की कीमत में भारी उतार-चढ़ाव भी रहे हैं। जब कृषि पर आज भी भारतीय आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा निर्भर है और उस क्षेत्र से जुड़े लोगों का उपभोग खर्च तुलनात्मक रूप से गिर रहा है, तो प्रश्न है कि आखिर देश में खुशहाली की खुशफहमी का क्या आधार हो सकता है?

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