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*गीताराग अलापने वाले इसके अन्याय पर चुप क्यों?*

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         ~ पुष्पा गुप्ता 

गीताप्रेस की रामचरितमानस का मूल संपादक है. गीता प्रेस ने जब रामचरित मानस छापने का निर्णय किया तो पाठ संपादन के लिए होनहार युवक नंददुलारे बाजपेयी को यह काम सौंपा!

    नंददुलारे जी 1929 में एमए हिंदी के बीएचयू के टॉपर थे! वे बाबू श्यामसुन्दर दास और आचार्य शुक्ल के प्रिय विद्यार्थियों में भी थे!

        उन्होंने श्रम और लगन से 1937 से 1938 तक दो साल में वह पाठ तैयार किया जो आज गीता प्रेस की रामचरितमानस है! इस काम में उनके एक गीताप्रेस से प्राप्त सहायक भी थे चिम्मन लाल गोस्वामी। 

रामचरितमानस का कल्याण अंक के रूप में प्रकाशन 1938 में हुआ। इसमें तब के नंद दुलारे बाजपेयी ने पाठ निर्धारण पर एक विस्तृत आलेख लिखा और आगे मानस परिशिष्ट अंक में मानस के व्यापार पर एक निबंध लिखा। यह अंक 1939 में प्रकाशित हुआ। 

     आगे नंद दुलारे बाजपेयी जी हिंदी के आचार्य और विद्वान होकर सागर विश्व विद्यालय चले गए और वहां अध्यक्ष भी हुए! किंतु गीता प्रेस ने उनके द्वारा संपादित रामचरितमानस से उनका नाम हटा दिया। 

जिस बात पर हिंदी को गर्व करना था वह बात हिंदी वाले जानते भी नहीं.

   यह तो है हिंदी के लोगों की वास्तविकता। अभी 2016 में हिंदी के विद्वान कवि आलोचक विजय बहादुर सिंह जी ने उन दो निबंधों को तुलसीदास और सूरदास पर लिखे आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी के अन्य निबंधों के साथ एक किताब के रूप में संपादित किया है, जिसे इलाहाबाद के साहित्य भंडार ने प्रकाशित किया है। 

     लेकिन गीताराग अलापने वाले हिंदी के लोग इस बात पर कभी गीता प्रेस से प्रश्न नहीं पूछेंगे कि उनके एक विद्वान का हक मारने का अधिकार गीता प्रेस को किसने दिया।

    अब अकसर हनुमान प्रसाद पोद्दार का नाम दिया जाता है और वह संपादकीय भी हटा दी गई है।

    राम शलाका प्रश्नावली प्रकाशित करने के लिए जगह है लेकिन रामचरितमानस के संपादक का नाम देने के लिए गीता प्रेस वालों के पास स्थान नहीं है।

आप सब चाहें तो वह दोनों आलेख सूर और तुलसी शीर्षक नाम से प्रकाशित किताब में देख सकते हैं। वहां विजय बहादुर सिंह जी ने वे आलेख दिए हैं जो गीता प्रेस की रामचरितमानस के आगे के संस्करणों से निकाल दिए गए हैं।

     चिम्मनलाल जी आगे भी गीता प्रेस में बने रहे तो उनका नाम कहीं न कहीं प्रचारित होता रहा लेकिन! लेकिन हिंदी वाले नंददुलारे का नाम गुम कर दिया गया!

यह एक ऐतिहासिक अन्याय तो सामने है। अन्य अनेक अन्याय दबे होंगे दबाए गए होंगे।

“गीता प्रेस में रहना है तो पोद्दार पोद्दार कहना है” का मंत्र गोरखपुर में बहुत लोकप्रिय रहा है। हनुमान प्रसाद जी को अपनी अमरता चाहिए थी तो उन्होंने नंद दुलारे बाजपेयो जी की कीर्ति को छीन लिया।

      इस हकमारी पर गीता राग वाले मौन रहेंगे! शायद नंद दुलारे बाजपेयी जी प्रगतिशील और वामपंथी जो नहीं थे! लेकिन भाई वे हिंदी साहित्य वाले तो थे और यह बात हमको नहीं भूलनी चाहिए कि मालिक ने मजदूर का हक दबाया है!

नंद दुलारे बाजपेयी जी ने गीता प्रेस की नीतियों से असंतुष्ट होकर वहां से इस्तीफा दे दिया था. वहां से प्रयाग इलाहाबाद आर गए थे और 1941 में बीएचयू में अध्यापक नियुक्त हुए!

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