महेंद्र मिश्र
मिलिंद देवड़ा ने कांग्रेस छोड़ कर शिवसेना का शिंदे गुट ज्वाइन कर लिया है। इस तरह से सिंधिया, जितिन प्रसाद के बाद राहुल की ‘यंग ब्रिगेड’ के एक और सदस्य ने भी उनका साथ छोड़ दिया। संयोग से देवड़ा भी खानदानी तौर पर कांग्रेस से जुड़े हुए थे। उन्होंने अपने इस्तीफे के साथ इस बात को चिन्हित भी किया जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस से 55 साल पुराना रिश्ता खत्म हुआ। इसमें उनके पिता मुरली देवड़ा द्वारा पार्टी में बिताया गया समय भी शामिल था। लेकिन यहां एक बात का जिक्र करना जरूरी है कि यह खानदान राजनीति में आने से पहले व्यवसायी था। और कहा जाता है कि देवड़ा परिवार पेट्रोलियम का बिजनेस करता है। बहरहाल इस पर बात बाद में।
अभी जो तात्कालिक कारण रहा है मिलिंद देवड़ा के कांग्रेस छोड़ने का उस पर आते हैं। इसकी मुख्य वजह लोकसभा का टिकट है। दरअसल सीट बंटवारे में उनकी दक्षिण मुंबई की सीट शिवसेना (यूबीटी) को मिलने जा रही है क्योंकि पिछले चुनाव में यहां से उसका प्रत्याशी जीता था। और सामने कांग्रेस की तरफ से प्रतिद्वंद्वी के तौर पर मौजूद मिलिंद देवड़ा हार गए थे। लिहाजा यहां से अब देवड़ा को कांग्रेस की तरफ से टिकट नहीं मिलने जा रहा था। और किसी दूसरी सीट पर कांग्रेस शायद टिकट देती नहीं और मिल भी जाता तो देवड़ा शायद जीतने की स्थिति में नहीं होते। यह सीट देवड़ा की पारिवारिक सीट थी और अगर देवड़ा का कुछ हो सकता था तो इसी सीट पर होना था। लिहाजा इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पाल्हा बदलना ही जरूरी समझा।
लेकिन इससे भी आगे बढ़कर देवड़ा के बीजेपी में शामिल होने के पीछे एक दूसरा भी कारण है जो व्यक्तिगत से ज्यादा वैचारिक है। बीजेपी भले ही कांग्रेस पर वंशवादी पार्टी होने का आरोप लगाती हो लेकिन सच्चाई यह है कि असली वंशवादी पार्टी बीजेपी है। अगर आप संख्या गिनाएंगे तो शायद कांग्रेस से ज्यादा वंश के वट वृक्ष वहां फलते-फूलते मिल जाएंगे। अनुराग ठाकुर, सिंधिया, रविशंकर प्रसाद, पंकज सिंह से लेकर तमाम उदाहरण उसमें शामिल हैं। लेकिन इससे भी ज्यादा इसके पीछे एक वैचारिक कारण है। बीजेपी अपने मूल चरित्र में एक पिछड़ी, दकियानूस, सामंती पार्टी है। जिसमें इस तरह के सामंती परिवारों से लेकर राजे-रजवाड़ों को अपने भीतर समेटने कहिए या फिर उनको संगठित करने की उसमें अद्भुत क्षमता है। और एक तरह से कहिए तो ये उसके लिए नींव का काम करते हैं। अनायास नहीं पार्टी को सिंधिया के घराने से लेकर राणा प्रताप के घराने तक का समर्थन मिलता रहा है।
कहा तो जा रहा है कि हालिया राजस्थान विधानसभा के चुनाव में राणा प्रताप के खानदान से बीजेपी का कोई प्रत्याशी हो इसके लिए संघ प्रमुख मोहन भागवत तक ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी और उसमें उन्हें सफलता भी मिली। जब उनके खानदान का एक शख्स बीजेपी का प्रत्याशी बना और उसने सीपी जोशी जैसे कांग्रेस के कद्दावर नेता को हरा दिया। लिहाजा वंशवाद और रजवाड़ों की पूरी व्यवस्था को बीजेपी का अभयदान हासिल है। और पार्टी भी इसीलिए वर्तमान और भविष्य नहीं और न ही आजादी की लड़ाई और उससे पैदा हुए संविधान बल्कि मध्य युग के दौर की हिंदू-मुस्लिम लड़ाइयों और उसमें शामिल राजे-रजवाड़ों से प्रेरणा लेती है।
और उसके लिए आजादी का मतलब अंग्रेजों की गुलामी से आजादी नहीं बल्कि पूरे मुस्लिम शासन और उसके तमाम प्रतीकों, विरासत और यहां तक कि उसकी सांस्कृतिक पहचानों से आजादी है। और इस मामले में पुराने हिंदू प्रतीकों को फिर से जिंदा करना और नये वंशवादी ठीहों को और मजबूत करना उसकी प्राथमिकता में शामिल हो जाता है। इसीलिए देवड़ा हों या फिर जितिन प्रसाद सभी को बीजेपी सबसे मुफीद दिखने लगती है।
लेकिन इससे भी आगे एक और कारण है जिसने देवड़ा को ऐसा करने के लिए मजबूर किया है। दरअसल राहुल गांधी के नेतृत्व में अब कांग्रेस बदल रही है। यह वह पुरानी कांग्रेस नहीं रही जिसमें कोई भी किसी भी पहचान के साथ रह सकता था। और उसमें भी एक लिबरल हिंदू और अपर क्लास और कास्ट के लिए सबसे मुफीद जगह हुआ करती थी। लेकिन पिछले दस सालों में बीजेपी के सत्ता में रहने के बाद स्थितियां बिल्कुल बदल गयी हैं। ऊपर की तीनों कटेगरी के लिए सबसे मुफीद जगह कांग्रेस नहीं बल्कि बीजेपी हो गयी है। देश में एक वैचारिक ध्रुवीकरण स्थान ले रहा है। हालांकि इसके पीछे इसका अपना एक वर्गीय परिप्रेक्ष्य भी है। अयोध्या राम मंदिर के उद्घाटन और उसमें कांग्रेस के स्टैंड ने इसको और साफ कर दिया है। इसमें कांग्रेस ने बहुत साफ स्टैंड लिया है। उसने कहा है कि धर्म किसी का व्यक्तिगत मामला होता है।
उसको मानने, न मानने या फिर पालन करने या न करने के लिए कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र है। कोई किसी को किसी खास धर्म को मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है। और न ही यह कोई सार्वजनिक मुद्दा बनाया जा सकता है। और इसके नाम पर राजनीति करना सबसे बड़ा गुनाह है। इसी को सेकुलरिज्म कहते हैं और यही इसका बुनियादी विचार होता है। स्टेट और रिलीजन का एक दूसरे से अलगाव। लेकिन इस आधुनिक विचार से जो लोग सहमत नहीं हो पाएंगे उनके लिए कांग्रेस में रह पाना अब मुश्किल हो जाएगा। मौजूदा कांग्रेस पुरानी कांग्रेस नहीं रही। और न ही वह पुराने तरीके से आगे बढ़ सकती है।
आजादी की लड़ाई में कांग्रेस का सिर्फ एक मकसद था अंग्रेजों को देश से भगाना। और इस लक्ष्य के साथ जो भी सहमत था वह कांग्रेस का सदस्य हो सकता था। इसमें कट्टर हिंदू से लेकर कट्टर मुस्लिम और प्रगतिशील से लेकर समाजवादी सभी शामिल थे। लेकिन आजादी के बाद देश का निर्माण कैसे होगा यह एक यक्ष प्रश्न था। एक हद तक नेहरू ने इसे हल किया। जिसके तहत उन्होंने सेकुलरिज्म और लोकतंत्र की जमीन पर एक आधुनिक राष्ट्र के निर्माण की संकल्पना सामने रखी और 17 सालों तक देश को उसके आधार पर आगे बढ़ाया। इसी का नतीजा था कि तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतें जो उनसे सहमत नहीं थीं उसी दौर में उनसे अगल भी होती गयीं।
वह कभी आरएसएस-जनसंघ और बीजेपी के साथ गयीं तो कभी रजवाड़ों की पार्टी के तौर पर उभरी ‘स्वतंत्र पार्टी’ का हिस्सा बनीं। लेकिन नेहरू की वह धारा आगे बढ़ती इसके बजाय कांग्रेस के बीच के नेतृत्व ने समझौता कर लिया। और तमाम तरह की प्रतिक्रियावादी तत्वों को अपने भीतर समेटते हुए एक उदार हिंदू पार्टी होने का जो रास्ता अपनाया उसने हिंदू कट्टरपंथ की सबसे मजबूत धारा आरएसएस-बीजेपी को हर तरीके से मजबूती प्रदान की। और आज जब सत्ता के शिखर पर चढ़कर हिंदुत्व की कट्टरपंथी ताकतें फासीवादी अट्टहास कर रही हैं और पार्टी तो पार्टी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को लील जाने के लिए तैयार हैं तब कांग्रेस को होश आया है। उसको इस बात का एहसास हो रहा है कि उसने एक अजगर पैदा कर दिया है जो खुद उसी को लील जाने के लिए तैयार है। लिहाजा उसने सेकुलरिज्म की चाकू को फिर से धार देना शुरू कर दिया है। और वह इसको कितना मजबूत कर पाती है यह सब कुछ भविष्य पर निर्भर है।
लेकिन इसके पीछे एक वर्गीय परिप्रेक्ष्य भी है। हालिया आर्थिक आंकड़े बताते हैं कि देश में साढ़े छह करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी सालाना आमदनी साढ़े आठ लाख रुपये है। 2015 में इनकी संख्या तकरीबन ढाई करोड़ थी। और 2027 तक इसके दस करोड़ होने की संभावना है। लेकिन इससे इतर बड़ी आबादी की स्थिति लगातार नीचे गिरती जा रही है। और वह महंगाई की मार और आय की कमी से जूझते हुए लगातार गरीबी के दायरे में सिमटती जा रही है। 2014 के बाद देश की अर्थव्यवस्था में आया यह ध्रुवीकरण पूरे देश और उसकी जनता के लिए घातक साबित हो रहा है। जिसमें पूरी सुख-सुविधा, संसाधन और इंफ्रास्ट्रक्चर केवल एक क्लास के लिए हैं। बाकी को उनकी नियति पर छोड़ दिया गया है। अब इस देश में अगर हाईवे बढ़े हैं तो उसका इस्तेमाल कौन कर रहा है?
जिसके पास उसका टोल चुकाने की क्षमता हो। मुंबई में समुद्र पर बनी अटल सड़क का इस्तेमाल कौन कर सकेगा जिसके पास 12500 रुपये महीने अलग से देने की क्षमता होगी। 7000 रुपया महीने में जीवन गुजारने वाले के लिए इस पर जाना सिर्फ कल्पना ही हो सकती है। हां एका-आध बार पर्यटन के मकसद से ज़रूर उसकी सैर कर सकता है। और इस वर्ग की स्वाभाविक पार्टी बीजेपी बनी है। उसने कार्पोरेट के नेतृत्व में देश के विकास का जो गुब्बारा फुलाया है उसकी हवा इसी साढ़े छह करोड़ लोगों तक सीमित है। इस हिस्से को उसने आक्सीजन दिया है लेकिन यह आक्सीजन बाकी को मिले कार्बन डाई आक्साइड की कीमत पर है। ऐसे में मिलिंद देवड़ा जैसे लोग जो उच्च वर्गीय होने के साथ अपर कास्ट भी हैं, बीजेपी उनकी स्वाभाविक पार्टी हो जाती है। जबकि इससे इतर दूसरे हिस्से की कांग्रेस और दूसरी पार्टियां प्रतिनिधि बन रही हैं।
जनचौक से साभार