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देश प्रदेश ,शहर गांव, समाज जाति, धर्म भाषा, परिवार सम्पत्ति को लेकर हमारा मन सिकुड़ क्यों जाता है ?

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सबकी धरती ,सब धरती के ‘भाव से दूर क्यों है मनुष्य 

           अनिल त्रिवेदी

असंख्य ग्रह नक्षत्रों व तारामंडल को लेकर हमारे मन में कभी यह विचार नहीं आता की यह आकाशगंगा किसकी है? धरती को लेकर भी मेरे तेरे का भाव भी हमारे मन में नहीं आता।तो फिर देश प्रदेश ,शहर गांव, समाज जाति, धर्म भाषा, परिवार सम्पत्ति को लेकर हमारा मन सिकुड़ क्यों जाता है ? मनुष्य का मन जो निराकार रूप में साकार मनुष्य की सोच समझ और जीवन क्रम को संचालित करता है इतना व्यापक होकर भी तेरे मेरे की संकीर्ण मानसिकता में क्यों उलझ जाता है?धरती सबकी सब धरती के वाला व्यहारिक भाव दुनिया के  लोगों में अबतक क्योंकर नहीं पनपा?धरती की प्राकृतिक सीमा असीम है। धरती हर कहीं आकाश से धीरी हुई हैं । धरती पर मनुष्य निर्मित देशों में मनुष्य कृत राजनैतिक कारकों के चलते ही इतने सारे देशों की काल्पनिक सीमाएं और राष्ट्रीयताए विकसित हुई हैं। जो काल और परिस्थिति वश बदलती रहती हैं। इन सीमाओं से उपजे विवादों से देशों के बीच विवाद, तनाव और युद्ध होते रहते हैं।देशों की सीमा में समय काल परिस्थिति अनुसार  परिवर्तन राजनैतिक आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्वगत कारकों से होता रहता है।जैसे दुनिया में पानी ,नदी या जल प्रवाह के विवादों का तो इतिहास बहुत लम्बा है पर हवा और बादलों को लेकर मानव समाज में विवाद नहीं हुआ।हवा प्रकाश और बादल में मनुष्य अभी तक स्वामित्व भाव खोज नहीं पाया तो विवाद ही नहीं हुआ।इस जगत में जीवों के मन में जहां जहां और जैसे जैसे स्वामित्व का भाव पैदा हुआ वहां वहां ही मेरे तेरे अधिकार का सवाल जन्मा। पर धरती के साथ सीमा का कोई सवाल या विवाद ही नहीं है।धरती की सीमा का न कोई विचार है और न हीं कोई विवाद।यही बात जीवन और जीव में भी दिखाई देती है।जीवन सबका है जीव में मतभेद हैं।जीवों में भी मनुष्य सबसे निराला हैं।मनुष्य न तो खुद से संतुष्ट होता हैं न जगत में घट रहे घटनाक्रम से।मनुष्यों में से कोई भी अभेद के शाश्वत स्वरूप को जीवन के प्रारम्भ से ही समझ नहीं पाता तभी तो हर बात में इतने मत मतान्तर का जन्म होना मनुष्य की विचार शक्ति के निरन्तर प्रवाह का अंतहीन सिलसिला बन गया हैं।इसलिेए समान विचार और विरोधी विचार को लेकर मनुष्य का मन भेद मूलक विचारों से निरन्तर शान्त और अशान्त भाव के साथ जीता रहता है।विचारों को लेकर हमारे मन में समभाव नहीं रह पाता जैसे मानव को लेकर मेरे तेरे के भाव ने धरती पर मनुष्यों में आपसी टकराहट को जन्म दिया , वैसा ही विचारों को लेकर भी सारी दुनिया में हुआ। मनुष्य में भी विचार भिन्नता का अतिशय विकास होता ही रहता है।जैसे हम मनुष्य को केवल एक सहज मनुष्य के रूप में ही नहीं देख समझ पाते हैं वैसे ही भाव मनुष्य के विचारों के साथ भी है।

        देशों में नागरिकता का सवाल और मूल निवासी और बाहरी का सवाल उठा ही देशों की मनुष्य कृत सीमाओं के कारण ।धुसपैठियें या बिना अनुमति या अवैध रूप से रहने वाले लोग दुनिया के हर देश में होते हैं। पर पूरी धरती के संदर्भ में तो एक भी मनुष्य न तो बाहरी है न ही धुसपैठिया ही है।सारे मनुष्य इसी धरती या दुनिया में जन्में लोग हैं। इस तरह अंदर का, बाहरी या  बिना अनुमति का ,सवाल धरती के स्तर पर पैदा होने का सवाल कहीं भी कभी भी मनुष्य के जीवन में पैदा ही नहीं हुआ। देश निकाला देने का विचार भी संकीर्ण मानसिकता है।धरती या दुनिया से निकाल बाहर करना मनुष्य के बस की बात ही नहीं है।तभी तो मनुष्यता और नागरिकता की मूल सोच समझ में बुनियादी अंतर है। दुनिया भर में देशों की रक्षा के लिए सेना रखने का विचार जड़ें जमा चुका है पर दुनिया की रक्षा के लिए सेना खड़ी करने का विचार आज तक भी जन्मा ही नहीं। दुनिया के देशों को आपस में एक दूसरे से खतरा लगता है। मित्र देशों और शत्रु देशों की अवधारणा बहुत गहरेपन से सभी देशों और उनके नागरिकों के मन में जड़ें जमा चुकी हैं।पर धरती की रक्षा के लिए सेना खड़ी की जाय यह सवाल एक दूसरे से संभावित युद्ध की आशंका रखने वाली जमाते भी मन में खड़ा नहीं कर पाई। क्या धरती पर किसी सभ्यता के हमले की कोई संभावना नहीं है?अभी तक हम परिकल्पना ही करते हैं कि अतंरिक्ष में कोई सभ्यता हो सकती है।इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि हम जितने निकटतम स्वरूप में अस्तित्व में होते हैं, उतने ही प्रतिद्वंद्वी भावना से प्रेरित होकर एक दूसरे से भयग्रस्त हो अपनी अपनी सीमा और सेना खड़ी कर स्वयं की सुरक्षा करने को तैयार हो जाते हैं। धरती पर कोई हमला हो सकता है यह विचार ही नहीं आता है।इस तरह हमारी चिंता निकटतम स्वरूप में ही पैदा होती है अधिकतम दूरी का स्वरूप हमारे मन और विचार को भय या प्रतिद्वंद्वी भावना से भयग्रस्त नहीं कर पाता। यही विचार का वह व्यापक स्वरूप है जो हमें भयमुक्त कर प्रतिद्वंद्वी भावना रहित कर देता है। धरती का विराट स्वरूप उसे मनुष्य ही नहीं जीवन मात्र का घर बना देता है और मनुष्य कृत सीमाओं में बटी उसी धरती के देश ,लोग और उनकी सीमाएं अंतहीन विवादों का अंतहीन सिलसिला बन जाती है। शायद यही निकटतम और अधिकतम दूरी का अन्तर्सम्बन्ध हैं।

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