भंवर मेघवंशी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा का अपने विरोधियों को रावण घोषित करना कोई नई प्रवृति नहीं है, बल्कि वे पहले से ही ऐसा करते रहे हैं। आज़ादी के पहले 1945 में उन्होंने महात्मा गांधी के ऐसे कार्टून बनाए थे, जिसमें वे दस सिर वाले रावण दिखाई पड़ रहे हैं और जैसे रामकथा का दशरथ पुत्र रामचंद्र लंकाधिपति महात्मा रावण को युद्ध के दौरान तीर मारता हैं, वैसे ही गांधी को तीर से मारा जा रहा था।आज राहुल गांधी महज़ एक सांसद होने के बावजूद सत्ता के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की प्रमुख आवाज़ बने हुए हैं। अब वे सिर्फ़ निर्वाचन की राजनीति वाले दलीय नेता मात्र न होकर भारत के आम जन, पीड़ित वंचित व पिछड़े-तबकों के हमदर्द के रूप में स्थापित होते जा रहे हैं।
गांधी जब तक वर्ण व्यवस्था की प्रशंसा करते रहे, जाति व्यवस्था के विरोध में नहीं हुए, तब तक आरएसएस और हिंदुत्व सोच के लोग उनके ख़िलाफ़ नहीं हुए। लेकिन जब गांधी ने छुआछूत के ख़िलाफ़ जन-अभियान शुरू किया और स्वयं भी अछूत बस्तियों में जाकर रहना शुरू कर दिया, पूना पैक्ट के अनशन के दरमियान कट्टर सनातनी हिंदुओं को अछूतों के लिए मंदिरों के द्वार खोलने पड़े, कुओं पर पानी भरने की अनुमति देनी पड़ी तथा पूना पैक्ट पर पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे हिंदू महासभा के तत्कालीन नेताओं को दस्तख़त करने पड़े तो गांधी नायक से खलनायक की श्रेणी में पहुंचने लगे। गांधी को बार-बार मौखिक, बौद्धिक और शारीरिक हमले झेलने पड़े और अंतत: कट्टर सनातनियों ने उनकी गोली मार कर हत्या तक कर दी। उसमें जो लोग शामिल रहे, उनको आज आदर्श बनाया जा चुका है और गांधी के हत्यारे गोडसे का मंदिर बनाकर उसकी पूजा शुरू कर दी गई है।
गांधी तो मूलतः सनातनी आस्तिक हिंदू ही थे। वर्ण, जाति, शाकाहार, ब्रह्मचर्य, गीता और गाय सबको मानने वाले गांधी हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के ख़िलाफ़ आमरण अनशन तक पर बैठे और डॉ. आंबेडकर को उनके जान की रक्षा के लिए बेमन से झुकना भी पड़ा। जिस गांधी की ज़ुबान पर अंत तक राम का नाम था और जिसके हाथ में गीता थी, उस गांधी को रावण बताकर क्यों मार डाला गया? क्या पाकिस्तान की वजह से? मुस्लिम तुष्टिकरण की वजह से? पचपन लाख पाकिस्तान को देने की बात की वजह से? हिंदू-मुस्लिम भाईचारे पर ज़ोर देने की वजह से?
शायद इनमें से भी कुछ बातों ने कट्टर हिंदुत्ववादियों को हत्या जैसा क्रूर कर्म करने की दिशा में आगे बढ़ाया हो, लेकिन गांधी का वध करने की प्रेरणा तो वही विचारधारा देती है, जो अपने को सबसे श्रेष्ठ, सबसे ऊंचा और सबसे पवित्र मानने की बीमारी से ग्रस्त है। इसका पूरा इतिहास तथाकथित वधों से रक्तरंजित है। गांधी के हत्यारे गांधी के क़त्ल को वध कहते हैं। सनातन संस्कृति में अपने विरोधियों का वध किया जाता है। इस हिंसा को हिंसा नहीं माना जाता। यह शुभ कर्मों में गिना जाता है। यह धरती से कथित पाप को मिटा कर धर्म को पुनर्स्थापित करने का पुण्य कर्म बन जाता है।
गांधी ने अछूत जो कि सनातनियों के दास थे और उनसे अपवित्र व इतने नीचे कि उनकी छाया तक से परहेज़ किया जाता था, जिनको दक्खिन टोलों में बसाया जाता ताकि उनको छूकर गुजरने वाली हवा भी उच्च कहे गए वर्ण के लोगों को न छू पाए, गांधी ने उनके लिए उदारता और हृदय परिवर्तन की मांग की और छुआछूत का विरोध किया, अछूतों को सार्वजनिक स्थलों में प्रवेश और उनको अपने आश्रम में ले आने की ज़िद ने गांधी को पहले भी कट्टर सनातनियों का विरोधी बनाया ही था, लेकिन जब उन्होंने सन् 1915 में साबरमती आश्रम में गुजरात के एक दलित बुनकर दंपत्ति को अपने आश्रम में जगह दी तो जो सनातनी उनके प्रशंसक और दानदाता थे, वे सभी विरोधी हो चुके थे और साबरमती आश्रम के बंद होने की नौबत आ गई थी। इसके बावजूद गांधी ने अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ पूरी मजबूती दिखाई। छुआछूत उन्मूलन के गांधी के तौर-तरीक़ों से हमारी असहमति हो सकती है, लेकिन उनके प्रयासों को ख़ारिज किया जाना संभव नहीं है।
खैर, गांधी तब संघ व हिंदुत्ववादियों के लिए रावण हो गए जब उन्होंने जाति और वर्ण की श्रेष्ठता के विरुद्ध काम शुरू कर दिया और उन्होंने जाति प्रथा व वर्ण पर अपने विचार बदल लिये। सन् 1932 के पूना पैक्ट और यरवदा जेल के आमरण अनशन के बाद गांधी बदलने लगे। उन्होंने छुआछूत उन्मूलन को प्रमुखता देनी शुरू की और केवल उन्हीं शादियों में जाने की बात कहने लगे जो अंतरजातीय हों तथा जिसमें एक पक्ष अछूत हो। गांधी सहभोज के समर्थक तो पहले से ही थे। अब वे अंतरजातीय विवाहों के समर्थन में भी आ गए थे। अछूतों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व में हिस्सेदारी पूना पैक्ट से शुरू हो ही चुकी थी। ये सभी बातें कट्टर सनातनी ब्राह्मणवादी हिंदुओं का ग़ुस्सा भड़काने के लिए पर्याप्त थी, इसका नतीजा गांधी की हत्या के रूप में सामने आया।
अब बात करते हैं राहुल गांधी की, जिनको आरएसएस की राजनीतिक इकाई भाजपा ने रावण घोषित किया है। वैसे तो आरएसएस और भाजपा ने लंबे समय तक हज़ारों करोड़ रुपए लगाकर उनकी पप्पू छवि बनाई और यह साबित करने की कोशिश की कि वे बुद्धिमान व्यक्ति नहीं हैं। उनकी ग़ैरसंवेदनशील, अनिच्छुक राजनेता की छवि भी गढ़ी गई जो धर्म आध्यात्मिकता का विरोधी है और भोगवादी व्यक्ति है। इसके साथ ही उनको राम विरोधी, हिंदू विरोधी तथा भारतीयता का विरोधी व्यक्ति भी कहा गया।
राहुल गांधी के प्रति आरएसएस व भाजपा राजनीति जितनी निर्मम और असहिष्णु रही है, उतनी शायद ही किसी भारतीय राजनेता के प्रति रही हो। उनको जमकर गालियां दी गईं, मज़ाक़ उड़ाया गया, उनके एडिटेड वीडियो वायरल किए गए, पूरी ट्रोल आर्मी लगी। फिर मीडिया ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी। हर तरफ़ से राहुल गांधी का चरित्र हनन किया गया। लेकिन राहुल गांधी इस नफ़रत के बाज़ार में अपनी छोटी-सी मोहब्बत की दुकान खोल कर बैठ गए, जैसे उन्होंने अपनी दादी और पिता की नृशंस हत्याओं की मर्मांतक वेदना को सहा, वैसे ही नफ़रत और चरित्र हत्या के इस ज़हरीले घूंट को भी पचाया और वे सच की लड़ाई के में डटे रहे।
निस्संदेह आज राहुल गांधी महज़ एक सांसद होने के बावजूद सत्ता के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की प्रमुख आवाज़ बने हुए हैं। अब वे सिर्फ़ निर्वाचन की राजनीति वाले दलीय नेता मात्र न होकर भारत के आम जन, पीड़ित वंचित व पिछड़े-तबकों के हमदर्द के रूप में स्थापित होते जा रहे हैं।
भारतीय राजनीति में राहुल गांधी का वर्तमान रूप एक विरल परिघटना है, जिसमें एक सफ़ेद टी-शर्ट और पैंट पहने साधारण से व्यक्ति के रूप में कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल चलते नज़र आते हैं। इस आधे भारत की पदयात्रा ने राहुल गांधी को लेकर बनाई गई फ़र्ज़ी पप्पू छवि की हवा निकाल दी, उनको पूरे देश से प्यार मिला और राहुल वास्तविक जननेता के रूप में उभर कर सामने आ गए। यह आरएसएस, भाजपा और उनकी ट्रोल आर्मी तथा मनुवादी मीडिया के लिए किसी सदमें से कम बात नहीं है। आज जो राहुल गांधी हैं, वे अब पूर्णकालिक राजनेता से अधिक एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मौजूद हैं, जो कभी मोटर बाइक के मिस्त्री हैं तो कभी कुली, कभी ट्रक चालक हैं तो कभी फ़र्नीचर बनाने वाले बढ़ई लोगों के साथी। अब उनकी राजनीति इस देश के साधारण लोगों की राजनीति है। उनकी भाषा बदल गई है, वे सामाजिक न्याय के प्रतिबद्ध पैरोकार के रूप के स्थापित होते जा रहे हैं।
अब जबकि राहुल गांधी खुल कर जाति जनगणना की बात कर रहे हैं। वे दलित, आदिवासी और पिछड़े सहित सभी के लिए ‘जितनी आबादी, उतना हक’ की बात कर रहे हैं तो आरएसएस व भाजपा का बौखलाना स्वाभाविक ही है। ऐसा लग रहा है जैसे कि इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है। महात्मा गांधी से राहुल गांधी तक जब-जब भी भारतीय राजनीति सामाजिक न्याय के संघर्ष की तरफ़ लौटने लगती है तो आरएसएस व भाजपा का पुरातन कट्टर सनातनी असली चेहरा उजागर होने लगता है। इसलिए उन्हें राहुल गांधी भी महात्मा गांधी की तरह ही रावण लगने लगे हैं।