अग्नि आलोक

क्यों उबल रहा है, लेह-लद्दाख?

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डॉ. सिद्धार्थ

लेह। मार्च के उस समय लेह-लद्दाख उबल पड़ा, जब दिन का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस रहता है और रात में आम तौर पर -6 डिग्री या इसके नीचे चला जाता है। चारों तरफ बर्फ जमी रहती है, नदियां और झीलें भी बर्फ बनी हुई होती हैं। इस कंपकपाती ठंड में भी लद्दाखी उबल पड़े, सड़कों पर उतर पड़े। खुले मैदान में रात-दिन अनशन करने लगे। इस उबाल की मुख्य वजह बताते हुए जनचौक से बात-चीत में लद्दाखियों के संघर्षों की उम्मीद के केंद्र बने सोनम वांगचुक ने कहा कि “4 मार्च ( 2023) को केंद्र सरकार ने साफ कह दिया कि हम किसी भी सूरत में लद्दाख को छठवीं अनुसूची नहीं प्रदान कर सकते।

जबकि लद्दाखियों की यह सबसे बड़ी मांग थी।” उन्होंने जनचौक को यह भी बताया कि गृहमंत्री अमित शाह ने तो लद्दाख के प्रतिनिधियों से यहां तक कहा कि यदि प्रधानमंत्री भी लिख के दे दें, तो भी हम लद्दाख को छठवीं अनुसूची नहीं प्रदान करेंगे। जबकि जम्मू-कश्मीर से धारा-370 खत्म करते समय इसका वादा किया गया था। यहां तक कि लद्दाख हिल्स काउंसिल का जब अक्टूबर 2020 में चुनाव हुआ तब भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में लद्दाख को छठी अनुसूची में डालने का वादा किया था। छठी अनुसूची लद्दाख के लोगों की सबसे बड़ी मांग है और पहले भी रही है। 

5 अगस्त 2019 के बाद लद्दाखी प्रतिनिधियों और केंद्रीय गृहमंत्रालय के बीच कई दौर की वर्ता हुई। गृह मंत्रायल विभिन्न बहानों से पहले तो टालमटोल करता रहा, लेकिन अंत 4 मार्च ( 2023) को साफ तौर कह दिया कि हम चाहे कुछ भी हो जाए आपको संविधान की छठी अनुसूची नहीं प्रदान करेंगे। इस पर टिप्पणी करते हुए वांचुक कहते हैं कि छठी अनुसूची की मांग सुनकर केंद्र सरकार को ऐसा लगता है कि जैसे हमने कोई पाकिस्तान का संविधान मांग लिया। जबकि हमारी संस्कृति-समाज के लिए यह सबसे बुनियादी जरूरत है। भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत पूर्वोत्तर के चार राज्यों- असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में ‘स्वायत्त ज़िला परिषदों’ (Autonomous District Councils- ADCs) की स्थापना की गई।

ये स्वायत्त ज़िला परिषद आदिवासी संस्कृति की रक्षा और उसके संरक्षण की योजना बनाते हैं। ऑटोनॉमस  डिस्ट्रिक कॉउंसिल की स्थापना के पीछे तर्क यह है कि ‘भूमि के साथ संबंध आदिवासी या जनजातीय पहचान का आधार है।’ भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय जनजातीय लोगों का नियंत्रण सुनिश्चित कर उनकी संस्कृति तथा पहचान को संरक्षित किया जा सकता है, क्योंकि ये कारक काफी हद तक जनजातीय लोगों की जीवन-शैली एवं संस्कृति को निर्धारित करते हैं। लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची देने से अमित शाह के इंकार के बाद लद्दाखियों को लगा कि उनके साथ विश्वासघात किया गया है, भाजपा और केंद्र सरकार ने उनके साथ छल किया है, उन्हें ठगा है। इसके बाद लद्दाख में गुस्से और आक्रोश की बड़ी लहर उठी। 

उनके इस असंतोष, आक्रोश और नरेंद्र मोदी सरकार के विश्वासघात से पनपे क्षोभ को स्वर देने के लिए सोनम वांगचुक सामने आए। 6 मार्च को सोनम वांगचुक ने भूख हड़ताल शुरू की। उनके साथ करीब पूरा लद्दाख खड़ा हो गया। लद्दाख के दोनों जिलों कारगिल और लेह के बाशिंदे उनके समर्थन और सहयोग में उतर पड़े। वस्तुगत से वस्तुगत रिपोर्टें भी बताती हैं कि करीब 60,000 लोगों ने इस भूख हड़ताल में सक्रिय हिस्सेदारी की। पूरे लद्दाख से लोग पैदल चलकर अनशन स्थल पर पहुंचे। एक बड़ी संख्या खुले आसमान तले रात-दिन बिताने लगी। जैसे-जैसे सोनम वांगचुक की  हालत बिगड़ती गई, देश और दुनिया का ध्यान उनकी भूख हड़ताल के कारणों और लद्दाखियों के आक्रोश की वजहों की ओर जाना शुरू हुआ। लद्दाखियों की केंद्र सरकार से मुख्य मांगें निम्न थीं- 

● राज्य में जनता द्वारा चुनी गई विधानसभा कायम की जाए

● संविधान की छठवीं अनुसूची में लद्दाख को शामिल किया जाए

● लद्दाख का अपना अलग पब्लिक सर्विस कमीशन स्थापित किया जाए

● लद्दाख के लिए लोकसभा की दो सीटें दी जाएं

लद्दाखियों की इन चार मांगों के साथ ही सोनम वांगचुक ने जिन अन्य बातों को पुरजोर तरीके से उठाया। उसमें पहली बात यह है कि यदि चीन ने भारत के उन हिस्सों पर कब्जा नहीं किया जहां 2020 से पहले लद्दाख की भेंड़-बकरियां चरने जाती थीं और उनके साथ चरवाहे जाते थे, उन जगहों तक हमें जाने की इजाजत दी जाए। इसे उन्होंने पश्मीना मार्च नाम दिया था। 

पश्मीना मार्च नाम इसलिए दिया गया, क्योंकि इन्हीं भेंड़ों से पश्मीना ( ऊन) मिलता है, जो दुनिया भर में चर्चित है। भारत सरकार ने इस मार्च की इजाजत नहीं दी, बल्कि धमकी दिया कि यदि यह मार्च किया जाता है तो हम लद्दाख में धारा-144 लगा देंगे और इंटरनेट बंद कर देंगे। जिसका सीधा मतलब था कि लद्दाख के पर्यटन कारोबार को ठप्प कर दिया जाएगा यानि लद्दाख के बाशिंदों की आर्थिक रीढ़ साल भर के लिए तोड़ दी जाएगी। हम रिपोर्ट की पहली कड़ी में जिक्र कर चुके हैं कि पर्यटन लद्दाख की आर्थिक रीढ़ है।

पर्यटन के सीजन ( अप्रैल से सितम्बर) की कमाई से ही वे शेष 6 महीने अपना जीवन चलाते हैं, जब पूरा लद्दाख बर्फ से ढंका होता है। सोनम वांगचुक ने जनचौक से बात-चीत में साफ कहा कि पश्मीना मार्च का हमारा एक उद्देश्य केंद्र सरकार के इस झूठ को उजागर करना भी था कि चीन ने हमारी एक इंच जमीन पर कब्जा नहीं किया है। वे यह भी कहते हैं कि यदि नहीं किया है, तो हम जहां तक ( 2020 तक) भेड़-बकरियां लेकर जाते थे, उससे 15 किलोमीटर पहले हमें क्यों रोक दिया जा रहा है?

दूसरी बात वह यह कहते हैं कि हिमालय के पर्यावरण को बचाया जाए, जो न केवल लद्दाख बल्कि उत्तर भारत की जीवन रेखा है। यहीं से उत्तर भारत में बहने वाली नदियां निकलती हैं। यहां के ग्लेशियर ही इन नदियों के जलस्रोत हैं। विकास के नाम पर लद्दाख के बहुत ही नाजुक पर्यावरण के साथ खेल किया जा रहा है, जो हमारे लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत भयानक साबित होने वाला है। कार्पोरेट को बिना सोचे-समझे जमीनें दी जा रही हैं, यहां के पर्यावरण को नष्ट करने वाले उद्योग लगाए जा रहे हैं।

भले ही इसके भयानक दुष्परिणाम आज न दिखें, लेकिन 30-40 सालों के भीतर सब कुछ तबाह हो जाएगा। इसे बचाना जरूरी है, न केवल लद्दाख के लिए बल्कि पूरे देश के लिए। ये बाते वांगचुक ने जनचौक से बात-चीत में दुहराई। हम सभी जानते हैं कि सोनम वांगचुक खुद ही एक बहुत ही संजीदा और विशेषज्ञ पर्यावरणविद हैं। उन्होंने जनचौक के सामने भी खुद को पर्यावरणवादी के रूप में ही प्रस्तुत किया।

इसके साथ सोनम वांगचुक यह भी कहते हैं कि चारागाह की जो जमीनें कार्पोरेट घरानों को सौंपी गई हैं और सौंपी जा रही हैं, सोलर प्लांट के नाम पर या किसी और नाम पर वह बंद होना चाहिए। चरवाहों को उनकी चारागाह की जमीनें सौंपी जानी चाहिए। उन्होंने जनचौक से बात-चीत में यह भी कहा कि चारागाह की कुछ जमीनों पर चीन ने कब्जा कर लिया है और जो बची हैं, उन्हें कार्पोरेट को सौंपा जा रहा है। वे अफसोस जताते हैं कि यही वे चारागाह हैं, जहां वे भेंडे़ं पलती हैं, जिनसे दुनिया का सबसे बेहतरीन पश्मीना मिलता है। चारागाह खत्म होंगे तो पश्मीना भी खत्म हो जाएगा।

सोनम वांगचुक की ये मांगें करीब पूरे लद्दाख की मांग है, बल्कि सच तो यह है कि लद्दाखियों की इन मुख्य मांगों को ही सोनम वांगचुक ने स्वर दिया। कारगिल जिले के बाशिंदों की केंद्रीय संस्था कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस ( KDK) और लेह जिले की सर्वोच्च संस्था एपेक्स बॉडी लेह (ABL) एकजुट होकर सोनम वांगचुक के संघर्ष का समर्थन किया। इस मामले में लद्दाख के दोनों जिलों के बाशिंदे एकमत हैं। भले ही उनके बीच अन्य मामलों में कुछ मतभेद रहा रहे हों या हों। 

पेशे से इंजीनियर वांगचुक एक शिक्षाविद्, एक वैज्ञानिक और पर्यावरणविद और पर्यावरण संरक्षक के रूप में जाने जाते हैं, उन्हें 2018 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार भी मिला है। उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि या जुड़ाव नहीं रहा है। वे 21 दिन तक भूख हड़ताल पर रहे। यह भी रिकॉर्ड है। गांधी की 1943 की सबसे बड़ी भूख हड़ताल भी 21 दिनों की थी।

आखिर क्यों उन्हें भूख हड़ताल जैसा जानलेवा कदम उठाना पड़ा, क्योंकि एक वैज्ञानिक और शिक्षाविद् को सीधे इस देश की केंद्रीय सत्ता से टकराने और दुश्मनी मोल लेने की तरफ बढ़ना पड़ा। इसका जवाब देते हुए वह स्वयं कहते हैं कि हमारे पास संघर्ष में सीधे उतरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। हम लद्दाखियों को  भाजपा और अमित शाह ने धोखा दिया। यह सच है कि हम लंबे समय से केंद्र शासित प्रदेश की मांग कर रहे थे। 5 अगस्त 2019 को लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया। वे कहते हैं हां हमने धारा 370 खत्म करने और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने का स्वागत किया था। हमें उम्मीद थी, वर्षों पुरानी हमारी मांगें अब पूरी होंगी। लेकिन हमें कहने को केंद्र शासित प्रदेश देकर स्वायत्तता तो दी गई लेकिन हमारे हाथ-पांव बांध दिए गए।

व्यवहारिक तौर पर हमारी स्थिति पहले भी बदतर हो गई। केंद्र शासित प्रदेश के नाम पर हमारे ऊपर एक उपराज्यपाल बैठा दिया गया, जिसको लद्दाख के लोगों की समस्याओं, उनकी भौगोलिक-पर्यावरणीय और सामाजिक-सांस्कृतिक हालात का कोई अता-पता नहीं है। वह सिर्फ केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने वाले प्रतिनिधि हैं। उन्हें दिल्ली में बैठे नौकरशाह और मंत्री चलाते हैं। जिनको हमारी समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। सोनम वांगचुक के द्वारा दिए गए तथ्यों और बातों की भाजपा के पूर्व विधायक और जम्मू-कश्मीर सरकार में मंत्री शेरिंग दोरजे ने मुखर और पुरजोर तरीके से पुष्टि की। उन्होंने लद्दाखियों की छठी अनुसूची और चुनी विधानसभा के अरमानों-ख्वाहिशों को रखा और बताया कि कैसे हमारे साथ केंद्र सरकार ने गद्दारी की, हमें ठगा।  

ये मांगें या बातें अकेले सोनम वांगचुक या शेरिंग दोरजे की नहीं हैं, न ही यह कोई अकेले का संघर्ष है। लद्दाख की महिलाओं, छात्रों-नौजवानों और विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक संगठन में भी हर तरह उनके साथ हैं। किशोरों से लेकर बुजुर्ग तक इसमें शामिल हैं। एक बुजुर्ग ने तो जनचौक से बात-चीत में यहां तक कहा कि हमें भले ही जान गवानी पड़े, लेकिन हम छठी अनुसूची लेकर रहेंगे। 

हमें यहां यह भी रेखांकित कर लेना चाहिए कि यह आंदोलन सोनम वांगचुक ने नहीं शुरू किया, यह आंदोलन लद्दाख के लोगों ने सामूहिक तौर पर शुरू किया। छात्रों-नौजवानों ने जोर-शोर से यह मांग उठाई। पुलिस ने ऐसे लोगों की धड़पकड़ भी की। उन्हें डराया-धमकाया गया। सोनम वांगचुक के भूख हड़ताल खत्म करने के बाद भी आज भी यह धरना चल रहा है। जब जनचौक की टीम धरना स्थल पर पहुंची तो उस दिन महिलाओं की बारी थी। लद्दाख के भिन्न-भिन्न समूह अलग-अलग दिन इस धरने और संघर्ष की अगुवाई करते हैं। कुछ दिनों तक छात्रों ने इसकी अगुवाई की, फिर बौद्ध उपासकों-भिक्षुओं ने, उसके बाद कारगिल के मुस्लिम समुदाय की बारी थी। 

पूरा लद्दाख अपने सारे मतभेदों को भुलाकर एकजुट हो गया है। वह छठी अनुसूची के सवाल को अपने अस्तित्व से जोड़कर देख रहा है, वह बिना छठी अनुसूची और चुनी हुई विधान सभा के औपचारिक तौर पर केंद्र शासित प्रदेश घोषित किए जाने को अपने साथ हुए धोखा के रूप में देख रहा है, यह धोखा उसे केंद्र भाजपा सरकार और भाजपा पार्टी ने दिया है। उसे लग रहा है कि उसके साथ छल किया गया। किसी भी लद्दाखी से केंद्र की भाजपा सरकार के लद्दाख के प्रति रवैए बात कीजिए वह उबल पड़ता है। लंबे संघर्ष के लिए खुद को तैयार करता हुआ दिखता है, जब तक उसे संविधान की छठी अनसूची ने मिल जाए। 

(लेह से लौटकर डॉ. सिद्धार्थ की रिपोर्ट।)

जनचौक से साभार

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