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कोरोना पर क्‍यों हो रही इतनी सियासत

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ओमप्रकाश गुप्ता

कोरोना के खिलाफ जंग में भारत ने कई ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल की हैं। स्वदेशी टीके का विकास और करोड़ों भारतीयों को टीका लगाने का महाअभियान निस्संदेह प्रशंसनीय है। आंकड़े बताते हैं कि कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद भारत की स्थिति कई विकसित देशों की तुलना में बेहतर है। परंतु अब दुनिया भर में तेजी से फैल रहे, अत्यधिक संक्रामक ओमिक्रॉन की शक्ल में एक नई चुनौती सामने है। इस खतरे से मुकाबले के लिए एक गहन आत्मचिंतन, आपसी विमर्श और एक राष्ट्रीय दृढ़ संकल्प चाहिए। विभिन्न विचारधाराओं वाले एक विकासशील देश में सर्वसम्मति से राष्ट्रीय संकल्प खड़ा करना बेहद दुष्कर है। जब तक देश एक अनुशासन से नहीं बंधेगा, ओमिक्रॉन वैरिएंट का मुकाबला नहीं किया जा सकता। सरकार के हर मंत्रालय और विभाग को लयबद्ध तरीके से काम करना होगा। उपयुक्त नीतियां बनाकर हर वर्ग को जोड़ना होगा।

विपक्ष का अजेंडा

दूसरी तरफ विपक्ष से भी रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा है। पर अफसोस की बात है कि विपक्षी पार्टियों का अजेंडा कुछ और ही लगता है। वे दलगत फायदे के लिए राष्ट्रीय मुद्दों का राजनीतिकरण करने से नहीं चूक रहे। विपक्ष के लिए हर बहस का राजनीतिकरण करना राष्ट्रीय हित से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।

लोकसभा में 3 दिसंबर को लगभग 12 घंटों तक कोविड-19 पर चर्चा हुई। सरकार ने इस मुद्दे पर जन-प्रतिनिधियों को बोलने का पर्याप्त अवसर दिया। आधी रात तक चली बहस के दौरान 96 सदस्यों ने अपनी बात रखी। उम्मीद की जा रही थी कि देश के नागरिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसदों से रचनात्मक प्रतिक्रिया मिलेगी। लेकिन बहस का नतीजा निराशाजनक रहा। विपक्ष ने यहां भी राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की। विपक्ष को समझना होगा कि राजनीतिक फायदे के लिए सरकार को कटघरे में खड़ा करने से न तो कोरोना भागेगा और न ही देश का भला होगा।

आरोपों की राजनीति में तथ्य और तर्क कहीं खो से गए। हास्यास्पद दावे किए गए, एक विपक्षी सांसद ने कहा कि कोविड-19 की वजह से भारतीय रेलवे का निजीकरण कर दिया गया। अब उन्हें कौन समझाए कि भारतीय रेलवे पहले की तरह अब भी भारत सरकार के अधीन काम कर रही है। और कुछ गतिविधियों में निजी क्षेत्र को जोड़ने का कोरोना वायरस से कोई लेना-देना नहीं है। एक वामपंथी सांसद ने सलाह दी कि टीकाकरण प्रमाणपत्र पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय की तस्वीर लगनी चाहिए न कि भारत के प्रधानमंत्री मोदी की।

हम सब जानते हैं कि एक भारतीय कंपनी ने स्वदेशी वैक्सीन विकसित की है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमोदित किया है। फिर भी एक विपक्षी सांसद ने घोषणा कर डाली कि वैश्विक पर्यवेक्षक महसूस करते हैं कि कोविड से संबंधित विज्ञान में हमारा योगदान बहुत छोटा है। एक अन्य सांसद ने कुछ बेसिर पैर का गुणा-भाग करने की नाकाम कोशिश की। कितने लोगों को टीका लगा और कितनी खुराक दी गई, इसको वह सही से समझ ही नहीं पाए। टीकाकरण की संख्या का गलत अनुमान लगा कर सांसद महोदय बोले कि वह आधिकारिक दावों से चकित हैं। ऐसे ही एक सांसद ने प्रवासी श्रमिकों के घर लौटने का मुद्दा उठाया। यहां तक तो फिर भी ठीक था, पर जब उन्होंने इसे देश के विभाजन के बाद का अब तक का सबसे बड़ा पलायन बताया तब साफ हो गया कि वह राजनीतिक अवसरवाद से ग्रसित हैं।

सरकार की खामियों पर नजर रखना विपक्षी दलों का काम है लेकिन यह रचनात्मक तरीके से किया जाना चाहिए था। भारत सरकार ने दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान चलाया, जो ज्यादातर लोगों के लिए मुफ्त था। महामारी से निपटने में राज्य प्रशासन निश्चित रूप से कहीं बेहतर कर सकता था लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत का प्रदर्शन, स्वयंभू भविष्यवक्ताओं द्वारा किए गए निराशापूर्ण पूर्वानुमानों से कहीं बेहतर रहा।

कोरोना के खिलाफ जंग की शुरुआत भारत ने मात्र 1 परीक्षण केंद्र से की थी लेकिन तीन महीने के भीतर इसे बढ़ाकर 2,500 कर दिया गया। नौ महीने में देश ने प्रतिदिन एक करोड़ टीके लगाने का आंकड़ा पांच बार छुआ। आज देश में 15,000 से अधिक समर्पित कोविड अस्पताल और बीमारी के परीक्षण एवं ट्रैकिंग के लिए एक प्रभावी प्रणाली काम कर रही है, जिसने भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है।

जहां तक सत्ता पक्ष के सांसदों का सवाल है तो लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद में, सरकार के अच्छे कामों को सकारात्मक तरीके से उजागर करना उनका काम है और इसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। परंतु महामारी अभी खत्म नहीं हुई है, वायरस लगातार अपना रूपरंग बदल रहा है, वायरस की संक्रामकता के साथ-साथ उससे निपटने की चुनौती भी बढ़ती जा रही है। कोरोना वायरस का नवीनतम संस्करण ओमिक्रॉन अधिकांश लोगों के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है। इसकी अत्यधिक संक्रामकता ने लोगों को चिंता में डाल दिया है। हालांकि अभी तक के आंकड़े बताते हैं कि यह डेल्टा संस्करण से अधिक घातक और खतरनाक नहीं है।

तीसरी लहर का खतरा

कोरोना की तीसरी लहर का खतरा सिर पर है। संसद में कोरोना पर चली 12 घंटे की बहस एक अवसर के रूप में सामने आई थी, जिसमें सांसद अपने इलाकों के अनुभव साझा कर कोरोना को रोकने के नए सुझाव दे सकते थे। सरकारी तंत्र की कमियों की तरफ इशारा कर सकते थे, परंतु अधिकतर सांसदों ने इस महत्वपूर्ण मौके को गंवा दिया। और वह भी तब जब वायरस का नया संस्करण कभी भी कोरोना की तीसरी लहर में तब्दील हो सकता है। इस देश के लोग राजनेताओं से बेहतर की उम्मीद करते हैं। देश को विभिन्न हितधारकों विशेषकर राजनेताओं के बीच एक स्वस्थ चर्चा की तत्काल आवश्यकता है। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच पर कोरोना पर हुई बहस में जिस तरह का व्यवहार राजनेताओं ने, खासकर विपक्षी सांसदों ने किया, उससे छोटे राजनीतिक हित तो साधे जा सकते हैं लेकिन राष्ट्रहित का नुकसान हो सकता है।

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