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कंगना रनौत की फिल्म मुश्किल में क्यों फंस गई?

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फिल्म इसलिए मुश्किल में नहीं फंसी है कि यह इंदिरा गांधी को एक बुरी नेता के रूप में पेश करती है और उनके मुंह से ऐसी बातें कहलवाती है जो उन्होंने कभी नहीं बोले. ट्रेलर में रनौत की श्रीमती गांधी को ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’ बोलते हुए दिखाया गया है. इंदिरा गांधी ने ऐसा कभी नहीं कहा था. यह जुमला तो 1976 की सर्दियों में गुवाहाटी में हुए कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने बोला था. इमरजेंसी का दौर तब अपने चरम पर था और चापलूसी की होड़ के उस मौसम में उछाले गए बरुआ के इस जुमले ने उनकी विरासत को बदनाम कर दिया.

तसल्ली रखिए, यह लेख नेटफ्लिक्स पर आई अनुभव सिन्हा की वेब सीरीज़ ‘आईसी-814 : द कंधार हाईजैक’ की एक और समीक्षा नहीं है. वैसे, यह लेख समकालीन इतिहास के किसी दौर या व्यक्तित्व को लेकर कला, साहित्य, सिनेमा या टेलीविज़न की किसी कृति से जुड़ी भयावह और अकसर शारीरिक रूप से खतरनाक चुनौती को लेकर व्यापक विमर्श को उकसा सकता है.

‘आईसी-814’ सीरीज़ को लेकर विवाद उसी सप्ताह में उभरा जिसमें कंगना रनौत की फिल्म ‘इमरजेंसी’ को रिलीज़ पर रोक लगाई गई.इस बीच, समकालीन इतिहास से संबंधित विषय पर फरहान अख्तर की फिल्म ‘120 बहादुर’ की रिलीज़ से पहले के विज्ञापन शुरू हो गए हैं. यह फिल्म 1962 में लद्दाख के रेजांग ला में हुई लड़ाई में कुमाऊं रेजीमेंट की चार्ली कंपनी (सी कंपनी, 13 कुमाऊं) की शौर्य गाथा प्रस्तुत करती है. इन उदाहरणों से साफ है कि फ़िल्मकारों को इतिहास की सच्चाइयों में मसाला नज़र आता है, लेकिन संपूर्ण सच के करीब रहने की चुनौती बहुत बड़ी है.

उदाहरण के लिए कंगना रनौत की फिल्म मुश्किल में क्यों फंस गई? मोदी युग में गांधी परिवार की मलामत करने वाली चलताऊ फिल्में जिस रफ्तार से आई हैं उसे देखते हुए आपने सोचा होगा कि यह फिल्म भी इस ‘सिस्टम’ से फटाफट पास कर जाएगी.

कंगना जबकि अब भाजपा की सांसद भी हैं, आप यही उम्मीद करेंगे कि इंदिरा गांधी को उनके सबसे आत्मघाती दौर में, खासकर उस दौर में प्रस्तुत किया जाएगा जब वे संविधान का उल्लंघन कर रही थीं. पिछले चुनाव में भाजपा को इस आम धारणा के कारण झटका लगा कि वह भी संविधान से खिलवाड़ करने के लिए लोकसभा में ‘400 पार’ वाला बहुमत चाहती थी.

नरेंद्र मोदी ने जिसे पवित्र प्रसाद का दर्जा प्रदान किया है उसकी इंदिरा गांधी द्वारा अवमानना को भाजपा अपने ‘ब्रह्मास्त्र’ के रूप में इस्तेमाल करती रही है. उस इंदिरा गांधी के अधिनायकवादी अवतार को हिंदी सिनेमा की एक कुशल अभिनेत्री फिल्मी पर्दे पर प्रस्तुत करे, इससे बढ़िया ‘आईडिया’ क्या हो सकता है?

अब इस फिल्म को सत्ता तंत्र से जुड़े लोगों का प्यार और दुलार मिलेगा, उसको लेकर ट्वीटों की बाढ़ आ जाएगी, तारीफ भरी समीक्षाएं और समर्थन मिलेंगे, सत्ता दल से जुड़े लोग कंगना के साथ सेल्फी लेने के लिए लाइन लगा देंगे, इस सबके सिवा और क्या उम्मीद की होगी तमाम लोगों ने? लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. तो फिर चूक कहां हो गई?

मैंने फिल्म का सिर्फ ट्रेलर देखा है इसलिए मैं कह नहीं सकता कि फिल्म अच्छी है या खराब. इंदिरा गांधी के किरदार में कंगना के साथ दूसर पात्रों को पेश करने वाली मूल फिल्म के अत्यधिक अलंकृत ‘एआई’ संस्करण से तो यह फिल्म काफी बड़बोली, कच्ची और सीधी-साधारण व्याख्या प्रस्तुत करती दिखती है.

मैं यह भी नहीं कह सकता कि फिल्म में जरनैल सिंह भिंडरावाले के किरदार में जिस अभिनेता को जेल से बाहर निकलते और बाद में सिखों की भीड़ को संबोधित करते दिखाया गया है उसे फिल्म में वास्तव में भिंडरावाले ही बताया गया है या नहीं. इस अभिनेता को कांग्रेस के नाम पंजाबी में यह संदेश भी देते दिखाया गया है कि ‘तुम्हारी पार्टी को वोट चाहिए, हमें खलिस्तान चाहिए’. इस दृश्य ने सिखों को बुरी तरह नाराज़ कर दिया है और सम्मानित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एसजीपीसी) भी विरोध में उतर आई है.

फिल्म इसलिए मुश्किल में नहीं फंसी है कि यह इंदिरा गांधी को एक बुरी नेता के रूप में पेश करती है और उनके मुंह से ऐसी बातें कहलवाती है जो उन्होंने कभी नहीं बोले. ट्रेलर में रनौत की श्रीमती गांधी को ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’ बोलते हुए दिखाया गया है. इंदिरा गांधी ने ऐसा कभी नहीं कहा था. यह जुमला तो 1976 की सर्दियों में गुवाहाटी में हुए कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने बोला था. इमरजेंसी का दौर तब अपने चरम पर था और चापलूसी की होड़ के उस मौसम में उछाले गए बरुआ के इस जुमले ने उनकी विरासत को बदनाम कर दिया.

1980 के दशक के शुरुआती दिनों में मैं कभी-कभी नौगांव में उनके घर जाया करता था, जहां वे राजनीति से रिटायर होकर अकेलेपन की ज़िंदगी जी रहे थे. अपनी उस एक ‘गफलत’ को लेकर वे काफी पछतावा ज़ाहिर किया करते थे. क्या श्रीमती गांधी ने खुद कभी ऐसा कुछ कहा था? मैंने जितना कुछ पढ़ा है, उसमें मुझे ऐसा कुछ नहीं मिला. रनौत की फिल्म ‘इमरजेंसी’ का ट्रेलर देखने के बाद बेशक मुझे यह जानकारी मिली है, लेकिन यह फर्जी खबर है.

वैसे, कांग्रेस वाले कोई विरोध नहीं कर रहे हैं, लेकिन फिल्म में भिंडरांवाले के संदर्भ को जोड़ना ज़रूरी था क्योंकि कथित जीवनगाथा में इस बात को रेखांकित करना था कि श्रीमती गांधी ने सिख अलगाववाद के मामले में गैर-जिम्मेदाराना रुख अपना कर अपनी हत्या को बुलावा दिया.

समकालीन इतिहास में ऐसे पर्याप्त सबूत उपलब्ध हैं जो बताते हैं कि शुरुआती चरण में कांग्रेस, खासकर ज्ञानी जैल सिंह ने भिंडरांवाले को इस उम्मीद में संरक्षण दिया कि वह ‘एसजीपीसी’ के चुनाव में शिरोमणि अकाली दल को मुश्किल में डालेगा, लेकिन यह दांव नाकाम रहा और भिंडरांवाले एक ताकत बनकर उभरा. फिल्म का संदेश यह है कि इंदिरा गांधी सत्ता की इतनी भूखी थीं कि वे वोटों की खातिर भिंडरांवाले से खालिस्तान का सौदा करने को भी तैयार थीं.

1983 की गर्मियों में सेना जब ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ करने पहुंची थीं उससे पहले मैं एक रिपोर्टर के नाते भिंडरांवाले से दर्जनों बार मिला था. उससे या अपने किसी ऐसे परिचित को मैंने कभी खालिस्तान की मांग करते नहीं सुना.

भिंडरांवाले के भाषणों के सैकड़ों घंटे के टेप उपलब्ध हैं. उसके संदेश का चाहे जो भी अंश हो, कोई भी इशारा या कोई भी एक्शन हो, उसने कभी खालिस्तान का नाम नहीं लिया. हम सभी रिपोर्टरों ने खालिस्तान पर उससे कभी-न-कभी सवाल ज़रूर पूछे, उसका हमेशा बना-बनाया जवाब यही होता था : ‘मैंने कभी खालिस्तान की मांग नहीं की, न अब कर रहा हूं. लेकिन ‘बीबी’ (इंदिरा गांधी) या ‘दिल्ली दरबार’ अगर मुझे यह दे दे तो मैं ना नहीं कहूंगा.’

बहरहाल, छोटा-सा सबक यह है कि आप इंदिरा गांधी के मुंह में तो कोई भी शब्द डाल करके बच सकते हैं, लेकिन भिंडरांवाले की मौत के 40 साल बाद भी आपने उसके साथ ऐसा कुछ किया तो मुश्किल में पड़ जाएंगे. ऐसी तमाम फिल्में या टीवी सीरियल इसलिए मुश्किल में फंसती हैं क्योंकि वो इस फरेब की ओट लेने की कोशिश करती हैं कि ये सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं. इसलिए, आप तथ्यों में से मनमर्जी चुनाव कर सकते हैं और उन्हें कथा के रूप में प्रस्तुत करके अपने दर्शकों या सत्ताधारियों को खुश कर सकते हैं, लेकिन सुविधाजनक तथ्यों और पक्षपातपूर्ण कथा के मेल से विकृत ‘प्रोपगैंडा’ ही तैयार होता है.

सोनी-लीव पर दो सीज़न तक चले ‘रॉकेट ब्वायज़’ (2022-23) को ही लीजिए. इसने वास्तविक नायकों होमी भाभा और विक्रम साराभाई की जीवनगाथा को चुना, मगर हर एक एपिसोड के साथ उसे गल्प में तब्दील करता गया. महान दलित वैज्ञानिक मेघनाद साहा को भाभा से घोर ईर्ष्या करने वाले मुसलमान के रूप में पेश किया गया. इसके अलावा, सीआईए और दूसरी बुरी ताकतों के साथ साजिश आदि के पहलू भी शामिल कर दिए गए और इस सबका मूर्खतापूर्ण बचाव रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर किया गया.


हकीकत यह है कि हमारी चमड़ी इतनी पतली है कि हम अपने नेताओं पर बनी फिल्मों या जीवनियों में उन्हें देवता के सिवा और किसी रूप में देखना गवारा नहीं करते. हम दिन-ब-दिन ज्यादा-से-ज्यादा तुनुकमिज़ाज होते जा रहे हैं, भारत ने कभी कुछ गलत किया हो यह हमें कबूल नहीं, बशर्ते उसके लिए नेहरू-गांधी को दोषी बताया जा सके.

आंबेडकर, शिवाजी, एम. करुणानिधि, बालासाहेब ठाकरे, झांसी की रानी, कांशीराम, भिंडरांवाले, आदि किसी के भी जीवन पर एक ईमानदार, सच्ची फिल्म तो बस नामुमकिन है. यह बात इस पूरे उप-महादेश पर लागू होती है. यही वजह है कि हमारी सबसे महत्वपूर्ण हस्तियों पर प्रामाणिक जीवनियां विदेशियों ने लिखी है. उदाहरण के लिए जिन्ना और भुट्टो की जीवनी कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्टैनले वॉलपर्ट ने लिखी. यहां तक कि ‘गांधी’ फिल्म भी एक विदेशी ने ही बनाई. रिचर्ड एटेनबरो ने 1963 में जब नेहरू से कहा था कि वे गांधी के जीवन पर फिल्म बनाना चाहते हैं, तब उन्हें सलाह दी गई थी कि उन्हें देवता मत बना दीजिएगा बल्कि वे जैसे थे, अपनी कमजोरियों के साथ, वैसा ही उन्हें प्रस्तुत कीजिएगा. आज क्या ऐसी सलाह दी जाएगी?

राजनीति को भूल जाइए. हमारे खिलाड़ियों की जीवनी छद्म नामों से लिखी जाती है, उनके जीवन पर बनी फिल्मों के सह-निर्माता खुद इसके स्टार ही होते हैं. ‘बॉर्डर’, ‘उरी’ से लेकर कारगिल युद्ध पर बनाई गई तमाम बकवास फिल्मों समेत हमारे सैन्य इतिहास, प्रसिद्ध युद्धों पर बनीं फिल्में इसी रोग से ग्रस्त हैं. क्लिन्ट ईस्टवुड जैसे फिल्मकार हम भारतीयों को नहीं मिल सकते, जिन्होंने ‘फ्लैग्स ऑफ आवर फादर्स’ बनाई और इसके बाद जापानियों के शौर्य को दिखाने के लिए ‘लेटर्स फ़्रोम आइवो जिमा’ बनाई. भारत में युद्ध पर फिल्म बनेगी तो उसमें पाकिस्तानियों को लहराती दाढ़ी आदि रखने वाले मूर्ख, कायर, हास्यास्पद, और घोर इस्लामी दिखाना ज़रूरी होगा. ‘बॉर्डर’ फिल्म को ही याद कीजिए. अब देखिए कि फरहान अख्तर ने चीनियों को किस रूप में पेश किया है. हम इतने संवेदनशील हैं कि फिल्म ‘ओपनहाइमर’ में एक बेडरूम सीन में भगवदगीता का ज़िक्र करते दिखाया गया तो वह हमें नागवार गुज़रा.

किसी भी फिल्मकार को कोई ईमानदार फिल्म बनाने में इस तरह की जो दिक्कतें आती हैं उन्हें समझा जा सकता है. एक कथा कहने मगर अपनी कहानी को विश्वसनीय बताने के लिए केवल अपने अनुकूल तथ्यों को चुनना रचनात्मक एवं बौद्धिक बेईमानी है. यह इतिहास को तोड़मरोड़कर पेश करना, किसी को बेवजह बदनाम करना और किसी का महिमामंडन करना है. यह आपकी फिल्म को कभी ब्लॉक भी कर सकता है, भले ही पूरा सत्तातंत्र आपके पीछे क्यों न खड़ा हो.

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