‘आधी रात हो चुकी थी। सभी यात्री सो रहे थे। मैं बस की आखिरी सीट पर था। आधी रात को झटका और तेज आवाज से मैं जगा। हर तरफ धुंआ और चीख-पुकार मची थी। सांस घुट रही थी। मैंने शीशा तोड़ा और किसी ने मुझे बाहर धक्का दे दिया।’
ये कहानी है शशिकांत गजबे की, जो बुलढाणा बस हादसे में जिंदा बच गए। अफसोस 25 अन्य यात्रियों को बचने का मौका नहीं मिल सका। नागपुर से पुणे जा रही प्राइवेट स्लीपर बस शुक्रवार देर रात महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले में समृद्धि एक्सप्रेस वे के डिवाइडर से टकराकर पलट गई। डीजल टैंक में विस्फोट होने से आग लग गई। ड्राइवर समेत सिर्फ 8 लोग ही जान बचा सके बाकी 25 यात्रियों की मौत हो गई।
शशिकांत गजबे की आपबीती से साफ है कि यात्रियों को बचने का वक्त ही नहीं मिला। इसके बाद ही स्लीपर बसों में सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ गई है। कुछ एक्सपर्ट्स तो स्लीपर बसों को चलता फिरता ताबूत बता रहे हैं और इन्हें बैन करने की मांग की है।
स्लीपर बसों के ज्यादा हादसे होने और उनके जानलेवा बन जाने की 3 बड़ी वजहें हैं…
1. पर्याप्त स्पेस नहीं होता, आवाजाही मुश्किल
स्लीपर बस में सभी बर्थ की लंबाई लगभग 6 फीट और चौड़ाई 2.6 फीट होती है। लेकिन निकलने के लिए जगह काफी कम होती है।
महाराष्ट्र स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन यानी MSRTC की बसों का नया लुक तैयार करने वाले रवि महेंदले बताते हैं कि स्लीपर बसें यात्रियों को लेटने की सुविधा देती हैं, लेकिन आवाजाही के लिए बहुत कम जगह होती है। इसकी वजह से लोगों का हिलना डुलना भी काफी मुश्किल होता है। ऐसे में यदि कोई हादसा होता है तो वे वहीं पर फंस जाते हैं और बाहर नहीं निकल पाते।
आम तौर पर 2×1 भारतीय स्लीपर कोच में 30 से 36 सीट होती है। मल्टी-एक्सल कोचों में सीटों की संख्या 36-40 के बीच होती है। सभी बर्थ की लंबाई लगभग 6 फीट और चौड़ाई 2.6 फीट होती है।
हाल ही में अधिकांश भारतीय राज्य सरकारों ने स्लीपर बस में बर्थ की संख्या को लेकर सख्त आदेश जारी किए हैं। नए नियमों महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पहले ही लागू हो चुके हैं।
यहां पर ट्विन-एक्सल बसों में केवल 30 सीटों की अनुमति है। इसमें टूरिस्ट परमिट और ऑल इंडिया परमिट दोनों वाली स्लीपर बसें शामिल हैं।
2. इन बसों की ऊंचाई का ज्यादा होना
स्लीपर बस की ऊंचाई ज्यादा होने की वजह से हादसे के समय यात्रियों के लिए इमरजेंसी गेट तक पहुंचना काफी मुश्किल होता है।
स्लीपर बसें आमतौर पर 8-9 फीट ऊंची होती हैं। रवि महेंदले ने बताया कि ऐसे में यदि बस अचानक एक तरफ झुक जाती है, तो यात्रियों के लिए इमरजेंसी विंडो या गेट तक पहुंचना असंभव हो जाता है।
वहीं बाहर राहत-बचाव में जुटे लोगों को भी कठिनाई काम का सामना करना पड़ता है, क्योंकि किसी भी यात्री को बाहर निकालने से पहले उन्हें 8-9 फीट ऊपर चढ़ना पड़ता है।
3. ड्राइवर की ओवरवर्किंग और ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम न होना
ज्यादातर स्लीपर बसें 300 से 1000 किमी का सफर रात में ही तय करती हैं। लंबे रूट में ड्राइवर के थकने और झपकी आ जाने की संभावना पूरी होती है। महाराष्ट्र के बुलढाणा में जहां रविवार को स्लीपर बस में हादसा हुआ वहां के SP सुनील कडासने के मुताबिक बस पर नियंत्रण खोने से पहले ड्राइवर को शायद चक्कर आ गया हो या वह सो गया हो।
SP के इस बयान के बाद ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम की उपयोगिता पर सवाल उठाए जा रहा है। ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम नींद आने पर ड्राइवर को अलर्ट करता है। कहा जा रहा है कि यदि बस में ड्राउजीनेस अलर्ट सिस्टम लगा होता तो बस ड्राइवर को नींद आने के समय अलर्ट करके जगाया जा सकता था और इतना बड़ा हादसा नहीं होता।
एक्सपर्ट्स ने कहा कि सो रहे ड्राइवरों को सचेत करने के लिए यह सिस्टम स्टीयरिंग में विभिन्न हिस्सों में लगे सेंसर और डैशबोर्ड पर कैमरे का उपयोग करता है। चालक के नींद में आने का पता स्टीयरिंग पैटर्न, लेन में वाहन की स्थिति, चालक की आंखों और चेहरे और पैर की गति की निगरानी से लगाया जाता है।
सड़क परिवहन मंत्रालय ने 2018 में 15 राज्यों में ड्राइवरों पर एक सर्वे किया था। इस सर्वे में शामिल 25% ड्राइवरों ने स्वीकार किया था कि गाड़ी चलाते समय वे सो गए थे। ग्लोबल स्टडीज से यह भी पता चला है कि हाईवे और ग्रामीण सड़कों पर यात्रा करते समय ड्राइवरों के सो जाने की संभावना अधिक होती है। साथ ही आधी रात से सुबह 6 बजे के बीच इसके होने की संभावना ज्यादा होती है।
चीन 11 साल पहले लगा चुका है बैन, सिर्फ भारत-पाकिस्तान में इस्तेमाल
चीन में 2009 के बाद स्लीपर बस से जुड़े 13 हादसे हुए। इस दौरान 252 लोगों की मौत हो गई। 2011 में हेनान प्रांत में एक स्लीपर बस में आग लगने से 41 लोगों की मौत हो गई थी।
इसी वजह से जुलाई 2011 में चीन के परिवहन मंत्रालय और सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय ने दिशा-निर्देश जारी किए। इसमें कहा गया कि स्लीपर बस चलाने वाले ड्राइवरों को रात 2 से सुबह 5 बजे तक आराम करना चाहिए क्योंकि स्लीपर बसों से जुड़ी अधिकांश दुर्घटनाओं की वजह ड्राइवरों की थकान से संबंधित थीं।
यहां पर यह गौर करने वाले बात है कि चीन में अगस्त 2012 में जो स्लीपर हादसा हुआ वो भी रात 2:40 बजे एक्सप्रेसवे पर हुआ। 28 अगस्त 2012 को चीन के शानक्सी प्रांत में एक हाईवे पर स्लीपर बस मेथनॉल ले जा रही टैंकर से टकरा गई। बस में आग लगने से 36 लोगों की मौत हो गई।
इसके बाद चीन में स्लीपर बसों के नए रजिस्ट्रेशन पर बैन लगा दिया गया। हालांकि, पुरानी स्लीपर बसें चलती रहीं। अकेले 2012 में स्लीपर बसों से जुड़ी कम से कम तीन दुर्घटनाएं हुईं, इनमें 62 लोगों की मौत हो गई और 67 लोग घायल हुए। ये सभी हादसे रात में हुए।
चीन में बैन होने से पहले 37 हजार स्लीपर बसें चल रही थीं। देश के 5 हजार रूट पर लगभग 10 लाख लोग स्लीपर बस से सफर करते थे।
रवि महेंदले के मुताबिक भारत और पाकिस्तान को छोड़कर किसी अन्य देश के पास इतनी स्लीपर बसें नहीं हैं।
स्पीड लिमिट कंट्रोल करने की जरूरत, स्लीपर बसों पर रोक की भी मांग
महाराष्ट्र में समृद्धि एक्सप्रेसवे पर पिछले छह महीनों में सड़क दुर्घटनाओं के कारण 88 लोगों की जान चली गई है, जिसमें शनिवार को मारे गए लोग भी शामिल हैं। इसी वजह से एक्सपर्ट्स ने हाईवे पर स्पीड लिमिट को कंट्रोल करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।
महाराष्ट्र में समृद्धि एक्सप्रेसवे पर स्पीड लिमिट 120 किमी/ घंटे है। सेव पुणे ट्रैफिक मूवमेंट चलाने वाले हर्षद अभ्यंकर कहते हैं कि हमें पहले 100 किमी/घंटे की रफ्तार से गाड़ी चलाने की अपनी क्षमता दिखानी होगी।
सरकार को स्पीड लिमिट कम करनी चाहिए और दुर्घटनाओं की संख्या कम होने पर वह इसे धीरे-धीरे बढ़ा सकती है। इसके साथ हाईवे सीधा है, कोई मोड़ नहीं है और परिदृश्य में भी ज्यादा बदलाव नहीं है।
इस वजह से ड्राइवर को बोरियत होती है और नींद आती है जो दुर्घटना की वजह बनती है। ट्रांसपोर्टरों का भी कहना है कि सरकार को सभी हाईवे का अध्ययन करने की जरूरत है।
रवि महेंदले कहते हैं, ‘स्लीपर बस की डिजाइन में खामी होने चलते ही मैंने कई बार सड़क परिवहन मंत्रालय को पत्र लिखकर स्लीपर बसों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया था। उन्होंने कहा कि अब तक मुझे कोई जवाब नहीं मिला है।’