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गिनती की सांसे, क्यों खर्चे प्राणायाम में!

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 डॉ. विकास मानव

गिनती की सांसे मिली हैं. इन्हें प्राणायाम में क्यों खर्च करें? श्वास की विधि में तो ज्यादा श्वासें खर्च होंगी. हमें गिनती की ही तो श्वासें मिली हैं.ऐसा कतिपय आत्मघातियों द्वारा कहा जाता है. आज का लेख इसी टॉपिक पर.

      हमने हमेशा आत्मसाधकों से और अपने बड़े- बूढों को यही कहते हुए सुना है कि हमें गिनती की ही तो श्वासें मिली हुई है। मुझे याद है पहले पहल जब मैंने ध्यान-प्रयोग शुरू किया था तो एक मित्र ने मुझे कहा भी था कि तुम जो ध्यान में यह जल्दी- जल्दी और तेज श्वास ले रहे हो इससे श्वास कम हो रही है, हमें गिनती की ही तो श्वासें मिली है.

        यदि हम भाव से भरकर विचार करें तो यह बात सही लगती है कि हमें गिनती की ही श्वासें मिली है। जिस दिन आखिरी श्वास आएगी उसके बाद कोई श्वास नहीं मिलेगी तो पहली श्वास और आखिरी श्वास के बीच की श्वासें तो गिनती की ही हुई न!

      यदि दुर्घटनावश किसी की श्वास बीच में ही रूक जाए, किसी को ह्रदय घात हो जाए तो हम यही तो कहते हैं कि भगवान से इतनी ही श्वासें मिली थी।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यदि हम देखेंगे तो हमें यह लगेगा कि प्रकृति में कितनी तो हवा है, जितनी श्वास हम लेना चाहें ले सकते हैं। जिस दिन हमारा शरीर जराजीर्ण होकर श्वास लेने में असमर्थ होगा श्वास स्तः ही रूक जाएगी! इसमें इतनी चिंता क्या करना? 

      लेकिन भगवान शिव की दृष्टि से यदि हम देखते हैं तो वे तंत्र-सूत्र में कहते हैं कि जो जो भी जीव अपने शरीर की प्रकृती के अनुसार, शरीर के स्वभाव के अनुसार जीते हैं उसकी श्वास प्राकृतिक तरीके से चलती है, वे बीमार नहीं होते हैं और अपनी पूरी उम्र जिते हैं जैसे कि पशु -पक्षी।

       पशु-पक्षी अपने मूल स्वभाव में जिते हैं। न वे जरूरत से ज्यादा भोजन करते हैं, न वे जरूरत से ज्यादा आराम करते हैं और न ही वे जरूरत से कम नींद लेते हैं।

     हमने देखा है कि शादी-ब्याह या अन्य किसी आयोजनों में यदि आवारा कुत्तों को जरूरत से ज्यादा भोजन मिल जाए तो अजीर्ण न हो इसके लिए वे घास खाकर वमन कर देते हैं। 

हम जरूरत से ज्यादा भोजन करते हैं, जरूरत से कम श्रम करते हैं और जरूरत से कम ही नींद भी लेते हैं। जिससे हमारा शरीर अपनी प्राकृतिक श्वास लेना भूल ही गया है। क्योंकि इसे हमने अपने स्वभाव के अनुसार जीने ही नहीं दिया है।

     शरीर को नींद आ रही है और हम किसी काम में लगे हुए हैं, हमने उसे अपने स्वभाव से बाहर खींच लिया। पेट भर गया है और फिर भी हम खाए चले जा रहे हैं, हमने इसे अपने स्वभाव से बाहर खींच लिया है। पैर नाचने के लिए थिरकने लगे हैं और हमने शरीर को नाचने से रोक दिया, हमने फिर इसे अपने स्वभाव से बाहर खींच लिया है।

      हम अपने शरीर के स्वभाव को अनदेखा कर देते हैं जिससे हमारा शरीर अपने मूल स्वभाव को भूल ही गया है। जिससे शरीर में तनाव, थकान और विभिन्न प्रकार की तकलीफें शुरू हो जाती है और हमारी श्वास अपनी वास्तविक लय खो देती है।

श्वासें तो हमें पूरी मिली हुई है। इतनी श्वासें मिली है कि हम लंबी उम्र जी पाएं। लेकिन हम उन्हें अधूरी ही ले पा रहे हैं। कहते हैं हम रोजाना इक्कीस हजार छः सौ श्वास ले पा रहे हैं। रोजाना हमारी इक्कीस हजार छः सौ श्वासें ज़ाया हो रही है।

     हम यदि चाहें तो इन श्वासों से आधी श्वासें बचा सकते हैं! हम चाहें तो इन इक्कीस हजार छः सौ श्वासों में से आधी श्वास, यानी दस हजार आठ सौ श्वासें रोजाना बचा सकते हैं।

     श्वासें बचेंगीं श्वास को पूरी लेने पर, अधूरी लेने पर नहीं। सीने तक श्वास लेना अधूरी श्वास लेना है और नाभि तक श्वास लेना पूरी श्वास लेना है। 

हम पूरी श्वास नहीं लेते हैं, वर्तमान में हमारी श्वास सिर्फ सीने तक ही जा पाती है। यानी हमारी श्वास आधी दूरी ही तय करती है, अधूरी ही वापस लौट आती है। यदि हम अपनी श्वास को पूरी दूरी तय करने देते हैं, अर्थात सीने की अपेक्षा नाभी तक जाने देते हैं तो हम अपनी प्राकृतिक श्वास को पा लेंगे, श्वास अपनी लय को पा लेगी और हम अपनी श्वासों को बचा पाएंगे।

      सीने तक श्वास लेने में जितना समय लगता है नाभि तक श्वास लेने में उससे दो-गुना समय लगता है। यदि सीने तक श्वास लेने में दो सेकंड लगते हैं तो नाभि तक श्वास लेने में चार सेकंड लगेंगे।

    यानी दो सेकंड में जो श्वास हम लेते हैं उसे लेने में चार सेकंड लगेंगे! अर्थात जितने समय में हम दो श्वासें ले रहे थे उतने समय में हम एक ही श्वास लेंगे! इस तरह से हम अपनी आधी श्वासों को बचा सकते हैं। 

नाभि तक श्वास लेना प्राकृतिक श्वास लेना है और सीने तक श्वास लेना अप्राकृतिक श्वास लेना है। सीने तक श्वास लेने में हमारे भीतर आक्सीजन की कमी होती है जिससे हम तनाव और थकान अनुभव करते हैं जिससे तरह-तरह की बिमारियां हमें घेर लेती है और नाभी तक श्वास लेने में हमारे भीतर आक्सीजन बढ़ जाती है जिससे हमें स्फूर्ति और ताजगी महसूस होती है तथा हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।

     अतः कोई भी बिमारी हमें नहीं घेर पाती है हम तनाव मुक्त, स्वस्थ और लंबी उम्र जी पाते हैं। 

      इस तरह से नाभि तक गहरी श्वास लेकर हम अपनी श्वासों को बचा लेते हैं तो फिर कोई सी भी धीमी या तेज श्वास वाली विधि हम करें, तो हमारी श्वासें कम नहीं होंगी। वैसे हमें इस तरह की किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए।

गिनती की श्वास मिली है ऐसा कहकर गुरूजी हमें यह याद दिलाते हैं कि रोजाना श्वासें कम होती जा रही है। समय बिता जा रहा है, जितनी जल्दी हो सके तुम ध्यान-साधना में लग जाओ। 

     प्राणायम स्फूर्ति देता है, ताजगी देता है जिससे कभी-कभी शिष्य ज्यादा प्राणायम करने लगता है और ज्यादा प्राणायम नुकसान करता है। इसलिए भी गुरूजी कहते हैं कि गिनती की ही श्वासें मिली हुई है, श्वासें बर्बाद मत करो। 

      हमें तो ऐसे प्रयास करने चाहिए, जिससे हमारा शरीर अपनी प्राकृतिक श्वास को लेने लगे। जो श्वास हम बचपन में लेते थे। बचपन में हम नाभि तक श्वास लेते थे, इसलिए हमें सतत उर्जा मिलती थी और हम थकते नहीं थे। यदि हमारी श्वास नाभि तक जाएगी तो हम पुनः बचपन की तरह ही उर्जावान हो जाएंगे।

      इसके लिए यदि हम भोजन, श्रम और नींद को सुधार लेते हैं, शरीर की जरूरत के अनुसार भोजन लेते हैं, श्रम करते हैं, पसीना बहाते हैं और पूरी नींद लेते हैं तो हमारा शरीर अपने स्वभाव के अनुसार जीने लगता है और हमारी श्वास स्वतः ही अपनी लय में चलने लगती है, और हम अपनी श्वास को पूरा जीते हुए ध्यान में प्रवेश कर जाते हैं।

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