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क्यों डरा रहा मौसम का बदलता मिजाज?

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वरुण गांधी

पिछले साल अप्रैल-मई के बीच 35 करोड़ भारतीयों को अप्रत्याशित गर्मी झेलनी पड़ी। इनमें 25.4 करोड़ तो लगातार 300 घंटे यानी 12 दिन से अधिक समय तक इस झुलस की चपेट में रहे। 1990 से 2019 के बीच पंजाब, हरियाणा, यूपी, बिहार और राजस्थान के ज्यादातर जिलों में पारे में औसतन 0.5-0.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। इस दौरान देश के 54 फीसदी जिलों में सर्दियों के तापमान में भी इसी तरह की वृद्धि देखी गई। 2021 से आगे 2050 तक अनुमान है कि देश के कम से कम 100 जिलों में 2 से 3.5 डिग्री सेल्सियस तक और 455 जिलों में 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस तक तापमान बढ़ जाएगा। इसी तरह 485 जिलों में सर्दियों के तापमान में भी 1-1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़त का अनुमान है।

टूटते रेकॉर्ड

सर्दी का मौसम छोटा होने और अधिकतम तापमान बढ़ने से पारिस्थितिक संतुलन के साथ पौधों की वृद्धि भी प्रभावित होगी। इसे एक उदाहरण से भी समझ सकते हैं। भारत का 90 फीसदी जीरा उत्पादन गुजरात और राजस्थान में होता है। मौसम के हालिया परिवर्तन का नतीजा यह है कि राजस्थान में ज्यादातर जीरे की फसल नष्ट हो गई है। ऐसी ही दुर्दशा सरसों, इसबगोल और अरंडी के साथ भी देखी जा रही है। कृषि फसल के नुकसान से आगे तापमान का यह परिवर्तन हमें सूखे और उच्च मृत्यु दर की ओर भी ले जा सकता है। बढ़ते तापमान ने शहरों में जीवन को मुश्किल बना दिया है।

मौजूदा हालात में अर्बन हीट आईलैंड इफेक्ट को कम करने के लिए हमें शहरी क्षेत्रों में हरियाली बढ़ानी होगी। इसके साथ नागरिक बुनियादी ढांचे और आवासीय निर्माण में ऐसी सामग्री के इस्तेमाल को बढ़ाना देना होगा, जिससे गर्मी की मार से बचा जा सके। ताप-अवशोषक जीआई और मेटल रूफ शीट के उपयोग से बचने के लिए शहरी भवन मानकों को अपग्रेड करना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अकेले मुंबई में 2011 में 10.2 लाख घरों की छतें ऐसी ही थीं।

ग्रीन पहल करनी होगी

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़े खतरों के बीच भारी ट्रैफिक जैसी समस्याओं ने शहरों के बसाव और उनसे जुड़े मानकों को तकरीबन धराशायी कर दिया है। फिलहाल शहरों की जो स्थिति है उसमें कुछ जरूरी हरित उपायों पर सख्ती से विचार करना होगा। सार्वजनिक परिवहन अपनाना, निजी वाहनों का उपयोग कम करना और लैंडफिल के आकार को कम करना ऐसे ही उपाय हैं।

कुल मिलाकर हमें मौसम की परिवर्तनशीलता और शहरी ताप प्रबंधन के लिए एक समन्वित और समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस बीच, हम लगातार अल निनो प्रभावित मॉनसून की तरफ बढ़ रहे हैं, जो सीमांत किसानों और शहरी प्रवासियों/मजदूरों के लिए अशुभ है। हम एक चुनावी वर्ष में भी जा रहे हैं। खुद को भारी तपिश के बीच छोड़ देने की लाचारी झेल रही जनता नेताओं की बातों को कितनी गंभीरता से लेगी, अंदाजा लगाया जा सकता है।

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