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क्या उप्र में भाजपा मॉब लिंचिग से हासिल करेगी अपनी खोई जमीन?

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लाल बहादुर सिंह

उप्र में राजनीतिक हलचल तेज होती जा रही है। लोकसभा चुनाव के बाद अब उप-चुनावों से होते हुए आगामी विधानसभा चुनाव के लिए मैदान सजने लगा है। सभी दल अपनी रणनीति को fine tune कर रहे हैं। अभी अभी सम्पन्न हुए 7 राज्यों के तेरह उपचुनावों के नतीजे भाजपा के लिए और गहरी चिंता के सबब बन गए हैं जिनमें 10 सीटों पर इंडिया गठबंधन की पार्टियां जीत गई हैं, 1 पर निर्दलीय प्रत्याशी जीते हैं और मात्र 2 सीटें भाजपा जीत पाई है। अयोध्या लोकसभा के बाद अब बद्रीनाथ की प्रतिष्ठामूलक विधानसभा सीट भी भाजपा हार गई है। जाहिर है अब इसके बाद होने जा रहे उप्र के उपचुनाव को लेकर भाजपा रण्नीतिकारों की चिंता की लकीरें और गहरी हो गई हैं।

भाजपा किंकर्तव्यविमूढ़ लग रही है। उसके रणनीतिकारों को कोई नया रास्ता सूझ नहीं रहा डैमेज कंट्रोल का। वे फिर एक बार पुराने रास्ते “बैक टू बेसिक्स” जाते दिख रहे हैं। उप्र में बुलडोजर न्याय जारी है। राजधानी लखनऊ तक में तमाम बस्तियां उजाड़ी जा रही हैं। बुलडोजर अब अकबर नगर, अबरार नगर होते हुए पंत नगर पहुंचने वाला है। इसके खिलाफ नागरिक समाज तथा तमाम राजनीतिक दल लड़ने के लिए कमर कस रहे हैं।

प्रदेश में मॉब लिंचिंग की घटनाओं की बाढ़ आ गई है। मुस्लिम नेतृत्व के प्रतीक के बतौर आजम खान पर दमन चक्र और बुलडोजर का कहर बरपा होना जारी है। आश्चर्य नहीं कि हाथरस कांड पर बुलडोजर शांत है क्योंकि वह सत्ताधारियों को पॉलिटिकली सूट कर रहा है, क्योंकि दलित जाटव समुदाय पर बाबा का असर बताया जाता है। जिस आदमी के कार्यक्रम में सौ से ऊपर लोग मर गए उसका एफआईआर में नाम तक नहीं है। जाहिर है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और जातियों के जोड़तोड़ के अलावा भाजपा के पास और कोई रास्ता नहीं बचा है।

क्या उप्र में अपनी खोई जमीन भाजपा मॉब लिंचिग से हासिल करेगी?

शामली के थाना भवन थाना क्षेत्र में कथित मॉब लिंचिंग से फिरोज की मौत हो गई। घटना की सोशल मीडिया पर रिपोर्टिंग करने वाले दो मुस्लिम पत्रकारों जाकिर अली त्यागी व वसीम अकरम त्यागी सहित तीन पत्रकारों के खिलाफ नए आपराधिक कानून की धाराओं में मुकदमा दर्ज कर दिया गया। इसके पूर्व 18 जून को दिहाड़ी मजदूर मो. फरीद की अलीगढ़ में पीट पीट कर हत्या कर दी गई।

जहां तक कांग्रेस की बात है उसने जगजीवन राम के जन्मदिन के बहाने दलित बस्तियों में सहभोज आदि के आयोजन शुरू किए हैं। उसकी निगाह दलित वोट बैंक पर है क्योंकि आज उसके पास कोई ठोस सामाजिक जनाधार नहीं है। राहुल गांधी पीड़ितों से मिलने हाथरस और अलीगढ़ गए, प्रशासन की विफलता को उन्होंने कोसा, हालांकि बाबा के खिलाफ कोई बयान देने से वे बचे।

सपा ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव के सफल फॉर्मूले को ही फिर आजमाना चाहती है। पीडीए के मध्यम से दलित पिछड़ों अल्पसंख्यकों को एकजुट करने पर उसका जोर है। कांग्रेस और सपा का साथ रहना मुस्लिम, दलित, अतिपिछड़े वोटों को आकर्षित करने की अनिवार्य शर्त बन गया है। इसलिए यह गठबंधन विपक्ष के लिए आज एक स्वाभाविक जरूरत बन गया है।

बसपा भी ऐसा लगता है कि अपने पुनर्जीवन के लिए फिर कमर कस रही है। जैसे लोकसभा चुनाव की गलतियों का कोर्स करेक्शन करते हुए मायावती ने भतीजे आकाश आनंद को पुनः अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है जिसे भाजपा की तीखी आलोचना के बाद पद से तथा उत्तराधिकार से वंचित कर दिया था। हाथरस कांड पर अकेले मायावती ने बाबा के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है क्योंकि वे इस बात को समझती हैं की बाबा को मोहरा बनाकर भाजपा तथा अन्य दल उनके वोट बैंक में सेंध लगाना चाहते हैं।

वामपंथी लोकतांत्रिक ताकतें उप्र में कमजोर हैं। लेकिन यही समय है जब भाजपा मोदी योगी सरकार के खिलाफ चौतरफा पहल लेते हुए वे प्रदेश की राजनीति में अपनी जगह बना सकती हैं।

क्या विपक्ष इस बार संविधान को फिर मुद्दा बना पाएगा, यह देखने की बात होगी। लेकिन संभवतः यह पुराने तरह से संभव नहीं हो पाएगा बल्कि नए संदर्भ में संविधान की उपयोगिता और उसके मूल्यों पर भाजपा संघ के प्रहार को नए ढंग से व्याख्यायित करना पड़ेगा, उदाहरण के लिए संविधान के प्रस्तावना के बुनियादी मूल्यों समानता स्वतंत्रता भाईचारा और न्याय पर हमला। धर्मनिरपेक्ष समाजवादी लोकतांत्रिक गणतंत्र के मूल्यों पर हमला, संवैधानिक मूल्यों मसलन, जीवन का अधिकार, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य का अधिकार गारंटी, आरक्षण का, जाति जनगणना, किसानों को एमएसपी गारंटी का सवाल काले कानूनों के खात्मे का सवाल मजदूरों को लेबर कोड से बचाने का सवाल। विपक्ष अगर यह सोच रहा है कि अब लड़ाई उसके हाथ में आ चुकी है, तो यह अतिआत्मविश्वास आत्मघाती हो सकता है।

भाजपा के अंदर और एनडीए के अंदर ऐसे संकेत है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा।स्वयं पार्टी के विधायक अगले चुनाव में हार की भविष्यवाणी कर रहे हैं। तो दूसरे प्रभावशाली विधायक अपनी सरकार में अभूतपूर्व भ्रष्टाचार पर बिफर रहे हैं। उप्र की अप्रत्याशित लेकिन भीषण पराजय के बाद पार्टी के भीतर गुटीय लड़ाइयां तेज हुई हैं। यह तो साफ ही है की की यह ब्रांड मोदी और ब्रांड योगी दोनों की पराजय हुई है। कोई अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। लेकिन क्या डैमेज कंट्रोल के नाम पर गुटीय लड़ाई में योगी को किनारे लगाने में शाह मोदी सफल होंगे, क्या पिछड़े समुदाय से कोई मुख्यमंत्री बनेगा?

बीजेपी की समस्या यह भी है की उनके पास बड़े कद का कोई पिछड़ा नेता भी नहीं है। फिर योगी की जगह किसी रिप्लेसमेंट से लेने के देने भी पड़ सकते हैं। या आरएसएस के वरदहस्त से क्या योगी अपने को बचाने में सफल होंगे और आने वाले दिनों में और अधिक स्वायत्त और ताकतवर हो जायेंगे?

इतना तय है कि इस लड़ाई के फलस्वरूप भाजपा की स्थिति बद से बदतर ही होनी है। इसी के साथ उनके छोटे पार्टनर्स भी मुश्किल बढ़ा रहे हैं। आम तौर पर हार का ठीकरा एक दूसरे पर फोड़ा जा रहा है। भाजपा नेता छोटे दलों को हार के लिए जिम्मेदार मान रहे हैं, तो वे भाजपा के 400 पार जैसे नारों को। ओम प्रकाश राजभर और निषाद पार्टी के विधायक हाल ही में NEET लीक मामले में गिरफ्तार हुए हैं।

अनुप्रिया पटेल आरक्षण आदि के सवाल पर योगी सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही हैं। आने वाले दिनों में यूपी के दस उपचुनावों और तीन विधानसभा चुनावों में अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो ये लड़ाइयां और तेज होने के आसार हैं। यह साफ है कि जाति जनगणना आदि सवाल तेज हुए तो उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सामाजिक ध्रुवीकरण तेज होता जायेगा और एनडीए में टूट से इंकार नहीं किया जा सकता।

मोदी राज में उत्पादक शक्तियों की कैसी तबाही हुई है इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से सात साल में 2015- 16 से 2022- 23 के बीच मजदूरों की संख्या में 16.45 लाख गिरावट हुई है। (Ministry of Statistics and Programme implementation)

जब कि महाराष्ट्र, गुजरात यहां तक कि पिछड़े बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश भी अपनी स्थिति सुधारने और आगे बढ़ने में सफल हुए। लेकिन मोदी जी के नक्शे कदम पर चलते हुए योगी जी के नेतृत्व में उप्र फिसड्डी बना हुआ है। कहां 7 साल में बड़े पैमाने पर यूनिट्स और मजदूर बढ़ने चाहिए थे, लेकिन उल्टे उत्तर प्रदेश में 89.99 लाख से घटकर सात साल में 89.94 औद्योगिक इकाइयां बची हैं और 1.65 करोड़ की जगह 1.57 करोड़ लोग ही अब काम में हैं।

आज लाख टके का सवाल यह है कि जब उत्पादक शक्तियों का ऐसा विनाश हो रहा है और प्रदेश चौतरफा आर्थिक तबाही तथा गरीबों, हाशिए के तबकों पर बुलडोजरी जुल्म की प्रयोगशाला बन गया है, तब क्या विपक्ष एक ऐसा समावेशी आर्थिक सामाजिक कार्यक्रम लेकर आयेगा जो आम जनता के सभी तबकों की आकाक्षाओं को संबोधित हो, विशेषकर सभी तबकों के युवाओं के रोजगार के सवाल पर ठोस आश्वासन दे सके?

क्या विपक्ष समाज की सभी हिस्सों के जीवन के ठोस सवालों को राजनीति के केंद्र में ले आयेगा। याद रखना होगा पहचान और वोट बैंक की राजनीति के दिन लद रहे हैं। हाल ही में इस राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी ओम प्रकाश राजभर ने स्वयं यह कन्फेशन किया कि जाति के नेताओं की वोट ट्रांसफर करा पाने की क्षमता चुकती जा रही है। विपक्ष की सर्व समावेशी ठोस आर्थिक सामाजिक नीति पर ही आने वाले दिनों में उप्र की राजनीति का भविष्य निर्भर है।

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