कुमार विजय
बिहार की राजनीति में 2024 लोकसभा चुनाव को लेकर सरगर्मियाँ शुरू हो चुकी हैं। राजनीति में हमेशा से ही दो तरह के चरित्र दिखते रहे हैं एक जो वैचारिक धरातल पर खड़े होकर राजनीति करते हैं और दूसरे वह जो सत्ता सापेक्ष होकर सिद्धांत से समझौता करते रहते हैं। सिद्धांत से समझौता करने की मुख्य वजह हमेशा से ही सरकार में बने रहने के लिए होती है। बिहार की राजनीति का अगर हम मूल्यांकन करें तो साफ़ दिखता है की वर्तमान में बिहार की राजनीति सिर्फ दो ध्रुवों पर टिकी हुई है। एक तरफ भाजपा है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनता दल है। बिहार के अन्य छोटे राजनीतिक दल जातीय राजनीति के सहारे समय सापेक्ष पाला बदलते रहते हैं। जदयू के नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के एक अन्य और सर्वाधिक महत्वपूर्ण चहरे हैं जिन्होंने कभी भी अपना कोई ध्रुव नहीं बनाया बल्कि जब जिस ध्रुव के साथ सही सरोकार बना सके उसी के कंधे पर सवार हो लिए। पिछले पंद्रह वर्षों की बिहार की राजनीति में नीतीश के लिए यह कहना गलत नहीं होगा कि “लोहा किसी का भी धार नीतीश कुमार की होती है”।
पिछले लोकसभा और विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार भाजपा के साथ खड़े थे। 2014 के लोक सभा चुनाव में नीतीश कुमार भाजपा से इसलिए दूर थे कि भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बना दिया था। अब एक म्यान में दो तलवारें तो रखी नहीं जा सकती थी इसलिए एनडीए से नीतीश कुमार दूर हो गए थे। राजनीति में अगर विचारधारा के स्तर पर राजनीति का मामला ना हो तो आदमी और पार्टी का कोई स्थाई चरित्र नहीं विक्सित हो सकता है। नीतीश के साथ भी यही बात रही बात रही वह समय के साथ सरोकार बदलते रहे हैं। 2014 से ही देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए व्यग्र नीतीश कुमार एक बार फिर से अपने इस सपने का रथ सजाने में लग गए हैं। इसी सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने भाजपा से गठबंधन तोड़कर राजद का साथ पकड़ लिया है। नीतीश कुमार बखूबी जानते थे कि एनडीए के साथ खड़े होकर वह अपने मंसूबों का दीपक नहीं जला सकते हैं इसलिए उन्होंने राजद के साथ हाथ मिला लिया और एक नए राजनीतिक भविष्य का सपना सजाने लगे। देखा जाय तो नीतीश कुमार राजद से ज्यादा तेजस्वी यादव का साथ चाहते थे। तेजस्वी यादव इस समय जहाँ बिहार में सामजिक न्याय के सबसे बड़े नेता माने जा रहे हैं वहीँ देश की समाजवादी विचारधारा की राजनीति में वह जरूरी केन्द्रक बने हुए हैं। तेजस्वी और नीतीश कुमार के एक साथ आ जाने से यह तय है की भाजपा बिहार में कोई बड़ी हिस्सेदारी नहीं पाने वाली है। जातीय जनगणना की लड़ाई का सबसे अगला चेहरा बन जाने की वजह से तेजस्वी अब जहां भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे को बड़ी चुनौती दे रहे हैं वहीं विपक्ष की राजनीति का फोकस भी तेजस्वी यादव के मुद्दे पर समर्थक भाव के साथ दिख रहा है।
नीतीश कुमार चाहते थे कि हम अपनी पार्टी का विलय उनकी पार्टी में कर दे, लेकिन यह कदम हमारे कार्यकर्ताओं के सम्मान और उसूलों के खिलाफ होता है। हमने बड़ी मेनहत से अपनी पार्टी का निर्माण किया है और जनता की आवाज बने हुए हैं। हम अपनी पार्टी JDU में मिला देते तो हमारी आवाज खत्म हो जाती, इसलिए मैंने कैबिनेट से इस्तीफा देने का फैसला किया।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पहले से ही सामजिक न्याय के मोर्चे पर दलित, पिछड़ा और मुस्लिम समाज की लड़ाई के अगुआ बने हुए हैं। कर्नाटक में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने इसी मुद्दे के आधार पर भाजपा को सत्ता से हटाने में सफलता ही नहीं पाई बल्कि भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेंडे के के खिलाफ जनता को बहुलताबादी दृष्टिकोण भी दिया। उत्तर प्रदेश में भी समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी पिछले एक साल से अपनी राजनीति को इस मुद्दे पर केन्द्रित करने का प्रयास कर रहे हैं पर अखिलेश वैचारिक धरातल पर कई बार अपने मुद्दे से हटते या फिर फिसलते रहे हैं। स्वतंत्र भारत में वीपी सिंह द्वारा मंडल मॉडल लागू किये जाने के दौर में दलित-पिछड़े समाज की राजनैतिक हिस्सेदारी के साथ सामाजिक स्थिति भी मजबूत हुई थी। दलित और पिछड़े समाज के साझे हित की बात करने वाली यह राजनीति ज्यादा लम्बे समय तक साझे हित की बात करते हुए आगे नहीं बढ़ सकी। जातीय आधार पर दलित और पिछड़े समाज अपने अलग-अलग नायक तलाशने में जुट गए । अलग नेतृत्व और नायकत्व की तलाश में यह साझा दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में तेजी से टूटने लगा। उत्तर प्रदेश और बिहार में दलित और पिछड़े समाज के बीच कई बार अप्रत्याशित दूरी देखी गई और इस बिभाजन का फायदा उठाते हुए दोनों ही प्रदेशों में भाजपा की सूखी डूब को सत्ता के गलियारे में फिर से उगने का मौका मिल गया।
सामाजिक न्याय के संघर्ष में पिछड़ा वर्ग के नेता अक्सर दलित समाज को साथ ले के चलने की बात करते रहे हैं पर दलित नेता अक्सर संघर्ष के बजाय सत्ता के साथ खड़े होने का प्रयास दिखाते हैं। दलित समाज के बड़े नेता कहे जाने वाले कांशीराम भी हमेशा सत्ता में बने रहने को प्रथामिकता देते रहे हैं और आजा भी दलित समाज के बड़े नेता डा अम्बेडकर के चिंतन से अलग होकर सावरकर और हेडगेवार की उस पार्टी के साथ खड़े दिखते हैं जिसके राजनीतिक एजेंडे हमेशा ही भारतीय संविधान से ज्यादा मनुस्मृति से पोषित होते रहे हैं। दलित और पिछड़ा वर्ग आज यह तो जानता है कि उसका हित भारतीय संविधान के अन्दर ही सुरक्षित है पर उसके तमाम नायक उत्तर प्रदेश और बिहार में सत्ता में बने रहने के प्रयास के तहत बार-बार भाजपा के साथ गठबंधन करते रहे हैं।
ताजा घटना क्रम में लोकसभा चुनावों से पहले विपक्षी दलों को एक करने में जुटे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बड़ा झटका लगा है। उनकी सरकार में बिहार सरकार में अनुसूचित जाति/ जनजाति कल्याण मंत्री और जीतन राम मांझी के बेटे डॉ. संतोष कुमार सुमन (मांझी) ने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया है। संतोष सुमन अल्पसंख्यक कल्याण विभाग संभाल रहे थे। उनके इस्तीफे ने राज्य की राजनीति में हलचल बढ़ा दी है। पटना में कुछ दिनों बाद होने वाली विपक्ष की बैठक से पहले नीतीश कुमार के लिए ही नहीं बल्कि दलित पिछड़े समाज की साझी राजनीतिक पहल पर भी बड़ा झटका है। बिहार प्रदेश की 16 प्रतिशत आबादी दलित होने से हर पार्टी दलित वोट को अपने साथ जोड़ने की फिराक में लगी हुई है। संतोष मांझी ने कहा कि नीतीश कुमार हमारी पार्टी हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा को अपनी पार्टी में विलय करने का दवाब बना रहे थे। फिलहाल इस बयान की सच्चाई जो भी हो पर संतोष मांझी भाजपा के साथ जाते दिख रहे हैं और यह सामजिक न्याय की लड़ाई के लिए एक बड़ा झटका है जबकि रामबिलास पासवान के भाई पशुपति पारस और बेटे चिराग पासवान पहले ही अपनी-अपनी पार्टी पर भाजपा का राग बजा रहे हैं।
चुनाव में सभी पार्टियों को दलितों के इस वोट की जरूरत होगी। सभी 243 विधानसभा क्षेत्र करीब-करीब 40 से 50 हजार दलित मतदाता हैं। जो किसी की भी जीत में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। कांग्रेस भी इस बात को भलीभांति समझती है। लिहाजा कांग्रेस भी पुरानी रणनीति में बदलाव करते हुए सवर्ण वोटो की बजाय अपना ध्यान दलित वोटों पर केन्द्रित करती दिख रही है। फिलहाल यह तो तय है कि बिहार की बिसात पर शुरू हुई इस उठक पटक के अभी कई रंग सामने आने वाले हैं और यह भी साफ़ दिखने लगा है कि दलित छत्रप ही कमजोर करेंगे समामजिक न्याय के संघर्ष को।