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समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन: क्या उत्तर प्रदेश में बदलेंगे समीकरण

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लखनऊ: उत्तर प्रदेश के राजनीति में एक बार फिर बदलाव हुआ है। 7 सालों के बाद प्रदेश की राजनीति फिर उसी ध्रुव पर पहुंचती दिख रही है, जहां वर्ष 2017 में थी। यूपी विधानसभा चुनाव 2017 से पहले प्रदेश में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे। लेकिन, लोकसभा चुनाव 2014 की हार के बाद प्रदेश की राजनीति पर उनकी पकड़ कमजोर हुई थी। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के उभार को रोकने के लिए अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने हाथ मिलाया। पूरे प्रदेश में ‘दो लड़कों की जोड़ी’ के कमाल की चर्चा खूब हुई। कभी भारतीय जनता पार्टी के चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर इस गठबंधन को रचने और जमीन पर उतरने में बड़ी भूमिका निभाते दिखे थे। यूपी चुनाव 2017 में गठबंधन कोई कमाल नहीं दिखा पाई। इसके बाद समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की राहें अलग हो गई। सात सालों के बाद अब अखिलेश यादव और राहुल गांधी एक बार फिर साथ आ गए हैं। इस गठबंधन के पीछे इस बार बड़ी भूमिका प्रियंका गांधी की रही है। गठबंधन के तहत समाजवादी पार्टी 63 और कांग्रेस 17 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। वाराणसी समेत उन सीटों से सपा अपने उम्मीदवार हटाएगी, जो गठबंधन के तहत कांग्रेस के पाले में गई है। बुधवार को कांग्रेस- सपा के संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में इस संबंध में बड़ा ऐलान किया गया।

2017 चुनाव परिणाम के बाद अलग हुई थी राह

यूपी चुनाव 2017 के नतीजों के बाद दोनों दलों की राहें अलग हुईं तो इसके बाद से फिर कभी एक साथ नहीं दिखे। इस बीच तीन चुनाव हुए। तीनों में कांग्रेस लगातार पिछड़ती चली गई। समाजवादी पार्टी भी अपनी पुरानी स्थिति को पाने में इस दौरान कामयाब नहीं हो पाई। यूपी चुनाव 2022 में रिकॉर्ड वोट शेयर को छोड़ दें तो अखिलेश यादव के लिए पिछले तीन चुनाव कुछ खास परिणाम नहीं दे पाए हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर समाजवादी पार्टी ने अपने स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश की। हालांकि, पार्टी को उस स्तर की सफलता नहीं मिली। हां, बहुजन समाज पार्टी ने सपा के साथ गठबंधन का लाभ जरूर उठाया। पार्टी ने 10 सीटों पर अपने उम्मीदवार जिता लिए।

कांग्रेस के सामने संकट बड़ा

2014 में दो लोकसभा सीटें अमेठी और रायबरेली जीतने वाली कांग्रेस लोकसभा चुनाव 2019 में आधे पर रह गई। अमेठी से राहुल गांधी चुनाव हार गए। रायबरेली से सोनिया गांधी केवल अपना सीट बचाने में कामयाब रही थीं। लोकसभा चुनाव 2024 में सोनिया गांधी ने रायबरेली से चुनाव न लड़ने का फैसला लिया है। हालांकि गठबंधन के तहत अमेठी और रायबरेली दोनों सीटें कांग्रेस के पाले में गई हैं। कांग्रेस के सामने प्रदेश में राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने की चुनौती रही है।

कांग्रेस को प्रदेश में सपा के साथ की सबसे अधिक जरूरत थी। इस कारण पार्टी 17 सीटों पर ही चुनाच लड़ने को तैयार हो गई। पहले अखिलेश ने कांग्रेस को 11 सीटें ऑफर की थी। जयंत चौधरी के गठबंधन से अलग होने के बाद माना जा रहा है कि उनको जाने वाली 6 सीटें भी कांग्रेस को दी गई हैं।

10 साल में 28 से 2 पर कांग्रेस

कांग्रेस को पिछले वर्षों में लगातार झटके लगे हैं। यूपी में बड़ी राजनीतिक पकड़ रखने वाली कांग्रेस को पिछले तीन विधानसभा चुनावों में लगातार झटके लगे। यूपी चुनाव 2012 में कांग्रेस ने करीब 11.7 फीसदी वोट शेयर के साथ 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी। यूपी चुनाव 2017 में कांग्रेस को बड़ा झटका लगा। समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बाद भी पार्टी महज 6.25 फीसदी वोट हासिल कर सकी। पार्टी के 114 उम्मीदवारों में से केवल 7 ही जीत दर्ज करने में कामयाब रहे।

यूपी चुनाव 2022 में 2.33 फीसदी वोट शेयर के साथ केवल 2 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब हुई। प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 399 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इसके बाद भी पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने में सफल नहीं हो पाई। वहीं, 2017 मं 21.82 फीसदी वोट पाने वाली सपा ने वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में 32.06 फीसदी वोट हासिल किया। पांच सालों में पार्टी 47 से 111 सीटों तक पहुंच गई।

कांग्रेस- सपा के लिए गठबंधन जरूरी

कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लिए यूपी में गठबंधन जरूरी हो गया था। दरअसल, पिछले दिनों में समाजवादी पार्टी अपने साथ मुस्लिम वोट बैंक को उस प्रकार से जोड़ पाने में कामयाब नहीं हो पा रही है। अखिलेश यादव के सॉफ्ट हिंदुत्व वाली राजनीति ने अखिलेश की चिंता बढ़ाई है। यह वोट बैंक कांग्रेस और बसपा की तरफ शिफ्ट हो सकता था। अब कांग्रेस को साथ जोड़कर अखिलेश ने इस वोट बैंक पर एक बार फिर अपना भरोसा कायम करने की कोशिश की है। वहीं, मायावती को गठबंधन से बाहर रखकर पार्टी ने विपक्ष में अपनी ताकत का भी अहसास कराया है।

मुरादाबाद सीट को लेकर पिछले दिनों कांग्रेस के साथ खींचातानी की खबरें आईं। दरअसल, मुरादाबाद सीट से प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा को उम्मीदवार बनाए जाने के कयास लग रहे थे। लेकिन, अखिलेश एसटी हसन को हटाने के पक्ष में नहीं थे। अब यह सीट फिर सपा के पाले में आ गई है। इसका संदेश मुस्लिम वोट बैंक को देने का प्रयास होगा कि अखिलेश ने उनके समाज के नेता के लिए गठबंधन तक कुर्बान कर दिया था। ऐसे संदेश चुनावी मैदान में बड़ा फर्क पैदा कर सकते हैं।

कांग्रेस के पास जनाधार को बढ़ाने की चुनौती है। साथ ही, सबसे अधिक परेशानी बूथ लेवल कार्यकर्ताओं की है। निचले स्तर पर संगठन की कमजोरी से पार्टी जूझ रही है। इस प्रकार की स्थिति में कांग्रेस को एक मजबूत संगठन की जरूरत है। समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ने पर पार्टी को यह मिल सकता है। इसके बाद पार्टी अपनी स्थिति लोकसभा क्षेत्रों में मजबूत कर सकती है। हालांकि, चुनौती निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को कांग्रेस या सपा उम्मीदवारों के लिए शिफ्ट कराने की भी होने वाली है।

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