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क्या BJP को चुनौती दे पाएगा SP-कांग्रेस अलायंस

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नदीम

ना-ना करते बात हां-हां में बदल गई। कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी (SP) की 17 सीटों के ऑफर को मंजूर कर ही लिया। या यूं कहें कि उसे मंजूर करना ही पड़ा। वही कांग्रेस जो पहले यूपी में 2009 लोकसभा चुनाव के नतीजों को आधार बनाते हुए दो दर्जन से कम सीटों कोई बात सुनने को तैयार नहीं थीं।

जो मिला, ठीक है : समाजवादी पार्टी की तरफ से पहले अपने प्रत्याशियों के एलान, फिर कांग्रेस के लिए 17 सीटें छोड़ने की घोषणा को ‘अधिकृत’ नहीं मान रही थी। जिसके कई नेता मीडिया में यह स्थापित करने में जुटे थे कि दूसरे विकल्प भी उपलब्ध हैं, उसी पार्टी ने न केवल संख्या में 17 सीटें बल्कि 17 में भी वो सीटें जो समाजवादी पार्टी ने अपने सुविधानुसार दीं, स्वीकार कर लिया। और, अब उसे BJP को हराने की दिशा में उठाया गया बेहद महत्वपूर्ण कदम बता रही है।

कैसे बदला मन : कांग्रेस के मन बदलने की दो बड़ी वजहें हैं। एक यह कि कांग्रेस को जमीनी हकीकत का अंदाजा है। लड़ने को 80 सीटों पर भी लड़ा जा सकता है। 2019 में पार्टी ने यही किया था, लेकिन जीत मिली सिर्फ एक सीट पर। राहुल गांधी भी हार गए थे। दूसरी वजह, कांग्रेस की उम्मीद BSP से जुड़ी हुई थी, लेकिन वह समझौते के लिए तैयार नहीं हुई। वहीं, SP ने 17 सीटें ऑफर कर ‘लास्ट एंड फाइनल कॉल’ के मोड में आ गई। कांग्रेस को लगा कि अगर यह मौका भी गया तो यूपी में उसका कोई सहारा नहीं होगा।

SP की जरूरत : यूपी में BJP के खिलाफ अगर कोई विकल्प के रूप में जाना जाता है तो वह SP ही है। कांग्रेस तो राज्य में हाशिए पर ही है। BSP की हालत भी कुछ वैसी ही है। 2022 विधानसभा चुनाव में 403 सदस्यों के सदन में उसका सिर्फ एक प्रत्याशी जीत पाया। 2014 लोकसभा चुनाव में BSP को एक भी सीट नहीं मिली थी। 2019 में SP से गठबंधन में उसे दस सीटों पर जीत मिली थी। मुख्य विपक्षी दल के नाते SP के लिए जरूरी था कि BJP के खिलाफ एकजुटता हो।

मुस्लिम वोटरों का दबाव : चुनाव से पहले राष्ट्रीय लोकदल भी SP का साथ छोड़ BJP के संग चला गया। BSP के साथ गठबंधन न करने का एलान पार्टी पहले ही कर चुकी है। ऐसे में उसे लगा कि अगर कांग्रेस के प्रति भी अड़ियल रवैया रहा तो BJP के खिलाफ एकजुटता न हो पाने का ठीकरा उसके सिर ही फूट जाएगा। खास तौर पर मुस्लिम मतदाताओं के बीच इसका संदेश अच्छा नहीं जाएगा, जिसे SP का कोर वोटर समझा जाता है।

17 सीटें ही क्यों : 2019 में कांग्रेस एक सीट जीती और तीन पर वह दूसरे नंबर पर रही थी। SP पहले कांग्रेस को 11 सीटें ही देना चाहती थी। रायबरेली और अमेठी में वह पहले से उम्मीदवार नहीं उतारती है। इस तरह से कांग्रेस की 13 सीटें हो रहीं थी। सात राष्ट्रीय लोकदल के लिए थीं। बची 60 सीटें समाजवादी पार्टी ने अपने लिए रखी थीं। जब राष्ट्रीय लोकदल साथ नहीं रहा तो सात सीटें और बच गईं। इसी वजह से कांग्रेस को 17 सीटें मिल गईं।

2009 का फॉर्म्युला : कांग्रेस हाल-फिलहाल के वर्षों में जब भी किसी दल के साथ गठबंधन के लिए बात करती है तो वह यूपी के 2009 लोकसभा चुनाव को बेस बनाने की जिद करने लग जाती थी। 2024 के लिए भी यही हो रहा था। दरअसल, 90 के दशक से कांग्रेस जब यूपी से बेदखल हुई तो 2009 ही एकमात्र ऐसा लोकसभा चुनाव रहा, जिसमें उसका प्रदर्शन करिश्माई रहा है। उसने तब राज्य में 21 संसदीय सीटें जीती थीं, BSP से भी एक ज्यादा। उस साल SP को 23 सीटों पर जीत मिली थी।

कितना मजबूत गठबंधन : SP और कांग्रेस के बीच समझौता होने के बाद सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस गठबंधन का क्या असर होगा? इसका जवाब है कि BJP के लिए यह चुनौतीपूर्ण साबित हो या ना हो, लेकिन BSP की मुश्किलें जरूर बढ़ेंगी। वजह यह है कि मुस्लिम वोटों का रूझान इस गठबंधन के साथ हो सकता है, जिसका नुकसान सीधे तौर पर BSP को होगा। BSP मुस्लिम बाहुल सीटों पर मजबूत मुस्लिम चेहरों के साथ चुनाव में उतरने की योजना बना रही है।

SP का फायदा : यह मानी हुई बात है कि कांग्रेस के पास यूपी में अपना कोई वोट नहीं है। जो कुछ भी है, वह SP का ही है। गठबंधन में भी उसे ही BJP के मुकाबले अपनी ताकत झोंकनी होगी। 2017 विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ चुकी है, लेकिन तब उसे कोई फायदा नहीं हुआ था। लेकिन एक बार फिर गठबंधन कर अखिलेश यादव ने यह धारणा बनने से रोका कि कांग्रेस को साथ रखने का प्रयास न करके उन्होंने BJP को मजबूती दी।

2024 कितना अलग : पिछले लोकसभा चुनाव में यूपी में SP और BSP का गठबंधन था, जिसे वोटों के गणित के हिसाब से सबसे मजबूत गठबंधन माना जा रहा था। लेकिन राजनीति में 2+2=4 नहीं होता। अलग-अलग चुनाव लड़ने पर पार्टियों को जो वोट मिल रहे होते हैं, जरूरी नहीं होता कि पार्टियों के साथ आने पर वह भी एक हों। अखिलेश यादव 2019 से सबक लेते हुए इस बार रणनीति तैयार कर रहे हैं।

क्या है रणनीति : अखिलेश यादव ने पार्टी के कोर वोट बैंक के बिखराव रोकने को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाया है। उन्होंने प्रत्याशी घोषित करने में भी देरी नहीं की। चुनाव अधिसूचना जारी होने से पहले वह ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर पहुंच कर कोर वोटबैंक के स्थानीय चेहरों की नाराजगी दूर करना चाहते हैं। जिन्हें टिकट नहीं मिल पा रहा है, उन्हें विधानसभा के चुनाव में समायोजन का वायदा कर रहे हैं।

BSP का रास्ता : BSP का अकेले चुनाव में जाना तय है। कांग्रेस के साथ वह चुनावी गठबंधन से इसलिए बची कि उसके साथ उसे कोई फायदा नहीं दिख रहा था। BSP चीफ मायवती ने कई मौकों पर यह कहा भी है कि चुनाव पूर्व वह किसी गठबंधन में जाने के बजाय चुनाव बाद परिस्थितियों को ध्यान में रखकर गठबंधन करना पसंद करेंगी।

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