*(आलेख : राजेंद्र शर्मा)*
विधानसभाई चुनाव के मौजूदा चक्र में पांच में से तीन राज्यों — मिजोरम, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश — मेें इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वोट डाले जा चुके हैं और चौथे राज्य –राजस्थान– में इसी हफ्ते के आखिर में वोट पड़ जाएंगे। उसके बाद, इस चक्र में से तेलंगाना ही बचेगा, जहां मतदान इस महीने के आखिरी दिन 30 नवंबर को होना है। लेकिन, तेलंगाना का मामला वैसे भी इस चक्र में कुछ अलग-सा है। विधानसभाई चुनावों के इस चक्र में शामिल यह इकलौता दक्षिणी राज्य, ऐसा इकलौता राज्य भी है, जहां राष्ट्रीय मुख्यधारा की पार्टी बनने की आकांक्षी एक क्षेत्रीय पार्टी– बीआरएस (पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति) — सत्ता में है। दूसरी तरफ, मिजोरम की तरह, इस चक्र का यह एक और ऐसा चुनाव मुकाबला है, जहां केंद्र में सत्ताधारी भाजपा, अपनी सारी कोशिशों तथा सारे पैंतरों तथा सारी ताकत झोंकने के बावजूद, चुनावी हाशिए पर ही है। प्राय: सभी चुनावी रिपोर्टें और चुनाव-पूर्व सर्वे इस पर एकमत हैं कि तेलंगाना में वास्तविक चुनावी मुकाबला बीआरएस और कांग्रेस के बीच ही है, जबकि भाजपा काफी पीछे तीसरे स्थान के लिए होड़ कर रही है। इस माने में तेलंगाना के विधानसभाई चुनाव की कहानी के संकेत, मिजोरम की तरह, चुनाव के इस चक्र की मुख्य कहानी से अलग ही रहते लगते हैं। इसीलिए, हैरानी की बात नहीं है कि अब तक बाकायदा इसकी चर्चाएं भी शुरू हो गयी हैं कि चुनाव के इस चक्र के मोटे तौर पर उत्तरी भारत के लिए क्या संकेत हैं और विशेष रूप से आगामी आम चुनाव के लिए, सीधे चुनावी नतीजों के अलावा क्या संकेत नजर आ रहे हैं?
इस सिलसिले में एक स्वत:स्पष्ट रुझान की ओर स्वाभाविक रूप से अनेक टिप्पणीकारों का ध्यान गया है। विशेष रूप से उत्तरी भारत के तीनों राज्यों — छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान — में, इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच जिस तरह कल्याणकारी कदमों के वादों की होड़ लगी हुई है, इससे पहले कम-से-कम हिंदीभाषी इलाके में शायद ही कभी देखने को मिली हो। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में, जहां कांग्रेस सत्ता में है, कांग्रेसी सरकारों में इन कल्याणकारी कदमों के वादों को और बढ़ाने की और भाजपा की ओर से, उनसे बढ़कर वादे करने की होड़ लगी हुई है। इसी प्रकार, मध्य प्रदेश में जहां भाजपा सरकार में है, उसकी ओर से बढ़-चढ़कर वादे करने की कोशिश की गयी है और उसे चुनौती दे रही कांग्रेस ने भी उसके एक-एक वादे का मुकाबला करने की कोशिश की है। इस कोशिश में दोनों ओर के चुनाव घोषणापत्रों में जैसे सभी संभव तबकों के लिए रियायतों के वादों को समेट लिया गया है।
विभिन्न तबकों के लिए रियायतों के वादों की इस होड़ में, जिसमें एक प्रकार से दोनों पक्ष एक जैसे ही वादे करते नजर आते हैं, एक दिलचस्प मुकाबला और जुड़ गया है। यह मुकाबला है, अपने इन वादों की विश्वसनीयता का भरोसा दिलाने और प्रतिद्वंद्वी के वादों को हवा-हवाई साबित करने के मुकाबले का। जाहिर है कि इस मुकाबले में छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान में कांग्रेस और मध्य प्रदेश में भाजपा, अपनी पिछली सरकार के रिकार्ड के आधार पर, अपने वादों की विश्वसनीयता साबित करने में लगी हुई हैं और दूसरी ओर, जो पार्टियां सत्ता में नहीं हैं, वे संबंधित राज्यों की पिछली सरकारों के रिकार्ड के दावों पर भी सवालिया निशान लगाने में जुटी हुई हैं। इस सब के बीच भाजपा ने, जो कि इन तीनों हिंदीभाषी राज्यों में एक प्रकार से प्रधानमंत्री मोदी के ही चेहरे पर चुनाव लड़ रही है और जिसने इस चक्र में अपने इकलौते मुख्यमंत्री, शिवराज चौहान तक की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पर खुद ही संदेह खड़े कर दिए हैं, फिर पूर्व-मुख्यमंत्रियों — वसुंधरा राजे और रमन सिंह — की तो बात ही क्या करना, एक नया काम यह किया है कि इन सारे वादों को बाकायदा ‘‘मोदी की गारंटियां’’ का नाम दे दिया गया है। यह दूसरी बात है कि इस संदर्भ में ‘‘गारंटियां’’ शब्द के उपयोग को, कांग्रेस अपनी शब्दावली में से बौद्धिक चोरी का मामला बता रही है।
इस सबसे कुछ टिप्पणीकारों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि अब इन चुनावों में मुकाबला, जनता के लिए रियायतों के वादों के बीच हो चला हैै। इसके साथ उसी सांस में यह भी जोड़ दिया जाता है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे और प्रयास, पीछे पड़ गए लगते हैं! यहां तक कि आने वाले आम चुनाव के लिए भी ऐसे ही इशारे देखने की भी कोशिशें की जा रही हैं। लेकिन, ऐसा कोई निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा। बेशक, इसमें कोई शक नहीं है कि एक बार फिर चुनाव सामने देखकर, प्रधानमंत्री मोदी ने और जाहिर है कि उनसे संकेत ग्रहण कर संघ-भाजपा के समूचे नेतृत्व ने, तथाकथित ‘‘मुफ्त की रेवडिय़ों’’ के प्रति अपनी हिकारत को अचानक सिर्फ त्याग ही नहीं दिया है, जोर-शोर से खुद भी अपनी ओर से इस तरह की रियायतें देने की कसमें खाने में लगे हुए हैं। यह दूसरी बात है कि ‘‘मोदी की गारंटी’’ की शब्दावली का सहारा लेने के बावजूद, अपने वादों को विश्वसनीय बनाने के लिए उन्हें ‘‘मुफ्त की रेवडिय़ों’’ के प्रति हिकारत के अपने सुप्रीमो के रिकार्ड के चलते, कुछ-न-कुछ अतिरिक्त मेहनत जरूर करनी पड़ रही है।
फिर भी मुद्दा सिर्फ विभिन्न तबकों के लिए रियायतों की इन घोषणाओं के मामले में मुख्य प्रतिद्वंद्वियों के रूप में कांग्रेस और भाजपा के बीच होड़ होने का ही नहीं है। अव्वल तो यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा इस होड़ में कोई स्वेच्छा से शामिल नहीं हुई है। उसका स्वाभाविक रुख तो, जिसे उसके शीर्ष सिद्घांतकारों ने फिलहाल ताक पर भले रख दिया हो, पर त्यागा अब भी नहीं है, ‘‘मुफ्त की रेवडिय़ों’’ के तौर पर, इस सब को ज्यादा से ज्यादा एक जरूरी भटकाव मानने का ही है। बेशक, इसके बावजूद विपक्ष के ज्यादा से ज्यादा असरदार होते दबाव में, संघ-भाजपा को इसके आरोपों का खंडन करने के लिए कि उसके पास ‘‘हिंदू-मुस्लिम करने’’ के सिवा, जनता को देने के लिए कुछ है ही नहीं, जनता को देने के लिए अपनी ओर से पेशकशें करनी जरूर पड़ रही हैं, लेकिन उसकी यह मुद्रा एक चुनावी कार्यनीतिक मुद्रा ही है। इन सभी पेशकशों का प्रधानमंत्री के नाम व छवि के साथ जोड़ा जाना भी, इन्हें चुनावी कार्यनीति से ऊपर नहीं उठा पाता है, जहां चुनाव के बाद इन्हें जुमला कहकर खारिज किया जाना मुश्किल हो।
इससे भी महत्वपूर्ण यह कि इस तरह की चुनावी कार्यनीतिक मुद्रा के अपनाए जाने में, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के पैंतरों का पीछे रखे जाना खोजना सही नहीं होगा। यह ज्यादा से ज्यादा इतना दिखाता है कि संघ-भाजपा खांटी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के नारे पर चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, नहीं लडऩे जा रहे हैं, बल्कि चुनाव प्रचार में जनहितकारी वादों का भी सहारा लेने जा रहे हैं। लेकिन, खांटी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के नारे पर चुनाव लडऩे की कल्पना तो वास्तविकता न होकर, बहस में या आलोचना में पेश किया जाने वाला, एक कैरीकेचर भर ही हो सकती है। जनतांत्रिक चुनाव में लोगों को उनके हितों का ख्याल रखने का भरोसा तो, किसी भी राजनीतिक पार्टी को दिलाना ही होता है, वह अपने सार में चाहे जितनी भी जनविरोधी क्यों न हो।
तो क्या हम जो देख रहे हैं, उसे सांप्रदायिक और लोकप्रियतावादी या लोकरंजक, इन दो अलग-अलग तत्वों के मिश्रण के रूप में देखा जाना सही होगा? पहली नजर में जरूर यह इस प्रकार के मिश्रण का मामला लग सकता है और इस मिश्रण में कोई लोकप्रियतावादी तत्व की अधिकता या प्रमुखता भी खोज सकता है। लेकिन, संघ-भाजपा के मामले में इन दो प्रकार के तत्वों की उपस्थिति को इस तरह से देखना भ्रामक होगा। असल में इस मामले में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का आवेग, एक बुनियादी ढांचे का काम करता है और इस बुनियादी ढांचे में ही लोकप्रिय तत्व समेत दूसरे सभी तत्व संयोजित हो जाते हैं। इसके लिए संघ-भाजपा अपने लिए, चुनाव प्रचार के दौरान ही नहीं, बल्कि उससे आगे-पीछे, एक प्रकार से समग्रता में अपनी गतिविधियों के जरिए, एक धार्मिक-राजनीतिक यानी बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक पहचान बनाती हैं। और यही पहचान, उनके लोकप्रियतावाद को भी परिभाषित करती है। जैसे वे आदिवासियों के हित की दुहाई तो देंगे, लेकिन उसके साथ ही उसमें ईसाई-आदिवासीविरोधी तत्व जोड़ देंगे। वे रोजगार की बात तो करेंगे, लेकिन फौरन उसके साथ अनारक्षण का आग्रह या अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण से पिछड़े गैर-हिंदुओं को बाहर करने का आग्रह ले आएंगे। जनतंत्र की दुहाई देंगे और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का छीनने के जतन कर रहे होंगे, आदि, आदि।
इस सिलसिले में, विधानसभाई चुनाव के इस चक्र में ही तथाकथित ‘‘तुष्टीकरण’’ विरोध को, जिस तरह भाजपा के बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक संदेश का मुख्य वाहक बना दिया गया है, उसे याद रखना जरूरी है। इस बार के अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण से शुरू कर के मोदी ने, बार-बार प्रयोग कर के ‘‘तुष्टीकरण” विरोध के नारे को, अपने अल्पंख्यक और विशेष रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यकविरोधी मंतव्यों का संकेतक बना दिया है। सबसे बढक़र राजस्थान में कन्हैयालाल टेलर की हत्या के प्रसंग के बहाने से, जाहिर है कि बिना किसी ठोस आधार के प्रधानमंत्री मोदी से लेकर नीचे तक, संघ-भाजपा की सेनाएं जिस तरह ‘‘तुष्टीकरण’’ का शोर मचाती मिल जाएंगी, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ही पुकार है। इसी के सहारे राजस्थान में कांग्रेस के राज में हिंदुओं के असुरक्षित हो जाने, उनका अपने त्यौहार मनाना मुश्किल हो जाने आदि का सरासर झूठा आख्यान, खुद प्रधानमंत्री द्वारा प्रचारित करने की कोशिश की गयी है। यह संघ-भाजपा के लिए अयोध्या में राम मंदिर की दुहाई से भी ज्यादा असरदार पुकार है।
हैरानी की बात नहीं होगी कि विधानसभाई चुनावों के मौजूदा चक्र के नतीजों के बाद, संघ-भाजपा को विभिन्न तबकों के लिए रियायतों के वादों के रूप में और भी ज्यादा लोकप्रियतावाद की मिलावट करनी पड़े। लेकिन, यह मिलावट सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के समग्र ढांचे में अन्य तत्वों के संयोजन के रूप में की जा रही होगी और राम मंदिर की दुहाई से भी बढक़र, ‘‘तुष्टीकरण’’ विरोध का और हिंदुओं के खतरे में होने के शोर को इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का औजार बनाया जाएगा।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*